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कर्नाटक में जेडीएस-बसपा का साथ न लेना कांग्रेस को महंगा पड़ा

कर्नाटक में कांग्रेस अपने दम पर चुनावी मैदान में उतरी थी. राज्य की सभी विधानसभा सीटों पर पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. जबकि जेडीएस और बसपा ने गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरे. वहीं बीजेपी अपने पुराने नेताओं को साथ लाकर चुनाव लड़ रही थी.

एचडी देवगौड़ा, मायावती, कुमारस्वामी एचडी देवगौड़ा, मायावती, कुमारस्वामी
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 15 मई 2018,
  • अपडेटेड 11:48 AM IST

कर्नाटक विधानसभा चुनाव की लड़ाई में कांग्रेस का आतिआत्मविश्वास उसे ले डूबा. कर्नाटक में कांग्रेस के सीएम पद के उम्मीदवार सिद्धारमैया पर हद से ज्यादा भरोसा करना नुकसानदायक साबित हुआ. सिद्धारमैया के चलते ही राज्य में जेडीएस और बसपा के साथ गठबंधन करके चुनावी मैदान में नहीं उतरी. जबकि कई विपक्षी दल के नेता कांग्रेस को जेडीएस के साथ गठबंधन करने की सलाह देते रहे, लेकिन पार्टी आलाकमान ने सिर्फ सिद्धारैमया की सुनी. इसी का नतीजा है कि कर्नाटक में अकले चलना कांग्रेस को महंगा पड़ा.

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कर्नाटक में कांग्रेस अपने दम पर चुनावी मैदान में उतरी थी. राज्य की सभी विधानसभा सीटों पर पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. जबकि जेडीएस और बसपा ने गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरे. वहीं बीजेपी अपने पुराने नेताओं को साथ लाकर चुनाव लड़ रही थी. बीएस येदियुरप्पा और श्रीरामुलू से लेकर रेड्डी बंधु तक बीजेपी खेमे में साथ खड़े थे. इसी का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि कांग्रेस अगर जेडीएस के साथ गठबंधन करती तो चुनावी नतीजे दूसरे होते. बता दें कि विधानसभा चुनाव से पहले भी ममता बनर्जी ने दोनों को गठबंधन करने की सलाह दी थी. लेकिन इस बार कांग्रेस राजी नहीं हुई.

कर्नाटक में कांग्रेस को जेडीएस और बसपा के साथ गठबंधन न करना मंहगा पड़ा है. कर्नाटक में 19 फीसदी दलित मतदाता हैं. जबकि जेडीएस का मूल वोटबैंक वोक्कालिगा समुदाय कुल मतदाताओं का करीब 13 फीसदी है. जेडीएस नेता देवगौड़ा इसी समुदाय से आते हैं. कांग्रेस का जेडीएस के साथ गठबंधन न करने के चलते इन दोनों वोटबैंकों में बिखराव हुआ, जबकि वहीं बीजेपी का मूल वोटबैंक एकमुश्त रहा, जिसमें किसी तरह की कोई सेंधमारी नहीं हो सकी.  

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कांग्रेस, जेडीएस और बसपा मिलकर एक साथ कर्नाटक में चुनावी रण में उतरते तो नतीजे कुछ और होते. इस बात को इस उदाहारण से समझ सकते हैं कि बसपा से गठबंधन का फायदा कुमारस्वामी की पार्टी जेडीएस को मिला. जेडीएस को उम्मीदों से ज्यादा सीटों की बढ़त इस बात का संकेत हैं कि दलित वोट कांग्रेस को नहीं मिले हैं. जेडीएस के साथ गया है. इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस ने गठबंधन न करके बड़ी भूल कर दी है. कर्नाटक में कांग्रेस उम्मीदवार कई सीटों पर बहुत कम वोटों से पीछे रहे.

कर्नाटक में भले ही कांग्रेस सिद्धारमैया की जिद के आगे जेडीएस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ी हो. जबकि बाकी राज्यों में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के फैसले रहे होंगे. कांग्रेस की हार के लिए कहीं न कहीं चुनावी प्रबंधन और समीकरण को सेट न करने की भूल लगातार पार्टी को झेलनी पड़ रहा है. कांग्रेस ने जेडीएस पर आरोप लगाया कि वह बीजेपी की बी टीम के तौर पर चुनावी मैदान में है. इसकी वजह यह है कि कई सीटों पर दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे के प्रत्याशियों के खिलाफ हल्के उम्मीदवार उतारे. कांग्रेस इस तरह के चुनावी समीकरण सेट नहीं कर सकी.

कांग्रेस ने ऐसी ही गलती त्रिपुरा में दोहराई थी. वहां लेफ्ट के साथ गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतर सकती थी. लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी. ऐसा ही फैसला यूपी के उपचुनाव में भी पार्टी ने किया और इसका हश्र क्या हुआ है, वह सबके सामने है.

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कांग्रेस एकला चलो की राह पर चलती रही तो फिर ऐसे ही एक के बाद एक राज्य उसके हाथों से निकलते जाएंगे. कांग्रेस को इसी एकला चलो की नीति के चलते पहले त्रिपुरा में हार झेलनी पड़ी और अब कर्नाटक में.

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