
जशोदाबेन मोदी के जो सवाल आरटीआई के बहाने सामने आए हैं, वह एक भारतीय महिला की दशकों की मौन साधना से उपजे से लगते हैं. वैसे तो उन्होंने पुलिस कप्तान से यही पूछा है कि प्रोटोकॉल का मतलब क्या होता है और पूरा प्रोटोकॉल मिले तो वह कितना बड़ा होगा. साथ ही यह अंदेशा भी जताया है कि उनके सुरक्षाकर्मी कहीं उनकी जान के दुश्मन तो नहीं बन जाएंगे. वह यह पूछने से भी नहीं रुकीं की प्रधानमंत्री की पत्नी के क्या अधिकार होते हैं? कोई और वक्त होता तो ये सवाल शायद बड़ी आसानी से आए-गए हो जाते, लेकिन इससे दो-चार दिन पहले ही तो श्रीमती मोदी ने कहा था कि अगर मोदीजी फोन लगाकर बुलाएंगे तो वह प्रधानमंत्री निवास में आने को तैयार हैं.
ऐसे में सवाल यह है कि जो मौन कोई चार दशक से चला आ रहा था, वह आज टूटने क्यों लगा? अगर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त होते तो शायद जसोदाबेन की पीड़ा को ज्यादा सटीक आवाज देते. क्योंकि हिंदी के आधुनिक साहित्य में वही ऐसे सर्जक हैं जिन्होंने उर्मिला और यशोधरा जैसी उन वंचित नायिकाओं को ऊंचा स्थान दिलाया, जिनके हिस्से में पति की तरक्की के लिए सिर्फ और सिर्फ त्याग करना बदा था. जशोदाबेन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. उनके बारे में उड़ती-उड़ती चर्चाएं तो तभी चलती थीं, जब मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, लेकिन उनके वजूद की पहली प्रामाणिक जानकारी इस लोकसभा चुनाव के ठीक पहले आई.
इंडियन एक्सप्रेस में छपे इस इंटरव्यू में जसोदा बेन ने कहा था कि उनकी देवी मां से यही फरियाद है कि मोदीजी प्रधानमंत्री बनें और तरक्की करें. (ध्यान रहे कि इस इंटरव्यू के लिए फोटो खिंचाने से श्रीमती मोदी ने मना कर दिया था.) इसके बाद खुद मोदीजी ने भी अपने चुनाव नामांकन का वह खाना भर दिया, जिसमें पत्नी का नाम लिखना होता है. इससे पहले विधानसभा चुनावों के दौरान वे इस खाने को खाली छोड़ते रहे थे. यह देश के भावी प्रधानमंत्री की तरफ से अपने शादीशुदा होने और अपनी धर्मपत्नी को संसार से आधिकारिक तौर पर मुखातिब कराने का पहला मौका था.
जरा सोचिए जब ये सारी चीजें दशकों बाद पहली बार सार्वजनिक हो रही होंगी तो श्रीमती मोदी को कैसा लग रहा होगा? इस दंपति ने वर्षों पहले मान लिया था कि पति देशसेवा के काम में जा रहा है और पत्नी भी इस बात पर रजामंद है. उन दोनों ने स्वेच्छा से एक दूसरे के लिए रास्ता दे दिया. लेकिन अब जब चार-पांच दशक बाद अरण्य कांड बीत रहा है, यानी संघर्ष के दिन बीत रहे हैं. त्याग का वृक्ष फल देने वाला है तो क्या उस फल को खाने की इच्छा दोनों की नहीं होनी चाहिए.
आखिर त्याग तो दोनों का था. क्यों नहीं किसी स्त्री के मन में यह ख्याल आए कि पति का मिशन पूरा हो गया है और अब रामचरितमानस के उत्तरकांड की तरह रामराज्य में राम और सीता सिंहासन पर साथ बिराजें. और जब इतनी लंबी खामोशी के बाद आधिकारिक रूप से पत्नी के वजूद को मान ही लिया गया हो तो पत्नी को उसका हक मिले. (इसीलिए अब वे कैमरे के सामने हैं और उनकी आरटीआई कहती है कि बस में धक्के खाएं और गार्ड कार में पीछे चलें यह अच्छा नहीं लगता.)
जसोदाबेन चुनाव के समय से ही अति विनम्र और भारतीय संस्कृति को शोभने वाली भाषा में इस बात के संकेत दे रही थीं, कि अब समय आ गया है जब उनके पति को उनकी सुध लेनी चाहिए. लेकिन सारे विश्व से संवाद करने में व्यस्त मोदीजी इस पुकार पर ध्यान नहीं दे पाए. वैसे इस तरह के मामलों में किसी का सलाह देने का हक नहीं बनता, लेकिन जब मामला व्यक्तिगत से सार्वजनिक हो गया हो तो बिना मांगी सलाहों से बचा नहीं जा सकता. ऐसे में बेहतर यही होगा कि धीरे-धीरे बढ़ती जा रही बात को सुखांत की ओर मोड़ दिया जाए, जिसे हमेशा ही भारतीय जनमानस पसंद करता है. वैसे भी जब पूरे एक दौर का मौन टूटता है तो उसकी रिसन इतनी जल्दी बंद नहीं होती.