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चीन के साथ रहने में ही हमारी भलाई हैः दलाई लामा

दलाई लामा साक्षात्कार कम ही देते हैं. उनका ज्यादातर समय हिमाचल प्रदेश के मैकलियोडगंज में अपने आवास पर बीतता है जहां वे तिब्बत की निर्वासित सरकार को अनौपचारिक सलाह देते रहते हैं. सीनियर राइटर ज्योति मल्होत्रा से हुई उनकी खास बातचीत.

ज्योति मल्होत्रा
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  • 06 जुलाई 2015,
  • अपडेटेड 12:49 PM IST

दलाई लामा साक्षात्कार कम ही देते हैं. उनका ज्यादातर समय हिमाचल प्रदेश के मैकलियोडगंज में अपने आवास पर बीतता है जहां वे तिब्बत की निर्वासित सरकार को अनौपचारिक सलाह देते रहते हैं. इसके अलावा वे दुनिया भर में घूम-घूमकर व्याख्यान देते हैं और दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों के साथ अपने विचार साझा करते हैं, जिनमें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक शामिल हैं. अमेरिका में रहने वाला तिब्बती समुदाय उनके जन्म की 80वीं सालगिरह मना रहा है और उसके जश्न में जाते समय दलाई लामा ने सीनियर राइटर ज्योति मल्होत्रा से खास बातचीत की. इस बातचीत में उन्होंने दशकों से सतह के नीचे खदबदाते कुछ अहम मसलों के बारे में खुलकर अपने विचार रखे&जैसे चीन के साथ उनके संबंध, संभावित नए दलाई लामा और भारत में गुजरे उनके दिन. पेश हैं साक्षात्कार के कुछ खास अंशः 

परम पावन, आप ने अपने 80 वर्ष के जीवन के 56 वर्ष भारत में बिताए हैं. आपके लिए इसके क्या मायने हैं?
मेरी जिंदगी का एक पहलू यह है कि मैं एक शरणार्थी हूं जो अपनी मातृभूमि को खो चुका है. इस बारे में मुझे दुख होता है. हालांकि पिछले हजार से भी ज्यादा वर्षों से तिब्बत और भारत का आपसी रिश्ता बहुत करीबी और विशिष्ट रहा है. हमने भारत को हमेशा अपना गुरु माना है. मैं खुद को नालंदा परंपरा का शिष्य मानता हूं. इसीलिए भारत मेरा आध्यात्मिक निवास है. खासकर इसलिए भारत में जितनी आजादी प्राप्त है, उसकी वजह से मुझे कई आध्यात्मिक गुरुओं, विद्वानों और वैज्ञानिकों से भी मिलने का अवसर हासिल है. 

क्या आप अब भी खुद को भारत में शरणार्थी मानते हैं?
नहीं, मैं भारत सरकार का सबसे पुराना मेहमान हूं. 

क्या आप वापस अपने घर जाना चाहेंगे? तिब्बत लौटना चाहेंगे?
हां, क्योंकि एक तिब्बती होने के नाते वहां के 90 फीसदी से ज्यादा लोग मेरे ऊपर भरोसा करते हैं. वे मुझे देखने के लिए बेचैन हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि मैं तिब्बत में बौद्ध धर्म की सेवा कर पाऊंगा. 

क्या आप चीन की सरकार को इस बात के लिए आश्वस्त करना चाहेंगे कि तिब्बत उससे अलग नहीं होगा?
क्या मैं यह कह सकता हूं कि कई अफसर, खासकर कट्टरपंथी लोग वास्तविकता को नहीं देख पा रहे? जिंदगी भर वे लोग चीनी इतिहासकारों की उपलब्ध कराई एकतरफा सूचनाओं पर भरोसा करते रहे हैं. उन्होंने बताया है कि सातवीं-आठवीं सदी के दौरान तीन अलग साम्राज्य हुआ करते थे&तिब्बती, मंगोलियाई और चीनी. लेकिन यह अतीत की बात हो गई. मैंने हमेशा यूरोपीय संघ और भारत के पक्ष को सराहा है. भारत की आजादी से पहले कई छोटे-छोटे रजवाड़े और राजा थे, लेकिन अब समयबदल चुका है. अगर आज कोई राजा कहे कि मैं स्वतंत्र हूं और संप्रभु राज्य चाहता हूं, तो यह मूर्खता होगी. इसी तरह तिब्बत ऐतिहासिक रूप से स्वतंत्र राष्ट्र रहा है, लेकिन हम अब आगे देखना चाहते हैं. चीनी गणराज्य के अंतर्गत रहना ही हमारे हित में है. इसके साथ ही हमारे पास अपनी संस्कृति, हमारी संपन्न बौद्ध परंपरा और पर्यावरण का ख्याल रखने की पूरी छूट होनी चाहिए. यह हमारे परस्पर लाभ की बात है. चीन में बौद्ध धर्म बढ़ रहा है. आज वहां 40 करोड़ चीनी बौद्ध हैं. 

क्या आपकी इन चीनी बौद्धों में किसी से मुलाकात हुई है? 
हां, चीन से कई बौद्ध धर्मशाला आते हैं लेकिन इनमें से कई को यह डर रहता है कि जब उनकी मुलाकात तिब्बतियों से होगी तो इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. जब वे मेरी शिक्षाओं को सुन लेते हैं तो रोने तक लगते हैं. 

आपके मध्यस्थों ने चीन के साथ कई दौर की वार्ता की है. इसमें कामयाबी हासिल क्यों नहीं हुई?
चीन जानता है कि हम आजादी नहीं मांग रहे, न ही अलगाववाद हमारा उद्देश्य है लेकिन कई कट्टरपंथी नहीं चाहते कि मैं वापस आऊं. इसीलिए वे जान-बूझकर यह धारणा फैलाते हैं कि दलाई लामा अलगाववादी हैं. कुछ चीनी अफसर मुझे शैतान की तरह देखते हैं. मैं जब ऐसी बातें सुनता हूं तो कहता हूं, हां, मैं शैतान हूं जिसके सिर पर सींग भी है (हंसते हुए). कुल मिलाकर यह है कि वहां के कट्टरपंथी इस धारणा को पालते हैं कि दलाई लामा समस्या खड़ा करने वाला आदमी है इसलिए उसे दूर रखने का उन्हें पूरा अधिकार है. 

आप चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पिता से मिल चुके हैं. उनकी मां एक समर्पित बौद्ध हैं.
अकेले वे ही नहीं, बल्कि चीन के कई अफसर, जिनमें सेना के लोग और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी शामिल हैं और जो खुद को बाहर से नास्तिक दिखाते हैं, असलियत में बौद्ध धर्म में आस्था रखते हैं. पिछले साल शी जिनपिंग जब यूरोप और भारत के दौरे पर गए थे तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि बौद्ध धर्म चीनी संस्कृति का हिस्सा है. यह काफी चौंकाने वाली बात थी कि चीन का एक कम्युनिस्ट नेता, जिसकी पार्टी ने कभी घोषणा की थी कि हर तरह की आध्यात्मिकता, खासकर बौद्ध धर्म पिछड़ापन है, उसी पार्टी का मुखिया आज बौद्ध धर्म के बारे में सकारात्मक बातें कह रहा है. शी जिनपिंग आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक तकरीबन असंभव-सी जंग लड़ रहे हैं. इससे पहले के दो राष्ट्रपति हू जिंताओ और जियांग झेमिन भी भ्रष्टाचार की समस्या से वाकिफ थे लेकिन उससे निबटने में उन्हें डर लगता था. जिनपिंग इससे साहस के साथ लड़ रहे हैं और मैं इसकी सराहना करता हूं. 

मतलब कि चीन में हालात बदल रहे हैं?
हां...जिनपिंग अब भी काफी युवा हैं. मैं तो बूढ़ा हो चुका हूं, लेकिन मैं इतना कहना चाहूंगा कि उनका वजन कुछ ज्यादा बढ़ गया है. उन्हें वर्जिश कर के वजन कुछ कम करना चाहिए. मैं उनके साहस और उनके सोचने के तरीके की वास्तव में सराहना करता हूं. उनके फैसलों को देखकर लगता है कि वे काफी व्यावहारिक हैं. यह बात अलग है कि वहां का समूचा तंत्र ही ऐसा है कि बदलाव ला पाना मुश्किल काम है. 

जिनपिंग जब पिछले साल दिल्ली आए थे तो अटकलें लगाई जा रही थीं कि आप दोनों की मुलाकात हो सकती है.
मेरे कुछ दोस्तों की यह राय थी, उनमें एक चीनी बिजनेसमैन है. मैं भी चाहता था कि ऐसा हो, लेकिन यह आसान नहीं था. 

आप उनसे मिलना चाहते थे?
हां, मैं हमेशा चीन के नेताओं से मिलने का इच्छुक रहा हूं. एक बार मैं जब टेक्सास में था, तब हू जिंताओ वाशिंगटन आए थे. उस समय भी मैंने संदेश भिजवाया था कि अगर संभव हुआ तो मैं उनसे मिलना चाहूंगा. 

यानी आप और शी जिनपिंग के साथ मिलकर तिब्बत की समस्या को सुलझा सकते हैं?
पता नहीं. तिब्बत सीधे मेरी जिम्मेदारी नहीं है लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, सारी समस्याएं मिल-बैठकर बातचीत से हल की जा सकती हैं. दमन से नहीं. अब तो करीब साठ साल बीत गए जब मैंने यह बात कही थी कि चीन में बंदूक की पूजा होती है. चेयरमैन माओ ने खुद कहा है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. इस तरह की सोच सिर्फ जंग के दौरान मौजूं हो सकती है. मैं जब पहली बार माओ और अन्य अधिकारियों से पेकिंग में मिला था, तब मैं वाकई उनसे बहुत प्रभावित था और उनका प्रशंसक था. वे लोग सच्चे तौर पर समर्पित थे, जनता की सेवा करते थे, खासकर कामगार तबके की जो सबसे ज्यादा शोषित है. मैं इतना प्रभावित था कि मैंने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने की इच्छा जाहिर कर दी थी. जहां तक सामाजिक-आर्थिक नीति का सवाल है, मैं मार्क्सवादी हूं. यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. मैं लेनिनवाद के बिल्कुल खिलाफ  हूं जिसका मतलब है बहुत कठोर नियंत्रण. मुझे उम्मीद है कि चीन एक खुले दिमाग वाला कम्युनिस्ट देश बनेगा. यहां की आबादी एक अरब से ज्यादा है इसलिए चीन दुनिया के मामलों में अपना पर्याप्त योगदान दे सकता है. ऐसा करने के लिए बाकी दुनिया का भरोसा और सम्मान जीतना बहुत जरूरी है. एक ऐसा समाज जहां हर चीज राजकीय गोपनीयता के दायरे में आती हो&वह भरोसा कायम करने के मामले में बहुत नुक्सानदायक है. 

क्या आप चाहेंगे कि इतने बरसों से आपकी मेजबान रही भारत सरकार चीन से बातचीत में आपकी मदद करे?
मुझे लगता है कि न सिर्फ  भारत बल्कि समूचे स्वतंत्र विश्व की यह जिम्मेदारी है कि वह किसी भी समुदाय की समस्याओं और पीड़ा को हल करे. तिब्बत के साथ लगने वाली भारत की सीमा बहुत लंबी है, इसलिए तिब्बत का मसला भारत के लिए एक अहम चीज है. हमारा रिश्ता विशिष्ट है. कभी-कभार मैं मजाक में ही कहता हूं कि तिब्बत, भारत की पहली रक्षा पंक्ति है. यह तब तक ऐसे ही रहेगा जब तक कि तिब्बती संस्कृति और आध्यात्मिकता अपनी जगह कायम रहे. भारत हमारा गुरु है, तिब्बत चेला है. चेले को अगर कोई दिक्कत हो तो गुरु की जिम्मेदारी बनती है कि वह उसे हल करे. 

जवाहरलाल नेहरू के दौर से ही आपका भारत के सारे प्रधानमंत्रियों के साथ करीबी रिश्ता रहा है? नरेंद्र मोदी के साथ कैसा रिश्ता है? क्या उनसे आपकी मुलाकात हुई है?
हां, मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे उस समय राज्य में कुछ पुराने अवशेष मिले थे. वे नालंदा जैसे ढांचे थे जहां भिक्षु रहा करते थे. उसी समय मैं गुजरात गया था और उनसे मिला था. वे होटल में मेरे कमरे में भी आए थे. मैं काफी प्रभावित हुआ था. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे काफी सक्रिय हैं. 

उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी तो आप एक बार मिले थे?
हां, एक छोटी-सी मुलाकात. 

क्या वह वास्तव में एक छोटी-सी मुलाकात थी?
यह गोपनीय है, इसलिए बेहतर है आप उन्हीं से यह पूछिए (हंसते हुए). मैं नहीं जानता, मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता.

क्या आप मानते हैं कि भारत में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है?
मुझे नहीं लगता. दिल्ली में भी मुझसे ऐसा ही सवाल पूछा गया था कि क्या मुसलमान डरे हुए हैं? मैंने कहा था, नहीं. हो सकता है कि कुछ लोग खुराफात कर रहे हों, लेकिन मोटे तौर पर भारत में मजहबी सद्भाव अब भी कायम है. हमें लोगों को लगातार याद दिलाते रहना होगा कि यह कायम रहना चाहिए. 

पिछले साल विश्व हिंदू कांग्रेस में आरएसएस के नेता मोहन भागवत की मौजूदगी में आपने कहा था कि आरएसएस को मंदिर पर ध्यान देने की बजाए स्कूल बनाने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए.
यही बात मैं बौद्ध नेताओं से भी कहता हूं. एक बार उन्होंने मुझे बोलने के लिए बुलाया जब पद्मसंभव की प्रतिमा लगाई जा रही थी. मैंने कहा कि मैं पद्मसंभव का सम्मान करता हूं लेकिन अगले हजार साल तक प्रतिमा तो यहां खड़ी रहेगी लेकिन वे बोलेंगे नहीं. इसीलिए हमें किसी प्रतिमा की नहीं, सलाह की जरूरत है. प्रतिमा की पूजा करना पुरानी रीति है. चाहे वे चीनी हों, विएतनामी, बर्मी या श्रीलंका के बौद्ध, मैं हमेशा सभी से यही कहता हूं कि हमें 21वीं सदी का बौद्ध बनना होगा जो बौद्ध धर्म के बारे में ज्ञानवान हों.

हाल ही में हम आपके 80वें जन्मदिवस के समारोह को देखने के लिए धर्मशाला गए थे, तो हमने देखा कि भिक्षु आपकी लंबी उम्र की प्रार्थना कर रहे थे कि आप 113 साल जिंदा रहे. 113 ही क्यों? 
मैंने एक सपने में देखा था कि मैं 113 साल जिंदा रहूंगा लेकिन अब मुझे इस पर शक होता है. मुझे अब थकान महसूस होती है. धर्मशाला में भी मैंने कहा था कि मैं पहले 90 और फिर 100 साल का होने की कामना करता हूं लेकिन उसके बाद मुझे संदेह है. ताइवान और तिब्बत के जो चिकित्सक मेरी शारीरिक स्थिति का जायजा रखते हैं, उनके मुताबिक बहुत संभव है कि मैं 100 साल तक जिंदा रहूं. 

इसका मतलब कि आप यह तय करेंगे कि अगला दलाई लामा कौन होगा?
मैंने पहले भी इस बारे में कहा है कि दलाई लामा नाम की संस्था जारी रहेगी या नहीं, यह फैसला पूरी तरह तिब्बती जनता का होगा. 

आप इसे तय नहीं करेंगे?
मुझे 15वें दलाई लामा की बहुत चिंता नहीं है. बल्कि कभी-कभार तो लगता है कि 15वें दलाई लामा की जितनी चिंता मुझे है उससे कहीं ज्यादा चीन की सरकार को है. कभी-कभार मैं हास्य-विनोद में ही कह देता हूं कि छह सौ से चली आ रही इस परंपरा का अंत 14वें दलाई लामा के साथ ही हो जाना चाहिए, जो पर्याप्त लोकप्रिय है. अगर 15वां दलाई लामा कोई बनता है और वह इसके नाम को धूमिल करेगा, तो यह बहुत बुरा होगा (हंसते हुए). 

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