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कारगिल युद्ध: परदे के पीछे का नायक

करगिल युद्ध के दौरान सेना के एक अधिकारी ने पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों को लेकर खासी जानकारी जुटाई थी. अपने ऑपरेशन डायल हार्ड में यथोचित श्रेय न मिलने से खफा वे अकेले लड़ रहे हैं अपनी लड़ाई.

संदीप उन्नीथन
  • नई दिल्‍ली,
  • 13 अगस्त 2011,
  • अपडेटेड 4:38 PM IST

''खुद को पाकिस्तानी की तरह बोलता पाकर मैं खुद हैरान था. पाकिस्तानियों को जरा-भी अंदेशा नहीं हुआ कि वे किसी भारतीय से बात कर रहे हैं.'' पंकज कंवर, कानपुर में तैनात कर्नल

सन्‌ 1999 में करगिल युद्ध शुरू होने से पहले तक भारत की खुफिया एजेंसियां पाकिस्तानी सैन्य गुटों के ठिकानों और उनकी गतिविधियों से पूरी तरह अनजान थीं.

भारतीय सेना ने जब युद्ध शुरू किया था तो उसके पास था महज पुराना पड़ चुका ऑर्डर ऑफ बैटल या ऑरबेट (सैन्य रचना और सैनिकों के ठिकाने), जो उसे रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रॉ) और मिलिट्री इंटेलिजेंस (एमआइ) ने मुहैया करवाया था. खुफिया जानकारी तब जाकर थोड़ी-थोड़ी इकट्ठी होने लगी जब एक भारतीय सैन्य अधिकारी ने पाकिस्तानी अधिकारी का भेष धरकर सीधे पाकिस्तानी ठिकानों पर फोन घुमाया और उनकी गतिविधियों की खुफिया जानकारी हासिल की.

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कर्नल पंकज कंवर बताते हैं कि मई से जुलाई 1999 के बीच उन्होंने पाकिस्तानी पैदल सेना और बख्तरबंद इकाइयों में लगभग 6,000 फोन कॉल किए थे. संक्षिप्त बातचीत के जरिए उन्होंने पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों, तैनातियों, हताहतों और उसके मनोबल के बारे में पता लगाया था.

इसी से भारतीय सेना को अपने परमाणु शक्तिसंपन्न दुश्मन की सैन्य गतिविधियों के बारे में पता चल सका था. इसी तरह की कुछ खुफिया जानकारी के आधार पर भारतीय सेना का आकलन था कि पाकिस्तान विवाद को करगिल से आगे बढ़ाने का इच्छुक नहीं है.

अभी कानपुर में तैनात कंवर नाराज हैं कि ऑपरेशन डायल हार्ड में उन्हें कोई यथोचित श्रेय नहीं मिला है. उन्होंने इसी साल 12 जून को सैन्य प्रमुख जनरल वी.के. सिंह को इस बाबत एक विस्तृत शिकायती पत्र भेजा है, जो पिछले एक दशक में भेजे गए कई पत्रों की श्रृंखला का ताजातरीन पत्र है.

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इस पत्र में कंवर ने शिकायत की है कि वरिष्ठ अधिकारियों ने उनके योगदान को नजरअंदाज कर सारा श्रेय खुद ले लिया.

मई, 1999 में मिलिट्री इंटेलिजेंस (पाकिस्तान डेस्क) में एमआइ25 के प्रमुख ब्रिगेडियर राकेश गोयल ने कंवर से, जो उस वक्त मेजर पद पर थे, पाकिस्तानी यूनिटों में फोन कर जानकारी निकालने के लिए कहा था. करगिल की बर्फ से लदी ऊंची चोटियों को पाकिस्तानी हमलावरों के कब्जे से मुक्त करवाने और उसे फिर से अपने अधिकार में लेने के लिए भारतीय सेना ऑपरेशन विजय पहले ही शुरू कर चुकी थी.

एमआइ के एजेंट भारी-भरकम तैनाती के कारण सीमा पार नहीं कर पा रहे थे. भारतीय सेना यह जानना चाहती थी कि भारतीय हमले के जवाब में पाकिस्तान के ऑरबेट में क्या बदलाव किए गए हैं.

कंवर ने पाकिस्तानी सेना के टेलीफोन केंद्रों में दिल्ली छावनी के भीतर स्थित एक एसटीडी बूथ से फोन लगाए थे. पहली कामयाबी मिली 4 जून, 1999 को पेशावर स्थित सैन्य यूनिट को लगाए गए कॉल में. कंवर लिखते हैं,  ''इसके बाद मैंने कभी पलटकर नहीं देखा.'' कभी  'मेजर इकबाल' बनकर तो कभी  'मेजर हसन' बनकर शुद्ध पंजाबी बोलते हुए वे किसी विशेष सैन्य ठिकाने में फोन लगाने के लिए कहते.

एक बार ऑपरव्टर उस यूनिट में फोन मिलाकर देता तो फिर वे किसी काल्पनिक सैन्य अधिकारी का नाम लेकर उससे बात करवाने के लिए कहते. वे फोन के दूसरी ओर बैठे व्यक्ति की ओर से दी जा रही हरेक छोटी-बड़ी जानकारी को बहुत ध्यान से सुनते और यह पता लगा लेते कि वह कौन-सी यूनिट है, उसका ठिकाना कहां है और क्या वह अपने ठिकाने से हटी है या नहीं.

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कंवर ने पाकिस्तानी सेना के लगभग सभी ठिकानों और यूनिटों में, यहां तक कि बन्नू और कोहाट जैसे दूरदराज के सैन्य ठिकानों पर भी, बात करने के लिए सैन्य प्रतिष्ठानों में 'खास' नागरिकों के बात करने के लिए दिए गए कोड का इस्तेमाल किया. कंवर या तो दफ्तर खुलने से पहले अलस्सुबह फोन करते या फिर दोपहर बाद उस वक्त फोन करते जब दफ्तर में अधिकारी नहीं होते.

छोटी-बड़ी हरेक जानकारी निकलवाने के लिए वे खुद को अलग-अलग रैंक का बताते जैसे गैर-कमीशन अधिकारी, ड्यूटी बाबू और कनिष्ठ अधिकारी. उन्हें मिली सफलताओं में से एक वह जानकारी थी जिससे पता चला कि पेशावर स्थित 11वीं पलटन और क्वेटा स्थित 12वीं पलटन  को भारत के साथ लगी सीमा पर तैनात किया गया है. उन्होंने यह पता भी लगाया कि ''पाकिस्तानी ठिकानों से संबंधित हमारे पास मौजूद लगभग 50 फीसदी ऑरबेट गलत था.''

कंवर ने नॉर्दन लाइट इन्फेंट्री अधिकारी कैप्टन मजरुल्लाह खान के लाहौर स्थित घर में भी फोन लगाया. उसका फोन नंबर भारतीय सैनिकों को करगिल की पहाड़ियों पर स्थित एक बंकर से मिला था. करगिल से बचाए गए एक घायल युवा अधिकारी से बात करने पर कंवर इस नतीजे पर पहुंचे कि करगिल की चोटी पर कब्जा जमाने वाला कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तानी सेना ही है.

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कंवर ने अपनी कोई भी बातचीत रिकॉर्ड तो नहीं की, लेकिन हर बातचीत का पूरा ब्यौरा उनकी एक फाइल में जरूर दर्ज था.

युद्ध के बाद कंवर को बताया गया कि उनके इस काम का उल्लेख नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे एमआइ25 और युद्ध क्षेत्र के इर्द-गिर्द तैनात खुफिया यूनिटों की तैयारियों पर गलत प्रभाव पड़ेगा. कंवर के वरिष्ठ अधिकारियों ने एमआइ के महानिदेशक या सैन्य प्रमुख को उनके योगदान के बारे में नहीं बताया.

कंवर कटुता से इसलिए भरे हैं क्योंकि उनके सेवा रिकॉर्ड में करगिल युद्ध में उनके योगदान का जिक्र तक नहीं है. सेना प्रमुख को लिखे अपने पत्र में कंवर ने लिखा है, ''इसे ब्रिगेडियर गोयल की योजना बताया गया और यही नहीं बल्कि यह भी कहा गया कि युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना से संपर्क साधने वाले अधिकारी कोई और ही थे, मेरे योगदान को दबाया गया और इसका महत्व कम किया गया.''

तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक कहते हैं, ''इस मामले के बारे में मैंने पहले कभी नहीं सुना. किसी अधिकारी को दी गई जिम्मेदारी पूरी करने के लिए पुरस्कृत क्यों किया जाए? पुरस्कार तो जिम्मेदारी से इतर किए गए कामों के लिए ही दिए जाते हैं.''

कंवर के वकील टी.के. जोसफ कहते हैं, ''युद्ध के बीच में कंवर ने जो कुछ किया वह असाधारण काम था. सैनिकों की त्वरित और वास्तविक गतिविधियों की जानकारी पता लगाने के लिए कंवर ने अपने बुद्धिकौशल का इस्तेमाल किया.'' पिछले साल आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने कंवर का मामला देखने से इस आधार पर इनकार कर दिया था कि उसके पास ''मामले के गुण-दोष का मूल्यांकन करने के लिए विशेषज्ञों की कमी है.'' इस फैसले ने फोन से महत्वपूर्ण जानकारियां निकालने वाले कंवर को पत्र लिखने वाला ऐसा याचिकाकर्ता बना दिया जो न्याय पाने का दृढ़ संकल्प है.

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