Advertisement

यहां पांच साल ससुराल में रहता है दूल्हा, शादी से पहले वर-वधू का ब्लड टेस्ट

संथाल और मुंडा समुदाय की शादी की रस्मों में वधू और वर की छोटी अंगुली से थोडा सा लहू निकाला जाता है. इस खून को मिलाकर एक दूसरे के माथे पर लगाया जाता है. लहू गहरे मेल और जीवन में साझेदारी का आधारभूत प्रतीक है.

जमशेदपुर में एक कार्यक्रम में पारंपरिक नृत्य करती आदिवासी युवतियां (फोटो-पीटीआई) जमशेदपुर में एक कार्यक्रम में पारंपरिक नृत्य करती आदिवासी युवतियां (फोटो-पीटीआई)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 30 नवंबर 2019,
  • अपडेटेड 4:48 PM IST

झारखंड की भूमि आदिवासी संस्कृति का पालना रही है. सदियों से मानव सभ्यता यहां फलती-फूलती रही है. इस क्षेत्र में रहने वाले लोग आदिवासी कहलाए. यानी कि ऐसे निवासी जो लगभग सभ्यता की शुरुआत से ही यहां रहते आए हैं. प्रकृति के साथ सैकड़ों साल तक सामंजस्य बिठाते हुए ये आदिवासी प्रकृति पुत्र बन गए. जंगल, नदियां पहाड़ और झरने इनकी जिंदगी में ऑक्सीजन की तरह शामिल हैं.

Advertisement

झारखंड में आदिवासियों की कई जातियां और उप जातियां रहती हैं. झारखंड सरकार के मुताबिक झारखंड में 32 आदिवासी समूह अथवा जनजातियां रहती हैं. इनमें प्रमुख समूह मुंडा, संताल, उरांव, खड़िया, गोंड, असुर, बैगा, बिरहोर, गोडाइत, पहाड़िया इत्यादि हैं. मुंडा, संताल जैसी जनजातियां राजनीतिक रूप से सजग हैं. झारखंड की राजनीति में इनका अच्छा खासा दखल है.  इनकी अनूठी परंपराएं और रीति रिवाज हैं. इन रिवाजों से आदिवासियों का प्रकृति प्रेम, इनकी सरलता और सहजता झलकती है.

झारखंड में अनुसूचित जनजातियों की कुल आबादी का आधा से अधिक हिस्सा लोहरदगा और पूर्वी सिंहभूम में  रहता है. आज (30 नवंबर) लोहरदगा की जनता अगले 5 साल के लिए अपना जनप्रतिनिधि चुन रही है. आज जब झारखंड में चुनावी शोर है, तो इसी बहाने क्यों न आदिवासियों की जिंदगी के उन पन्नों को पलटा जाए, जहां मौलिक और सरल जीवन प्रणाली है, जहां प्रकृति से जुड़ाव है, जहां महिला सशक्तिकरण की एक सहज प्रक्रिया है. झारखंड में आदिवासी समुदाय राजनीतिक रूप से किंगमेकर है. राज्य में इनकी आबादी लगभग 27 फीसदी है. इनके लिए सूबे की 81 में से 28 सीटें आरक्षित है.

Advertisement

विवाह आदिवासी समाज का अहम संस्कार है. इसके जरिये आदिवासी युवक-युवती परिवार नाम की संस्था की शुरुआत करते हैं. झारखंड समाज संस्कृति और विकास/जेवियर समाज सेवा संस्थान रांची की एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासियों में विवाह के अलग-अलग अनुष्ठान प्रचलित हैं.

अनूठी परंपराओं की रोचक कहानियां

कुडूख विवाह में, वधू के परिवार के आंगन में एक पारंपरिक जाता (चक्की) रखा जाता है. पत्थर पर पुआल के तीन या पांच गट्ठर रखे जाते हैं और उनके ऊपर हल जोतने के काम में लाया जाने वाला जुआ टिका दिया जाता है. जाता के पत्थर के ऊपर वधूको खड़ा कर दिया जाता है जबकि पीछे खड़ा वर उसकी एड़ी पर अपने पैरों के अंगूठे को टिकाता है. एक लम्बे कपड़े के जरिए दूल्हा-दुल्हन को आम जनता से पर्दा कर छुपाया जाता है. इस दौरान सिर्फ उनके सिर और पैर देखे जा सकते हैं. वर के सामने सिन्दूर से भरा एक पात्र रखा जाता है जिसमें वह अपनी अनामिका उंगुली डालकर वधू की मांग में तीन बार सिन्दूर लगाता है. इसी प्रकार वधू अपनी बारी में वर के माथे में सिन्दूर लगाती है.

झारखंड में पहले चरण का मतदान आज, यहां पढ़ें सभी अपडेट

घर के गोपनीय कमरे में शादी

कुडूख विवाह के बारे में बताते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर नितिशा खलखो कहती हैं कि इस समुदाय में सिंदूर का प्रयोग सिर्फ शादी के दौरान ही होता है. महिलाएं बाद में सिंदूर नहीं लगाती हैं. शादी की सारी रस्म महिलाएं करती हैं. इसमें पुरुषों का कोई रोल नहीं होता है. सिंदूर अदायगी की रस्म घर के सबसे खास कमरे में होती है. यानी कि घर का वो कमरा जो सबसे गोपनीय हो. यहां पर पुरुष के नाम पर सिर्फ दूल्हा होता है बाकी सभी महिलाएं होती हैं.

Advertisement

उरांव जनजाति में विवाह के प्रचलित तरीकों के बारे में बताते हुए प्रोफेसर खलखो कहती हैं कि इस समुदाय में आम चलन से विपरित लड़के घरवालों को लड़की के घर रिश्ता मांगने के लिए जाना पड़ता है. यहां लड़की का हाथ मांगने का तरीका भी सहजता और सम्मान से भरा हुआ है. अगर लड़के के परिवार वाले को अपने बेटे के लिए कन्या चाहिए तो वे सबसे पहले लड़की के घर जाएंगे फिर कहेंगे, "हम आस-पास से गुजर रहे थे, आपकी एक फसल पसंद आ गई, अथवा आपकी गाय अच्छी लगी''. यह विवाह का प्रस्ताव देने का एक प्रतीकात्मक स्वरुप है.

सवा रुपये का शगुन

इसके बाद वर पक्ष की ओर से एक रस्म निभाई जाती है. इसे 'डाली टका' कहते हैं. इसके तहत वर पक्ष सवा रुपये से साढ़े सात रुपये की राशि लड़की वालों को भेंट करता है. अगर लड़की वालों को ये रिश्ता स्वीकार है तो वे ये रकम स्वीकार कर लेते हैं.

प्रोफेसर खलखो के मुताबिक बात आगे बढ़ने पर शादी की तारीख तय होती है. इसे बड़ा मेहमानी कहा जाता है. इससे पहले छोटा मेहमानी की रस्म होती है. इस दिन लड़की के घरवाले लड़के के घर जाते हैं और उससे जुड़ी सारी चीजें जैसे कि रोजगार, जमीन, खेती, पेड़ पौधे इत्यादि के बारे में जानकारी हासिल करते हैं.

Advertisement

पढ़ें: पहले चरण की वोटिंग आज, जानें किसकी प्रतिष्ठा है दांव पर?

वर-वधू के लहू में छिपे प्रतीक

संथाल और मुंडा समुदाय की शादी की रस्मों में वधू और वर की छोटी (कानी) उंगुली से थोड़ा सा खून निकाला जाता है. इस खून को मिलाकर एक दूसरे के माथे पर लगाया जाता है. खून गहरे मेल और जीवन में साझेदारी का आधारभूत प्रतीक है.

पति के घर तीर लेकर आती है दुल्हन

तीर धनुष आदिवासी संस्कृति का अहम हथियार है. झारखंड की प्रमुख विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा का यह चुनाव चिन्ह भी है. तीर धनुष सदियों से आदिवासियों का हथियार और जीविकोपार्जन का जरिया रहा है.  कुछ जनजातियों में विवाह के बाद वर के घर में प्रत्येक वधू अपने साथ एक तीर लाती है. वधू चाहती है की उसका पति इस अस्त्र के द्वारा सभी शत्रुओं से उसकी रक्षा करे. माना जाता है कि तीर पुरुष को दुष्ट शक्तियों के अनिष्ट प्रभाव से भी बचाता है.

दुल्हन के घर को संभालता है दूल्हा

आदिवासी समुदाय में एक विवाह ऐसा होता है, जहां लड़के को दुल्हन के घर में सालों रहना पड़ता है और उसके घर की गृहस्थी संभालनी पड़ती है. ऐसी स्थिति तब होती है जब लड़की का भाई नाबालिग होता है. ऐसी स्थिति में लड़के को पांच साल या उससे अधिक समय तक दुल्हन के घर रहना होता है और उसके यहां की गृहस्थी संभालनी होती है. दुल्हन का भाई जब बालिग होता है तो लड़के की जिम्मेदारी होती है कि वो उसे भाई का विवाह कराए, इसके बाद ही वह अपनी पत्नी को लेकर वापस अपने घर आता है.

Advertisement

विवाह में कलश का महत्व

आदिवासी समाज के विवाह में कलश का बहुत महत्व है. इसे कंड़सा भंडा कहा जाता है. ये विवाह कलश वधू और वर दोनों कूलों के पूर्वजों का प्रतीक है. इस प्रतीक के द्वारा पुरखों को विवाह में भाग लेने के लिए न्यौता दिया जाता है. कलश के ऊपरी सिरे पर इसके गले के आसपास धान की बालियों से बना  आक मुकूट होता है. घड़े में अरवा चावल, हल्दी, दूब घास और सरसों के बीज होते हैं. घड़े के मुख पर दो बत्तियों वाला एक छोटा मिट्टी का दिया जलाकर रखा जाता है.

कंड़सा भंडा में वह सबकुछ समाहित है जो जीवन और दम्पति को खुशहाल बनाने के लिए जरूरी है. महिलाएं इसे अपने सिर पर रखकर नाचती हैं. ये समृद्धि, खुशहाली एवं मिलन, सामाजिक एकता और आदिवासी- भाईचारे का प्रतीक है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement