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इसरो के चेयरमैन डॉ. कैलाशवाडिवू सिवन ने ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा से खास बातचीत में देस के पहले मानव अंतरिक्ष मिशन के बारे में विस्तार से बताया. कुछ अंशः
प्र. अमेरिका, रूस और चीन के बाद हिंदुस्तान चौथा देश होगा जो अंतरिक्ष में मानव मिशन भेजेगा. अंतरिक्ष में इनसान को भेजने के बारे में इतना खास क्या है? हम ऐसा क्यों कर रहे हैं—क्या यह पहिए को दोबारा ईजाद करने की तरह नहीं है?
असल में बात सिर्फ अंतरिक्ष में इनसान को भेजने की नहीं है. साइंस और टेक्नोलॉजी के बारे में पूरे देश की समझ का स्तर बढ़ेगा. यह युवाओं को कुछ नया करने को प्रेरित करेगा और उन्हें विज्ञान के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के लिए बढ़ावा देगा. इस खास प्रोजेक्ट के साथ कई संस्थाएं और उद्योग जुड़े हैं. इस लिहाज से यह महज इसरो का प्रोजेक्ट नहीं बल्कि राष्ट्रीय प्रोजेक्ट है. इसमें शामिल हरेक भारतीय एजेंसी अपने हुनर को प्रदर्शित कर सकती है और देश उस पर गर्व कर सकता है. साइंस और टेक्नोलॉजी में हम विकसित देशों के बराबर हैं.
बड़ी चुनौतियां कौन कौन-सी हैं जिनसे इसरो को पार पाना है?
हमारे पास जो भी टेक्नोलॉजी है, वह उपग्रह लॉन्च करने से जुड़ी है. मगर जब हम इनसान को लॉन्च करते हैं, तो इंजीनियरिंग और तकनीकी पहलुओं के अलावा इसमें इनसानी बातें, लाइफ साइंसेज भी आते हैं. हमें पक्का करना पड़ता है कि मॉड्यूल के भीतर इनसान सुरक्षित रहे और तमाम हालात वैसे ही हों जैसे पृथ्वी पर होते हैं. ऐसा माहौल तैयार करना और ऐसा वातावरण बनाना हमारे लिए चुनौती है, यह हमारे लिए नया है. हमने इनमें से कुछ काम को पहले आजमाया है, मसलन एन्वायरनमेंट कंट्रोल और लाइफ सपोर्ट सिस्टम. हमने स्पेस सुइट्स पर बहुत सारा अध्ययन किया है. मगर अब हमें इसे और आगे ले जाने की जरूरत है.
एस्ट्रोनॉट के लिए किस किस्म के प्रशिक्षण की जरूरत होगी और कौन इसके लायक होगा?
जरूरी नहीं है कि वह लड़ाकू पायलट ही हो. कोई भी जा सकता है, बशर्ते वे मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और मानसिक तौर पर फिट हों. बेशक लड़ाकू पायलट की मजबूती और सहनशक्ति दूसरों के मुकाबले बेहतर होगी. मगर हम इस पर काम कर रहे हैं कि उन्हें कैसे चुनें और कैसे प्रशिक्षण दें. बेंगलूरू में इंस्टीट्यूट ऑफ एरोस्पेस मेडिसिन के पास एस्ट्रोनॉट को प्रशिक्षण देने की सुविधाएं हैं. उन्होंने राकेश शर्मा के लिए यही काम किया था. मगर हमें कहीं ज्यादा कठोर प्रशिक्षण की जरूरत होगी और हो सकता है, उसके लिए क्षमताएं विकसित करनी पड़ें. प्रधानमंत्री ने जो लक्ष्य तय कर दिया है, 2022, उसको देखते हुए हमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग की और बाहरी सुविधाओं और प्रणालियों के इस्तेमाल की जरूरत पड़ सकती है.
ऑर्बिट में कैप्सूल पहुंचाने के लिए रॉकेट लॉन्चर के बारे में क्या कहेंगे?
उसकी क्षमता हमारे पास पहले से ही है. हमारा जीएसएलवी मार्क 3 हेवी लिफ्ट लॉन्चर पृथ्वी की कक्षा में 10 टन भार उठाकर ले जाने में सक्षम है, जबकि हमारा स्पेस ऑर्बिटर महज तकरीबन सात टन वजन का होगा. नियमित सैटेलाइट लॉन्च करते हुए हमारा मुख्य मानदंड ज्यादा से ज्यादा पेलोड है. मगर इनसानी मिशन के लिए सबसे अहम बात है अधिकतम सुरक्षा. इसलिए प्रक्षेपण वाहन प्रणाली को इसका ह्यूमन-रेटेड वर्जन (इनसान को ले जाने के आकलन पर खरा) होना होगा और हमें पक्का करना होगा कि यह किसी भी हालत में नाकाम न हो और पूरी तरह सुरक्षित रहे.
लॉन्च के दौरान नाकामी की स्थिति में क्रू के लिए बचाव प्रणाली की भी जरूरत होगी?
क्रूएस्केप सिस्टम हमने बना लिया है और उसका परीक्षण भी कर लिया है. केवल लॉन्च के दौरान ही नहीं, अगर उड़ान के दौरान किसी भी वक्त एस्ट्रोनॉट के लिए कोई आफत या खतरा होता है, तो मॉड्यूल प्रक्षेपण वाहन से बाहर निकल आएगा और खतरे के दायरे से दूर हो जाएगा. इसमें तेजी से प्रतिक्रिया करने वाली सॉलिड मोटर और प्रक्षेपण वाहन को स्थिर करने वाली प्रणाली शामिल है. हमने समुद्र में स्प्लैशडाउन (छपाक से उतरने) के बाद फिर से दाखिल होने और बहाल करने के लिए भी मॉड्यूल का परीक्षण कर लिया है. इसमें वापसी पर वायुमंडल में दोबारा दाखिल होते वक्त इसे ऊंचे तापमान और दबावों से बचाना भी शामिल है.
क्या आप ऑर्बिटर का परीक्षण पहले मानवरहित मिशन के साथ करने की योजना बना रहे हैं?
ऑर्बिटर को एस्ट्रोनॉट के साथ लॉन्च करने से पहले हम शुरू से आखिर तक दो-एक परीक्षण करना चाहते हैं. हम वायुमंडल और लाइफ सपोर्ट सिस्टम के परीक्षण के लिए और साथ ही तापमान और दबाव में बहुत ज्यादा बदलावों से बचाव के लिए भी कुछ रिहर्सल उड़ानें छोड़ेंगे. इन उड़ानों से ऑर्बिटर पर असर डाल सकने वाली आकाशगंगा की कॉस्मिक किरणों और सूक्ष्म उल्कापिंडों से बचाव का परीक्षण भी होगा. हम ऑर्बिटर का स्प्लैशडाउन भी करेंगे. हमें पक्का करना होगा कि हर चीज मुकम्मल हो.
इस प्रोजेक्ट की कुल लागत कितनी है? क्या इस पर दूसरे देशों में किए गए खर्च के मुकाबले में कम लागत आएगी?
हम सोच रहे हैं कि यह 10,000 करोड़ रु. होगी. यह कोई बहुत ज्यादा नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सारी बेहद जरूरी और अहम टेक्नोलॉजी हमने ही विकसित की हैं. यह वाहन भी पहले से मौजूद है. हमारे लिए अकेला काम यह बचा है कि लॉन्च के लिए प्रशिक्षण सुविधा और बुनियादी ढांचे का निर्माण करे.