
झारखंड विधानसभा में हुई नियुक्ति फर्जीवाड़े की जांच कर रही जस्टिस विक्रमादित्य आयोग के सामने घोटाले की पोल खुलनी शुरू हो चुकी है. दरअसल नियमों को दरकिनार कर बहाल किए गए 148 सहायकों पर आयोग ने शिकंजा कसना शुरू कर दिया है.
आपको बता दें कि देवघर विद्यापीठ नामक जिस संस्थान को राज्य सरकार ने फर्जी घोषित कर रखा है, उससे पासआउट व्यक्ति ने इनकी कॉपियां जांचीं हैं. जांच आयोग के समक्ष हुई पेशी में इस बात का खुलासा हुआ. यह बात परीक्षकों की शैक्षणिक योग्यता जांचने के दौरान सामने आई.
आयोग के प्रश्नों का कोई जबाब नहीं दे पाए परीक्षक
दरअसल जब आयोग ने इन परीक्षकों से पूछा कि उन्होंने कॉपियों को किस आधार पर जांचा, जबकि आपकी शैक्षणिक योग्यता इस स्तर की नहीं है. इस पर परीक्षक ने आयोग के समक्ष जबाव दिया कि उसे ऊपर से जैसा आदेश मिला उसी आधार पर कॉपी पर नंबर चढ़ा दिए.
गौरतलब है कि इसके बाद आयोग ने कुछ चयनित सहायकों से जब पूछताछ शुरू की तो उनकी घिग्घी बंध गई. एक अभ्यर्थी के समक्ष चार कॉपियां रखी गईं. उनसे कहा गया कि अपनी कॉपी की पहचान करिए. जस्टिस विक्रमदित्य तब हैरान रह गए जब सहायक अपनी कापी नहीं पहचान पाएं. जिसके बाद बदहवासी में उसने कहा कि कुछ याद नहीं आ रहा है, बाद में पूछे जाने पर वे बता सकते हैं.
आरंभिक जांच से पुष्टि हुई कि कापियां फर्जी तरीके से लिखवाई गईं
आरंभिक जांच से इसकी पुष्टि हुई है कि सहायक परीक्षा की कापियां फर्जी परीक्षार्थियों ने लिखी. इसका सबूत उत्तर पुस्तिका के अक्षर चयनित अभ्यर्थियों के अक्षर से मेल नहीं खाने से मिलता है. इस बात कि तस्दीक फोरेंसिक साइंस लेबोरेट्री भी कर चुका है.
क्या है मामला ?
दरअसल, साल 2007 में झारखंड विधानसभा में हुई नियुक्तियों में कई पदाधिकारियों के संबंधियों और पहुंच वाले नेताओं के संबंधियों की बहाली हुई थी. मामला संज्ञान में आने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज लोकनाथ प्रसाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था. उन्हें तीस बिंदुओं पर जांच कर तीन माह के अंदर कर राज्यपाल को रिपोर्ट देने का निर्देश दिया गया था आदेश के बाद आयोग ने काम शुरू किया, लेकिन विस सचिवालय ने जांच के लिए दस्तावेज देने में आनाकानी शुरू की. जब आयोग को दस्तावेज नहीं मिले तो इसे देखते हुए जस्टिस प्रसाद ने त्याग पत्र दे दिया.
गौरतलब है कि साल 2014-15 में बीजेपी के सत्ता में काबिज होने के बाद एक बार फिर से मामले की जांच शुरू की गई. इस बार जांच का काम झारखंड हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश विक्रमादित्य प्रसाद को दिया गया. जिन्हें एक साल के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी थी. हालांकि जस्टिस विक्रमादित्य प्रसाद को भी विधान सभा सचिवालय से असहयोग का सामना करना पड़ा. इस आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को सौप दी.
बंद लिफाफे में सौंपी गई इस रिपोर्ट में नियुक्ति-प्रोन्नति में हुई गड़बडिय़ों की जानकारी दी गई है. रिपोर्ट में अन्य कई तरह की गड़बडिय़ों का उल्लेख है लेकिन जांच पूरी नहीं हो पाने की वजह से अंतरिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका. वैसे राज्यपाल को अंतरिम रिपोर्ट मिलने के बाद जस्टिस विक्रमादित्य प्रसाद आयोग का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया गया है. दरअसल इस पूरे प्रकरण में कई विधानसभा अध्यक्षों की भूमिका संदेह के घेरे में हैं.