
2008 में क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म 'दि डार्क नाइट' के साथ ही जोकर का किरदार अमर हो गया था. इस फिल्म में हीथ लेजर ने जोकर की भूमिका निभाई थी और यह किरदार इतना डार्क था कि फिल्म रिलीज़ होने के समय तक हीथ ने अपने कमरे में आत्महत्या कर ली थी. अपनी मौत के बाद हीथ को अपने बेहतरीन अभिनय के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला था. प्रशंसकों को लगता रहा कि हीथ लेजर से बेहतर जोकर का किरदार निभाना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा. 2014 में आई फिल्म 'डेडपूल' में जेरेड लेटो ने दर्शकों को जोकर के एक नए कलेवर से रू-ब-रू कराया, लेकिन दर्शकों की अपेक्षाओं पर वे खरे नहीं उतरे. हालांकि 'डार्क नाइट' की रिलीज के 11 साल बाद वाकीन फिनिक्स ने अपनी हैरतअंगेज परफॉर्मेंस से हीथ लेजर के किरदार को आखिरकार चुनौती दे डाली है और हीथ की तरह ही फीनिक्स भी ऑस्कर के मजबूत दावेदार के तौर पर उभरे हैं.
कुछ फ़िल्में आपको इंसानी तौर पर ख़ाली कर जाती है. आप में कुछ किरदार इस क़दर उतरते हैं कि आप एक ट्रांस में चले जाते हैं. फ़िल्म ख़त्म होने के बाद सिनेमाघर से निकल कर वह किरदार आपके साथ आपके स्पेस में चले आते हैं. आर्थर फ़्लेक भी कुछ-कुछ ऐसा ही है!
मैं यह नहीं कह सकती कि आर्थर से मुझे मुहब्बत है या नफ़रत. बस कुछ ऐसा है उसका किरदार कि ज़ेहन में ठहर-सा गया है.
फ़िल्म शुरू होती है एक डार्क और ग्लूमी जगह से. जिसका नाम गॉथम सिटी है. शहर एक तरह के हड़ताल से गुज़र रहा जिसके तहत शहर में फैले गन्दगी की सफ़ाई नहीं हो पा रही. मोटे-मोटे चूहे अपने बिलों से निकलकर कचरे की ढेर की तरफ भाग रहे हैं. ये चूहे शहर के सबसे ग़रीब तबके को सिग्निफ़ाई करते हैं. पूरा शहर पीली रोशनी में नहा रहा है, मगर इस पीली रोशनी में खुशियां नहीं, अवसाद घुलता दिख रहा है. लोग बेमक़सद यहां से वहां आते-जाते दिख रहे होते हैं.
ऐसे में हमारे हीरो आर्थर, जो किसी के लिए विलेन भी हो सकता है, की एंट्री होती है.
आर्थर ने अपनी आधी ज़िंदगी मुफ़लिसी और अपनी बीमार मां की देख-रेख करते हुए गुज़ार दी है. मगर उसने अपने सपने नहीं छोड़े हैं. उसे यक़ीन है कि एक दिन वो स्टैंड-अप कामेडियन ज़रूर बनेगा. फ़िलहाल घर चलाने के लिए वो जोकर बनकर कभी बीमार बच्चों के हॉस्पिटल जाता है तो कभी सड़कों पर फ़्लायर पकड़कर खड़ा रहता है. लेकिन उसका होना किसी के लिए मायने नहीं रखता. उसकी ख़ुशियों या ग़म से किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता. भीड़ में होता है मगर किसी को भी वह नहीं दिखता.
पर कुछ देर बाद हमें पता चलता है कि आर्थर मानसिक रूप से थोड़ा बीमार है. बचपन में उसे मॉलेस्ट किया गया, साथ ही साथ उसके सिर पर किसी चीज़ से मारा गया, और इसी वजह से न चाहते हुए भी वह ‘हिस्टीरियाई हंसी’ हंसने लगता है. यह हंसी ऐसी है कि आसपास के लोग असहज होने लग जाते हैं.
सिर्फ़ इतना ही नहीं, ज़िंदगी भर वो इस क़दर अकेला रहा है कि अब उसने जागती आंखों से सपने बुनने शुरू कर दिए हैं. अपने सपनों की दुनिया में वो किसी के साथ डेट पर जा रहा. जब वो अपनी बीमार मां के पास अकेला बैठा है तो उसकी प्रेयसी उसका माथा चूम ले रही है.
लेकिन फिर ये तो आर्थर के सपने हैं न. हक़ीक़त से बिलकुल अलहदा. ज़िंदगी के इम्तिहान बाक़ी हैं उसके लिए. लोग जिन्हें अपने अलावा किसी की भी नहीं पड़ी, जो व्हाइट कॉलर जॉब में हैं. जिन्हें यह लगता है कि दुनिया उनकी जूते की नोंक पर है. ऐसे लोगों से आर्थर का सामना होना बाक़ी है. आर्थर को ये भी पता नहीं कि शहर का सबसे रईस शख़्स ही उसका पिता है.
आर्थर जैसे-जैसे दुनिया के क़रीब जाता है उसे इस दुनिया का कुरूप चेहरा नज़र आने लगता है. ये दुनिया ऐसी है जहां ताकतवर और अधिक ताकतवर हुए जा रहे हैं और ग़रीब-बेसहारा दबाए-कुचले जा रहे हैं. ये मजबूर लोग सिर्फ़ चुनाव के वक़्त नेताओं को याद आते हैं बाक़ी उसके बाद वो ज़िंदा हैं या मर गये किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता.
लेकिन कब तक कोई अपने साथ हो रहे नाइंसाफ़ी को झेलेगा. अर्थर को भी एक दिन लगता है कि अब बहुत हो गया. अपने लिए स्टैंड लेना ही पड़ेगा. अपने हक़ के लिए लड़ना ही पड़ेगा. फिर आर्थर फ़्लेक, आर्थर से जोकर बनता है. जोकर, जो सिर्फ़ अब बच्चों को हंसाने का काम नहीं करता, बल्कि ऑन द स्पॉट फ़ैसला करता है किए जा रहे गुनाह का.
फ़िल्म को लेकर कॉंट्रडिक्शन यहाँ से शुरू होती है. कुछ लोगों को लग रहा है कि मेंटल इलनेस की आड़ ले कर टॉड-फ़िल्प (फिल्म के निर्देशक) सीरियल-किलिंग को ग्लोरिफ़ाई कर रहें. आर्थर यानी जोकर को हक़ नहीं है किसी की जान लेने का. मगर आर्थर अब उन सभी दबे-कुचले लोगों के लिए हीरो बन चुका है जिनके लिए कोई स्टैंड नहीं लेता.
इस लिहाज से देखें तो जोकर आपके लिए हीरो ही है. बाकी फिल्म उसे विलेन की तरह दिखा रही है यह बात और है.
(अनु रॉय मुंबई में रहती हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं. उनसे इंडिया टुडे की सहमति आवश्यक नहीं है)
***