
अगवा किए गए चार पुलिस कांस्टेबल 29 जून को जब पैदल चलकर झारखंड के खूंटी जिले के साइको थाना पहुंचे, तब पुलिस के बड़े अफसरों के पास इस बात की कोई सफाई नहीं थी कि पहले केवल तीन पुलिस वालों को आदिवासी भीड़ के हाथों बंधक बनाए जाने की बात क्यों बताई गई थी.
इन कांस्टेबलों को पत्थलगड़ी के हक में आंदोलन कर रहे 100 से ज्यादा लोगों की भीड़ ने भाजपा सांसद करिया मुंडा के घर से अगवा कर लिया था. यह कार्रवाई घाघरा गांव में हुई उन झड़पों के बाद की गई थी, जहां पुलिस ने 19 जून को पांच महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ सामूहिक बलात्कार के आरोपी चार आदिवासियों की तलाश में छापेमारी की थी. राज्य सरकार जिस रास्ते पत्थलगड़ी आंदोलन के निपट रही है, उसमें जाहिरा तौर पर सूचना की गंभीर कमी है.
प्राचीन पत्थलगड़ी पंरपरा के मुताबिक पुरखों की कब्रों पर पत्थर का खंभा लगाया जाता है. पर अगस्त 2017 से मुंडा इलाकों के 100 से ज्यादा गांवों के आदिवासी नेता गांव के मुहानों पर पत्थर के तक्चते लगा रहे हैं—जिन पर आदिवासियों के अधिकार लिखे होते हैं. ये उस सरहद का काम भी करते हैं जिसे लांघने की इजाजत पुलिस, प्रशासन के अफसरों और गैर-आदिवासियों को नहीं है.
पत्थलगड़ी आंदोलन के नेता जहां दावा करते हैं कि झारखंड का आदिवासी इलाका स्वतंत्र ‘दिशोम’ (राष्ट्र) है, वहीं रघुबर दास की सरकार उन्हें बातचीत में शामिल करने में नाकाम रही है. बढ़ते अविश्वास का एक वीभत्स नतीजा सामूहिक बलात्कार था.
पुलिस के मुताबिक, यह घटना आंदोलन के साथ माओवादियों के तार जुड़े होने की बात की पुष्टि करती है. एक पीडि़ता ने यौन हमले से पहले अपने फोन पर एक आदमी की तस्वीर क्लिक कर ली थी, जो माओवादियों से अलग हुए एक धड़े पीपल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया के एरिया कमांडर बाजी समद उर्फ टकला की थी.
भाजपा सूत्रों के मुताबिक, दास अपनी पार्टी के आदिवासी नेताओं को भी बातचीत में शामिल करने से कतरा रहे हैं. इसके पीछे उनकी ‘असुरक्षा’ की भावना है. भाजपा नेता अर्जुन मुंडा तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वेमुंडा समुदाय के कद्दावर नेता हैं.
अफसरों का मानना है कि अर्जुन मुंडा खूंटी के मसले को सुलझाने में सबसे बेहतर साबित हो सकते हैं. पर वे दास की संभावित चुनौती के तौर पर भी देखे जाते हैं, इसलिए राज्य सरकार उन्हें इस मसले में नहीं शामिल करना चाहती.
सिर्फ नागरिक प्रशासन और पुलिस के जरिए ही सरकार का आदिवासियों के साथ संपर्क है, जो कारगर साबित नहीं हो रहा. आदिवासी जन उत्थान अभियान सरीखी पहलों को भी कोई खास कामयाबी नहीं मिली है.
एक वरिष्ठ पुलिस अफसर कहते हैं, ‘‘सरकारी अफसर न तो स्थानीय जबान जानते हैं और न ही आदिवासियों से कोई जुड़ाव रखते हैं. ऐसे में यह उम्मीद करना कि वे इस मुद्दे को हल कर देंगे, कुछ ज्यादा ही आशावादी होना है.’’
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