तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता को अगर 15 माह पहले ही सजा हो जाती तो आगे का रास्ता बड़ा आसान था. इसके बाद हाइकोर्ट में अपील होती. जयललिता को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) का लाभ मिलता. इसके तहत हाइकोर्ट उनकी सजा पर रोक लगाता और मुकदमे के दौरान वे विधायक के पद पर औैर प्रकारांतर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी बनी रहतीं. लेकिन 10 जुलाई, 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सारा टाट ही पलट दिया.
उसके बाद तो लालू प्रसाद यादव और जयललिता जैसे ताकतवर नेताओं को भी निचली अदालत से सजा होते ही जेल का मुंह देखना पड़ा. छह साल तक चुनाव लडऩे पर पाबंदी लगी सो अलग. वैसे नेताओं को कभी लगता ही नहीं था कि इस तरह के आपराधिक मामले भी उनकी चिंता का विषय होने चाहिए. साम-दाम-दंड-भेद किसी भी रास्ते से अपने पक्ष में फैसले करवाना उनके लिए बड़ी बात नहीं थी. लेकिन पिछले तीन साल में तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों—हरियाणा के ओमप्रकाश चौटाला, बिहार के लालू प्रसाद यादव और तमिलनाडु की जयललिता को जेल हो चुकी है. न्यायाधीशों को ही तीनों मामलों को तेजी से निबटाने का श्रेय को जाता है.
मोहलत ही नहीं दी
जॉन माइकल डी 'कुन्हाजयललिता पर आय से अधिक संपत्ति का मामला
कहते हैं कि 26 सितंबर को जब जयललिता बंगलुरू में पाराप्पना अग्रहारा की विशेष अदालत में पहुंचीं तो पार्टी के लोगों से कहा कि वे कुछ घंटे में लौट आएंगी. 18 साल तक मुकदमे के दौरान उनकी टीम उन्हें लगातार यह आश्वासन देती रही कि कानूनी कार्रवाई को और लंबे समय तक टाला जा सकता है. लेकिन एक घंटे बाद ही वे पहली ऐसी मुख्यमंत्री बन चुकी थीं, जिन्हें पद पर बने रहते हुए जेल की सजा हुई थी.
जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला सन् 2003 में कर्नाटक स्थानांतरित हुआ था. कर्नाटक में इस मामले की सुनवाई करने वाले डी 'कुन्हा तीसरे जज थे. हालांकि अभियुक्त और गवाहों के बयान आदि रिकॉर्ड करने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया अब तक पूरी हो चुकी थी, फिर भी इस मुकदमे को करीब से देख रहे वकीलों का मानना है कि नवंबर, 2013 में डी 'कुन्हा का जुडऩा इस मुकदमे में आया सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था.
एक वकील कहते हैं, ''जब कोई मुकदमा 18 साल से खिंच रहा हो और कई बार स्थगनादेश जारी हो चुके हों तो काबिल-से-काबिल न्यायाधीश के लिए भी तारतम्य बिठाए रखना मुश्किल होता है. लेकिन फिर भी डी'कुन्हा ने काफी सख्ती से काम लिया. उन्होंने एक साल के भीतर बचाव पक्ष के सभी गवाहों के बयान लिए और उन्हें मुकदमे को लंबा खींचने और तथ्यों को छिपाने के लिए फटकार भी लगाई.
दो घटनाएं इस बात की गवाह हैं. जब नए सरकारी वकील जी. भवानी दो मौकों पर कोर्ट में उपस्थित नहीं हुए तो डी'कुन्हा ने उन पर 60,000 रु. का जुर्माना लगा दिया. भवानी को हर सुनवाई की एवज में सरकार से इतनी ही रकम मिलती थी. कहने की जरूरत नहीं कि उसके बाद से हर सुनवाई पर भवानी कोर्ट में मौजूद थे.
1996 में एक छापे के बाद जयललिता के घर से बरामद कीमती चीजों का निरीक्षण करने डी 'कुन्हा चेन्नै गए. 800 किलो चांदी, 28 किलो सोना, 750 जोड़ी जूते, 10,500 साडिय़ां और 91 घडिय़ां चेन्नै में आरबीआइ के कमरे में रखी थीं. निरीक्षण के बाद डी 'कुन्हा ने उन्हें बंगलुरू स्थानांतरित करने का आदेश दे दिया.
नेताओं के साथ सख्ती बरतने का डी'कुन्हा का पुराना रिकॉर्ड है.1994 में प्रतिबंध के बावजूद उमा भारती ने स्वतंत्रता दिवस पर ईदगाह मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की कोशिश की थी, जिसके बाद हुई पुलिस फायरिंग में छह लोग मारे गए थे. हुबली की एक मजिस्ट्रेट अदालत ने 2002 से 2004 के बीच मध्य प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती के खिलाफ 18 गैर-जमानती अरेस्ट वॉरंट जारी किए. उन्होंने सबकी अनदेखी कर दी.
कोर्ट ने आखिरी वॉरंट 3 अगस्त, 2004 को जारी किया था. इसके बाद उमा भारती डी 'कुन्हा की अदालत में पेश हुईं, जो उस समय हुबली के डिस्ट्रिक्ट जज थे. डी 'कुन्हा ने उमा भारती की याचिका खारिज कर दी और उनकी राजनीति की दिशा ही बदल गई.
2002 में बतौर जिला जज डी 'कुन्हा न्यायपालिका में शामिल हुए और फिर बेल्लारी, धारवाड़ और बंगलुरू ग्रामीण की अदालतों में अपनी सेवाएं दीं. जयललिता के मुकदमे में नियुक्ति से पहले वे कनार्टक हाइकोर्ट में बतौर रजिस्ट्रार (विजिलेंस) काम कर रहे थे. इस मामले से जुड़े हुए एक वकील कहते हैं ''डी 'कुन्हा की नियुक्ति कर्नाटक हाइकोर्ट का महत्वपूर्ण कदम था. यह शुरू से ही स्पष्ट था कि उन्हें किसी तरह प्रभावित नहीं किया जा सकता. ''
दबावों के बावजूद
विनोद कुमार
ओमप्रकाश चौटाला की नेतागीरी खत्म करने वाला शिक्षक घोटालाउत्तर-पश्चिम दिल्ली की रोहिणी अदालत का अहाता पिछले साल 22 जनवरी को युद्ध के मैदान जैसा दिख रहा था. इंडियन नेशनल लोकदल (आइएनएलडी) के 4,000 समर्थक परिसर के बाहर इकट्ठा थे. उन्होंने पथराव किया, पेट्रोल बम फेंके और परिसर में हंगामा करने की कोशिश की. आखिरकार पुलिस को आंसूगैस का इस्तेमाल करना पड़ा. उनका निशाना दरअसल परिसर की चौथी मंजिल पर मौजूद कोर्टरूम था.
वहां विशेष सीबीआइ अदालत के जज विनोद कुमार ने पांच बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रह चुके ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को भ्रष्टाचार के आरोप में दस साल जेल की सजा सुनाई थी. वर्ष 2000 में गैर-कानूनी तरीके से 3,206 शिक्षकों की भर्ती करने के मामले में पुलिस ने एक हफ्ते पहले ही चौटाला पिता-पुत्र समेत 53 अन्य दोषियों को गिरफ्तार किया था. इस फैसले से चौटाला 16 साल के लिए राजनीति के चुनावी खेल से बाहर हो गए और हरियाणा का राजनैतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल गया.
वकील बताते हैं कि यह मामला एक बड़े सियासी शख्स से जुड़ा हुआ था और इसमें काफी राजनैतिक दबाव भी काम कर रहा था. इसके बावजूद विनोद कुमार पिछले दो साल से बेखौफ होकर इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे. उन्होंने चौटाला की इस याचिका को गैर-जरूरी बताते हुए खारिज कर दिया कि मामले से जुड़ी मूल एफआइआर में उनका नाम नहीं है. इतना ही नहीं, सजा सुनाते हुए स्वास्थ्यगत कारणों से उनके साथ नरमी बरतने से भी इनकार कर दिया.
विनोद कुमार के लिए कठिन और विवादास्पद मुकदमे कोई नई बात नहीं हैं. 2008 में नई दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में बतौर अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश उन्होंने पूर्व नौसेना प्रमुख एस.एम. नंदा के पोते संजीव नंदा को पांच साल कैद की सजा सुनाई थी. नंदा पर एक हिट ऐंड रन मामले में तीन पुलिसकर्मियों समेत छह लोगों को मारने का आरोप था. विनोद कुमार की अदालत में मामला आने से पहले मुकदमा नौ साल तक खिंचता रहा.
2007 में विनोद कुमार ने कनॉट प्लेस शूटिंग मामले में भी फैसला सुनाया, जिसमें उन्होंने पूर्व असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर एस.एस. राठी समेत दिल्ली के नौ पुलिसवालों को दोषी करार दिया. उन पर एक व्यवसायियों को जान से मारने और दूसरे को घायल करने का आरोप था. यह घटना मार्च, 1997 की है, जब एसीपी राठी के नेतृत्व में दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच की अंतरराज्यीय शाखा एक कार का पीछा कर रही थी.
उस कार में गैंगस्टर यासीन के होने का शक था. पुलिस की टीम ने कनॉट प्लेस में स्टेट्समैन हाउस के पास कार को किनारे लगवाया और फायरिंग की. इस दौरान कार में सवार दो लोग मारे गए. यह एहसास होने के बाद कि उन्होंने दो निर्दोष व्यवसायियों को मारा है, उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि शुरुआती फायरिंग कार से हुई थी. उन्होंने कार में झूठे सबूत पैदा करने की भी कोशिश की. विनोद कुमार ने सभी दोषी पुलिस अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई.
चतुराई से फैसलाप्रवास कुमार सिंह
बिहार चारा घोटाला, जिसमें लालू प्रसाद यादव का नाम हैफरवरी, 2012 को लालू प्रसाद यादव विशेष सीबीआइ जज प्रवास कुमार सिंह की अदालत में पेश हुए. यादव चारा घोटाले में उन पर लगे आरोपों का जवाब देने आए थे. सवाल-जवाब का सिलसिला दो घंटे तक चलता रहा. लालू खुद को बेगुनाह साबित करने की कोशिश करते रहे.
एक समय तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि न्यायाधीश को उलटे सीबीआइ को ही दंडित करना चाहिए. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ने न्यायाधीश को याद दिलाया कि कभी वे पटना लॉ कॉलेज में उनके जूनियर हुआ करते थे. एक चतुर वक्तव्य था, जिसे न्यायाधीश प्रवास ने हंसी में उड़ा दिया.
चारा घोटाले में जालसाजी और फर्जी लेन-देन की लंबी फेहरिस्त है, जो कुल मिलाकर 950 करोड़ रु. के आसपास है. प्रवास जिस मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे, वह चाईबासा जिला कोषागार से झूठे तरीके से पैसे निकालने का मामला था. वर्ष 2000 में बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बनने के बाद 61 में से कम-से-कम 54 मुकदमे झारखंड स्थानांतरित हो गए. उनमें से पांच मामलों में लालू प्रसाद यादव पर आरोप थे.
प्रवास सिंह ने 2011 में इस मुकदमे की सुनवाई का काम संभाला और उसके बाद लगभग दो साल तक आरोपी के बयान लिए और बचाव पक्ष के गवाहों का परीक्षण किया. अगस्त, 2013 तक इस मुकदमे को निबटाने की उनकी गति देखकर लालू और उनके बचाव पक्ष को पसीने आ गए थे. आखिरी दलीलों के दौरान न्यायाधीश ने एक नया और असाधारण कदम उठाया.
उन्होंने बचाव पक्ष को एक जुलाई तक सभी दलीलें लिखित में जमा करने का आदेश दिया और यह घोषणा की कि वे 15 जुलाई को इस मुकदमे का फैसला सुनाएंगे.
लालू ने एक आखिरी दांव आजमाया. उन्होंने यह आरोप लगाते हुए कोर्ट में याचिका दायर की कि न्यायाधीश प्रवास सिंह की बहन की शादी पी.के. साहनी के चचेरे भाई के साथ हुई है. साहनी लालू प्रसाद के राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री हैं. इसलिए प्रवास इस मामले में निष्पक्ष फैसला नहीं सुना सकते. हालांकि झारखंड हाइकोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया. शुरू-शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने अदालती कार्रवाई पर रोक लगा दी, लेकिन फिर अगस्त, 2013 में इसे भी खारिज कर दिया गया.
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, ''नवंबर, 2011 से वही न्यायाधीश आपराधिक कार्रवाई की सुनवाई कर रहे थे... फिर अपीलकर्ता को पहले यह अंदेशा क्यों नहीं हुआ. '' सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गवाहों के परीक्षण की प्रक्रिया 13 साल खिंच चुकी थी. इसलिए प्रवास सिंह को लगा कि जल्द इस मुकदमे का फैसला होना चाहिए. 3 अक्तूबर, 2013 को उन्होंने लालू प्रसाद को पांच वर्ष और एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को चार वर्ष कारावास की सजा सुनाई.
1986 में न्यायपालिका में शामिल हुए प्रवास सिंह 2011 में जिला न्यायाधीश बने. वे बिहार सरकार के कानून विभाग में अंडर सेक्रेटरी रह चुके हैं. इस समय वे धनबाद के फैमिली कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश हैं.