साउथ ब्लॉक में 27 मई को जब अरुण जेटली ने रक्षा मंत्री की कुर्सी संभाली, उससे चंद घंटे पहले ही इंडियन एयरफोर्स का लड़ाकू जेट विमान मिग-21 जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले के आसमान से गोता लगा गया और पैराशूट से उतर रहा नौजवान पायलट बिजली के हाइटेंशन तारों में उलझकर जान गंवा बैठा.
यह घटना वायु सेना की सबसे बड़ी विडंबना को जाहिर करती एक बार फिर खतरे की घंटी की तरह है. वायु सेना के पास 1950 के दशक में डिजाइन किए गए करीब 200 पुराने जेट विमानों को उड़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
पिछली यूपीए सरकार 126 राफेल विमान खरीदने के प्रस्ताव पर दो साल से कुंडली मारे बैठी रही. इस फ्रांसीसी लड़ाकू विमान ने 2011 में 42,000 करोड़ रुपए के दुनिया के सबसे बड़े रक्षा सौदे की होड़ में अमेरिका, रूस और स्वीडन को पीछे छोड़ दिया था.
लेकिन इसके बाद यूपीए सरकार चुनाव की तैयारी में जुट गई और 2,00,000 करोड़ रुपए से ज्यादा की सब्सिडी दी गई. तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने राफेल के विकल्प के रूप में तेजस हल्के लड़ाकू विमानों की ओर इशारा किया. हालांकि यह स्वदेश निर्मित विमान प्रोजेक्ट शुरू होने के तीन दशक बाद भी मैदान में नहीं आ सका है.
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज के रिटायर एयर मार्शल मनमोहन बहादुर कहते हैं, ''पहला हल्का लड़ाकू विमान एमके-आइ 2016-17 तक ही उडऩे के काबिल हो पाएगा और मार्क-2 तो अभी एचएएल (हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड) की टेबल पर कागजों से बाहर नहीं निकल पाया है, जो वायु सेना की जरूरत पूरी कर सकता है. इसलिए मिग-21 को पूरी तरह हटाने के लिए जरूरी तादाद में विमान करीब दशक भर बाद ही मिल पाएंगे. ''
आसान मगर महंगे विकल्प
अब यह सारा बोझ जेटली के कंधों पर आ गया है. वे ऐसे पहले वित्त मंत्री हैं जिनके पास रक्षा मंत्रालय का दायित्व भी है. इस तरह देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ बाहरी सुरक्षा का प्रभार भी उनके पास है. हालांकि मंत्रालय का कार्यभार संभालते हुए जेटली ने 'सिर्फ कुछ हफ्तों' के लिए ही इस जिम्मेदारी की बात कही थी, इसके बावजूद उन्हें रक्षा मंत्रालय को इस दुविधा से बाहर निकालना ही होगा.
एक हाथ से उन्हें वित्त मंत्रालय को प्रस्ताव भेजना है और दूसरे हाथ से केंद्रीय बजट में उसके लिए प्रावधान करना है, जो जुलाई के पहले हफ्ते में संसद में पेश किया जा सकता है. यह कोई मामूली जिम्मेदारी नहीं है. भारत की मौजूदा आर्थिक वृद्धि दर 4.7 प्रतिशत 25 साल में सबसे कम है, जबकि मुद्रास्फीति की दर 8.6 प्रतिशत और वित्तीय घाटा जीडीपी का करीब 4.5 प्रतिशत है. वित्तीय घाटा वह राशि होती है, जो सरकार अपने कामकाज के लिए उधार लेती है.
जेटली की मेज पर पड़ी लंबित फाइलें देश के पुराने पड़ चुके युद्धक साजो-सामान के बेहद अहम लेकिन महंगे विकल्प से संबंधित हैं. इनमें मिग-21 विमान भी हैं, जिन्हें बार-बार दुर्घटनाग्रस्त होने से 'उड़ता ताबूत' भी कहा जाने लगा है. पिछले पांच वर्षों में ही 12 विमान धराशायी हो चुके हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इनका विकल्प तलाशना बेहद जरूरी है क्योंकि यह देश की रक्षा तैयारी को दुरुस्त रखने के लिए बेहद जरूरी है.
मसलन थल सेना की उड्डयन कोर भी सियाचिन जैसी ऊंची चौकियों पर जरूरी सामान पहुंचाने के लिए आज भी हल्के समान ढोने वाले 120 चीता हेलिकॉप्टरों से ही काम चलाती है. मिग-21 की ही तरह चीता का भी डिजाइन 1950 के दशक का है. इनका विकल्प भी करीब एक दशक से तलाशा जा रहा है. सेना की तोपखाना इकाई के लिए एम 777 हॉवित्जर तोपों की दरकार है. तोपखाना इकाई को लगभग एक-चौथाई सदी पहले बोफोर्स विवाद के बाद एक भी तोप की आपूर्ति नहीं हुई है.
कम-से-कम 66,894 करोड़ रुपए के लंबित प्रस्ताव ऐसे हैं, जिन्हें मोदी सरकार 'आसान लक्ष्य' कहती है. इन मामलों में तकनीकी मूल्यांकन हो चुका है और अब बस सेना के अधिकारियों तथा अफसरशाही को विदेशी ठेकेदारों के साथ मोलभाव भर करना है. फ्रांसीसी जेट निर्माता कंपनी डसौल्ट की पिछले दो साल में एचएएल के साथ करीब 500 बैठकें हो चुकी हैं और उसे उम्मीद है कि इस वित्त वर्ष के खत्म होते-होते राफेल लड़ाकू विमानों के सौदे पर दस्तखत हो सकते हैं.
ऐसे कुछ प्रस्तावों पर मुहर लगाकर एनडीए सरकार अपने घोषणा-पत्र के दो वादों को पूरा कर सकती है. ये वादे हैं सेना का आधुनिकीकरण और रक्षा सौदे में तेजी लाना. यूपीए सरकार में 2010 में 12 ऑगस्टावेस्टलैंड वीवीआइपी हेलिकॉप्टरों की खरीद में कई प्रमुख अधिकारियों की संदिग्ध भूमिका उजागर होने के बाद रक्षा खरीद एकदम रुक गई. मोदी सरकार के अफसरशाही को अधिकारसंपन्न बनाने के निर्देश से खरीद का मामला आगे बढऩे की उम्मीद है. पूर्व रक्षा सचिव अजय विक्रम सिंह कहते हैं, ''अगर यह संदेश नीचे तक जाता है तो अफसरशाही फैसले लेने में तेजी दिखा सकती है. ''
जोड़-तोड़ की कम गुंजाइश
सुनने में भले बेहद आकर्षक लग रहा हो, लेकिन रक्षा सौदे भारी कीमत वसूलेंगे. इससे भारत सैन्य साजो-सामान का दुनिया में सबसे बड़ा खरीदार बन जाएगा, जो संदिग्ध तमगा उसे 2010 से ही हासिल हो चुका है. सैन्य साजो-सामान की खरीद के लिए 57,796 करोड़ रुपए में से करीब आधी रकम आयात पर खर्च होनी है. इसका आयात दुनिया के हथियार सौदों से 14 फीसदी अधिक और अपने करीबी प्रतिद्वंद्वियों पाकिस्तान और चीन से करीब तीन गुना ज्यादा है.
सभी 10 लंबित सौदों पर मुहर लगाने का मतलब है कि सरकार को विदेशी कंपनियों को कम-से-कम 15 फीसदी या 10,000 करोड़ रुपए ज्यादा देने होंगे. देरी की वजह से कीमतें भी बढ़ गई हैं. मसलन, रक्षा मंत्रालय ने 2005 में 126 लड़ाकू विमानों को खरीदने का जो मन बनाया था, उसकी कीमत 2007 में 42,000 करोड़ रुपए आंकी गई थी. लेकिन 2014 में यह कीमत बढ़कर 1,00,000 करोड़ रुपए तक जा सकती है. यानी हर राफेल विमान की कीमत 590 करोड़ रुपए तक बैठ सकती है.
इसका मतलब यह है कि सरकार को इन सौदों के लिए अतिरिक्त रकम की व्यवस्था करनी होगी क्योंकि रक्षा बजट में हर साल सिर्फ 5 फीसदी ही वृद्धि होती रही है. दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस के लक्ष्मण कुमार बेहरा कहते हैं, ''मुद्रास्फीति की दर 8 फीसदी है. इसका मतलब है कि वास्तव में रक्षा बजट घट गया है. ''
इसलिए जेटली की चुनौती 2,30,000 करोड़ रुपए के बजट में संतुलन बनाने की होगी क्योंकि परंपरागत रूप से पलड़ा नए साजोसामान की खरीद के बदले सैनिकों पर खर्च की ओर झुका रहता है. भारत अपने रक्षा बजट का 66 फीसदी वेतन वगैरह पर खर्च करता है, जबकि सिर्फ 33 फीसदी साजो-सामान की खरीद पर खर्च होता है. साजो-सामान की खरीद के बजट की भी करीब 90 फीसदी रकम पहले से हुए सौदों की सालाना किस्त चुकाने में खर्च हो जाता है.
इस तरह हथियारों या अन्य सामान की खरीद के लिए बहुत मामूली रकम ही बच पाती है. इसलिए जेटली को रक्षा बजट काफी बढ़ाना पड़ेगा. उन्हें इससे जुड़े एक और मुद्दे को भी सुलझना होगा. मसलन, रक्षा मंत्रालय लड़ाकू क्षमता बढ़ाने के लिए ढांचे के पुनर्संयोजन के प्रस्तावों को अनदेखा करता रहा है. सेना के तीनों अंग नए साजो-सामान की अपनी जरूरतों को अलग-अलग प्रोजेक्ट करते रहे हैं. इससे साजो-सामान की खरीद का मामला लंबित होता रहा है और मंत्रालय मंजूरी देने में सुस्ती दिखाता रहा है.
मंत्री को सेना के 90,000 सैनिकों के नए माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के लिए भी रकम का इंतजाम करना होगा. यह कोर करीब ब्रिटिश फौज के बराबर होगी और इस पर 64,000 करोड़ रुपए का खर्च आएगा.
स्वदेशी क्षमता का निर्माण
इस साल नौसेना समुद्र में बारूदी सुरंगों को पहचान कर उन्हें नष्ट करने की क्षमता वाले आठ अत्याधुनिक पोतों के लिए दक्षिण कोरिया के कांगनम शिपयार्ड से सौदे को अंतिम रूप दे सकती है. यह 8,800 करोड़ रुपए का सौदा किसी पूर्वी एशियाई देश से सबसे बड़ा सौदा होगा. दक्षिण कोरिया का उद्योग 1970 के दशक में भारत से पिछड़ा हुआ था, लेकिन निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की दूरदर्शी रक्षा नीति की बदौलत आज वह हथियारों का निर्यातक बन गया है और कांगनम सौदे के पहले भारत को जेट और हॉवित्जर भी बेचने को तत्पर रहा है. रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, ''भारत जिस देश से फौरन सीख सकता है, वह है दक्षिण कोरिया. ''
एनडीए ने स्वदेशी रक्षा उद्योग में निजी पूंजी को अनुमति देकर प्रोत्साहन देने और प्रत्यक्ष विदेश निवेश की सीमा 26 फीसदी से बढ़ाकर 100 फीसदी करने का वादा किया है. इसी वजह से इस बार के रक्षा बजट पर कॉर्पोरेट क्षेत्र की गहरी नजर है. श्री इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस के कॉर्पोरेट रणनीति के प्रेसिडेंट शैलेश पाठक कहते हैं, ''रक्षा क्षेत्र में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से रोजगार बढ़ेगा, आत्मनिर्भरता बढ़ेगी और अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण हो सकेगा. ''
हालांकि विदेशी खरीद से स्वदेशीकरण पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. ऐसे सौदों से नौसेना, थल सेना और वायु सेना की ओर से मांगें बढ़ जाएंगी. कुछ मांगें तो जायज भी हैं. जैसे नौसेना की 18 विविध भूमिका निभाने वाला हेलिकॉप्टर की खरीद का मामला. 20 साल से कोई हेलिकॉप्टर नहीं खरीदा गया है और नए युद्धपोत भी बिना रोटोक्रॉफ्ट के उतार दिए गए हैं. लेकिन प्रोजेक्ट 75 के तहत 36,000 करोड़ रु. में छह पारंपरिक पनडुब्बियां खरीदने का प्रस्ताव ऐसे दौर में अजीब लगता है, जब चीन की परमाणु पनडुब्बी हिंद महासागर में गश्त लगाने लगी है.
इसके अलावा सात नए दौर के पोत 48,000 करोड़ रुपए में खरीदने का अलग से प्रस्ताव है, जो स्वदेश क्षमता की वृद्धि पर आघात कर सकता है.
इसके अलावा कुछ घरेलू निर्मित अस्त्रों के सौदे भी हैं, जो आकर्षक तो लगते हैं लेकिन उनसे स्वदेशीकरण की क्षमता वृद्धि में ज्यादा मदद नहीं मिलती. रिटायर वाइस एडमिरल के.एन. सुशील कहते हैं, ''23,000 करोड़ रु. खर्च करने के बावजूद छह स्कॉर्पियन पनडुब्बी बनाना शर्मनाक है. हम आग बुझने के उपकरण तक के सभी कंपोनेंट खरीद रहे हैं. '' टाटा पावर एसईडी के सीईओ राहुल चौधरी चेताते हैं, ''अगर भारत रक्षा का सभी कुछ विदेश से खरीदना शुरू कर देता है तो स्वदेशीकरण दशकों पीछे चला जाएगा. ''
वे बताते हैं कि एक सस्ता विकल्प यह होगा कि सरकार टेक्नोलॉजी हासिल करने के लिए निजी क्षेत्र को विदेशी कंपनियां खरीदने को प्रोत्साहित करे. कम-से-कम दो भारतीय कंपनियों टाटा पावर और भारत फोर्ज ने विदेशी तोप कंपनियों को खरीदा और अब थल सेना को स्वदेशी तोप खरीदने की पेशकश कर रही हैं.
जाहिर है, ऐसे एकदम नए समाधान ही देश के वित्त मंत्री के पारंपरिक बजट भाषण का हिस्सा होना चाहिए: ''देश की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त जरूरतों को पूरा करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. ''