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जानें अब पुलिस-सेना किस तरह करेंगी बेकाबू भीड़ पर नियंत्रण

केंद्र ने कम घातक विकल्पों के इस्तेमाल को दी हरी झंडी, पर पूरी तरह बंद नहीं होगी छर्रा बंदूक.

श्रीनगर में पेलेट गन की शिकार हुई इंशा लोन का एक्सरे श्रीनगर में पेलेट गन की शिकार हुई इंशा लोन का एक्सरे
संदीप उन्नीथन
  • नई दिल्ली,
  • 14 सितंबर 2016,
  • अपडेटेड 6:05 PM IST

आठ जुलाई को सुरक्षा बलों के हाथों हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के विरोध में कुछ युवक दक्षिण कश्मीर में प्रदर्शन कर रहे थे, अपने घर के बाहर शोरगुल का कारण समझने के लिए तमन्ना आशिक खिड़की से बाहर झांक रही थीं कि तभी सुरक्षा बलों के 12 गेज पंप शॉटगन से दागे गए छर्रे (पेलेट) उसे लग गए. श्रीनगर के काकसराय में श्री महाराजा हरि सिंह हॉस्पिटल (एसएमएचएस) में एक सर्जन ने इंडिया टुडे को बताया, ''इसकी आंखों की रोशनी सामान्य होने की संभावना बहुत कम है. छर्रे लगने से उसका दायां रेटिना बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है.''

वानी की मौत के विरोध में घाटी में हिंसा भड़कने के तीन दिन बाद एसएमएचएस का मुख्य द्वार बंद कर दिया गया था. ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि छर्रों से बड़ी संख्या में घायल पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के आने से काम का बोझ बढ़ गया और अस्पताल प्रशासन को मेडिकल इमरजेंसी घोषित करनी पड़ी. छर्रों से घायलों का तांता लग जाने से नियमित बाह्य रोगियों के क्लिनिकों को बंद कर देना पड़ा.

एसएमएचएस के ट्रॉमा सेंटर में मुश्किल सांस ले पा रही एक स्कूली लड़की का इलाज कर रहे सर्जन कहते हैं, ''यह मौत से भी बदतर हालत है. कलाश्निकोव की गोली खोपड़ी से आर-पार हो जाने से भी ज्यादा बदतर.'' उस लड़की के चेहरे को श्रीनगर के अखबारों और बाद में राष्ट्रीय चैनलों पर व्यापक रूप से दिखाया गया, जो कश्मीर घाटी में इस ताजा निर्ममता की कहानी बयान कर रहा था. उसके चेहरे पर छर्रों के लाल निशान थे और आंखें इतनी सूज गई थीं कि दोनों पलकें एक दूसरे से जुड़ गई थीं. 18 जुलाई को उस लड़की का इलाज कर रहे डॉक्टर ने अपना नाम न छापने का अनुरोध करते हुए इंडिया टुडे को बताया, ''उसका चेहरा किसी ऐसी छन्नी की तरह था जिसका इस्तेमाल खून को छानने के लिए किया गया हो.''

आठ साल की यह स्कूली लड़की 14 वर्षीया इंशा मुश्ताक लोन की अपेक्षा कुछ किस्मत वाली ही कही जाएगी. इंशा की कहानी भी इस लड़की से मिलती-जुलती है. वह भी शोपियां में अपने गांव सीडो में पिता के घर की दूसरी मंजिल की खिड़की से विरोध प्रदर्शन करने वाले लड़कों और सुरक्षा बलों के बीच चल रही झड़प का नजारा देख रही थी कि तभी छर्रा बंदूक का निशाना बन गई.

तमन्ना के विपरीत इंशा की आंखों की रोशनी वापस आने की कोई संभावना नहीं है, जबकि उसे देश में उपलब्ध सबसे अच्छा इलाज मुहैया कराया जा रहा है. एसएमएचएस में उसकी हालत संभलने के बाद उसे नई दिल्ली के ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट (एम्स) में इलाज के लिए भेज दिया गया, फिर भी उसकी आंखों की रोशनी वापस नहीं आ पाएगी. इंशा जिंदा रहेगी, लेकिन अपनी आंखों से कभी भी कश्मीर को दोबारा नहीं देख पाएगी.

यह एक अंतहीन कहानी है. कश्मीर में जारी प्रदर्शनों के दौरान अब तक करीब 600 प्रदर्शनकारियों, जिनमें महिलाएं और तमाशबीन बच्चे भी शामिल हैं, की आंखें छर्रे लगने से घायल हो चुकी हैं. हालांकि इनमें से ज्यादातर की आंखें पूरी तरह ठीक हो जाएंगी, लेकिन इंशा की तरह ही पांच लोग ऐसे हैं जो हमेशा के लिए अपनी आंखों की रोशनी खो बैठेंगे. इसके अलावा करीब 20 लोग अपनी एक आंख की रोशनी गंवा चुके हैं.

छर्रों से आंखों की रोशनी खोने वाला 12 वर्षीय उमर नजीर भी है. स्कूल में पढ़ाई कर रहे उमर के पिता नजीर अहमद पुलवामा में दिहाड़ी मजदूर हैं. इसी तरह 27 वर्षीय फिरदौस अहमद डार है, जो बारामूला में ऑटोरिक्शा चलाता है. एम्स में इलाज के बावजूद उसकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए जा चुकी है.

पावा का विकल्प
वर्ष 2010 में भड़की हिंसा में 110 प्रदर्शनकारी सुरक्षा बलों की कलाश्निकोव की गोलियों से मारे गए थे उसके बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ऑर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड-निर्मित 12-गेज पंप ऐक्शन शॉटगनों को घाटी में भेज दिया ताकि भीड़ को नियंत्रित करने के लिए इस नए हथियार का इस्तेमाल किया जा सके. ये शॉटगन सामान्य तौर पर नंबर 9 छर्रे दागती थीं या प्रतियोगी स्कीट (मनोरंजन) शूटिंग के लिए इस्तेमाल की जाती थीं. बिना जान लिए ये छर्रे मानव कोशिकाओं में घुस जाते हैं, और इस तरह जान लेने वाली राइफलों की अपेक्षा इसे कहीं बेहतर विकल्प माना गया.

उसके बाद से ही जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा पुलिस बल (सीआरपीएफ) इन शॉटगन का इस्तेमाल करते आ रहे हैं. लेकिन हिंसा के इस नए चरण में ये विवाद का मुद्दा बन गई हैं और इन्हें 'पेलेट गन' (छर्रा बंदूक) के नाम से जाना जाने लगा और इन्हें नुक्सान नहीं पहुंचाने वाली गन के तौर पर देखा गया. लेकिन इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि सीआरपीएफ या पुलिसकर्मी, खासकर घाटी के बाहर से भेजे गए हजारों सुरक्षा कर्मियों को इन शॉटगनों को चलाने की ट्रेनिंग दी गई थी या नहीं.

देश में अंग्रेजी शासन के समय से भीड़ को नियंत्रित करने का अभ्यास बदला नहीं गया है. न ही हथियार और न ही ट्रेनिंग. भीड़ को नियंत्रित करने की तकनीक के मामले में पुलिसकर्मियों की ट्रेनिंग बहुत निम्न स्तर की है और उन्हें जो हथियार या उपकरण दिए जाते हैं वे भी बाबा आदम के जमाने के हैं.

पूर्व पुलिस अधिकारी सुरक्षा बलों में अनुशासन और ट्रेनिंग की कमी की शिकायत करते हैं, जिससे कभी-कभी भारी गड़बड़ी हो जाती है. बीएसएफ के पूर्व डीजी ई.एन. राममोहन कहते हैं, ''यह कुछ-कुछ ऐसा हो जाता है जैसे एक भीड़ दूसरी भीड़ पर हमला कर रही हो.''
संयुक्त सचिव टी.वी.एस.एन. प्रसाद के नेतृत्व में गृह मंत्रालय की एक सात सदस्यीय समिति ने 29 अगस्त को गृह सचिव राजीव महर्षि के सामने छर्रा बंदूकों के विकल्प के तौर पर कम घातक विकल्पों की सूची पेश की. इस समिति का गठन 26 जुलाई को किया गया था और उसे  दो महीने के भीतर कम घातक विकल्पों का पता लगाने के लिए कहा गया था. इसमें सीआरपीएफ, जम्मू-कश्मीर पुलिस, बीएसएफ और ऑर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड के सदस्य शामिल थे. लेकिन समिति के दो महीने के कार्यकाल को घटाकर कम कर दिया गया. इसके बाद एक महीने के भीतर और गृह मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के कश्मीर दौरे से हफ्ता भर पहले रिपोर्ट सौंप दी गई. यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र शांति सेना को जारी किए गए दिशानिर्देशों पर आधारित है. इस रिपोर्ट को अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन इसमें सुरक्षा बलों (देखें ग्राफिक्स) के लिए विकल्पों को सुझाया गया है, खासकर भीड़ को तितर-बितर करने की क्षमता रखने वाली सिंथेटिक मिर्च का अर्क, जिसे पावा (पीएवीए) या पेलारगोनिक एसिड वैनीलिलेमाइड कहा जाता है. यह सीएएस या आंसू गैस के मुकाबले ज्यादा असरदार माना जा रहा है, जो आंखों को अस्थायी तौर पर प्रभावित करता है लेकिन इससे आंखों में बहुत तेज दर्द होता है. समिति की रिपोर्ट का मानना है कि पावा छर्रा बंदूकों का बहुत अच्छा विकल्प होगा और मध्य प्रदेश के टेकनपुर में बीएसएफ की आंसू गैस की फैक्टरी में बड़े स्तर पर इसका उत्पादन किया जा सकता है. एक अन्य विकल्प कैपसाइसिन ग्रेनेड का भी सुझाया जा रहा है. इसे भी आंसू गैस के मुकाबले ज्यादा असरदार माना जा रहा है.

गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने सुझाव दिया, ''शॉटगनों का इस्तेमाल सिर्फ 'अत्यंत विकट' हालात में ही किया जाएगा.'' लेकिन इस तरह की आशावादिता गलत भी साबित हो सकती है.

जम्मू-कश्मीर के सुरक्षा प्रतिष्ठान के सर्वोच्च स्तर के अधिकारियों का कहना है कि दुनिया भर में नंबर 9 साइज की लीड की गोलियों का उपयोग करने वाले पंप ऐक्शन शॉटगनों का इस्तेमाल किया जाता है और वैसी स्थितियों में यह 'सबसे कम घातक' साधन है, जहां भीड़ को नियंत्रित करने के लिए आंसू गैस और पानी की बौछार असफल हो जाती हैं या उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. उनका कहना है कि यह सही एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) पर आधारित है. राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ''समस्या यह है कि शॉटगन (पेलेट गन) का इस्तेमाल आखिरी उपाय के तौर पर किया जाता है और तब तक भीड़ 50 मीटर की निर्धारित न्यूनतम दूरी के अंदर काफी नजदीक आ चुकी होती है.'' वे कहते हैं, ''इतनी नजदीक, जो कभी-कभी कुछ ही मीटर की दूरी पर होती है, से नंबर 9 छर्रे भी गंभीर चोट पहुंचा सकते हैं या जानलेवा भी साबित हो सकते हैं, जैसा हम देख ही चुके हैं.''

छर्रा बंदूकों के इस्तेमाल से होने वाले गंभीर नतीजों को लेकर नाराजगी के बाद जम्मू-कश्मीर पुलिस को भी विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा. नकली निशानों पर कई तरह के प्रयोगों को आजमाने के बाद राज्य पुलिस प्रमुख के. राजेंद्र के कार्यालय ने कई नए निर्देश जारी किए, जिनमें एक है, छर्रा बंदूकों का इस्तेमाल आखिरी उपाय के तौर पर करने की जगह आंसू गैस के गोलों के साथ ही किया जाए ताकि विरोध प्रदर्शन करने वाली भीड़ को ज्यादा करीब आने से रोका जा सके, और दूसरा, यह सुनिश्चित किया जाए कि पेलेट गनों का इस्तेमाल 70 मीटर की कम दूरी से न किया जाए.

लेकिन घाटी में भीड़ को नियंत्रित करने में लगे सुरक्षाकर्मी बताते हैं कि कश्मीर में आपका सामना हमेशा ऐसी आदर्श स्थिति से नहीं होता. सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ''आंसू गैस भीड़ को रोकने का एक असरदार उपाय है, लेकिन हवा का रुख अगर बदल जाए तो यह कोशिश पूरी तरह बेअसर हो जाती है.'' उनका कहना है कि कश्मीर के उत्तेजित युवाओं को रोकने के लिए कोई भी विकल्प—आंसू गैस, मिर्ची बम या पानी की बौछार—काम नहीं करता है. इस बार जिस तरह से युवा पत्थरबाजी कर रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया है. कुछ सौ लोगों की भीड़ सुरक्षा बलों पर पत्थरों की बारिश कर चुकी है.

जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारी भी बताते हैं कि नंबर 9 छर्रे का उपयोग करने वाले पंप ऐक्शन शॉटगनों को भीड़ नियंत्रित करने के मामले में 'सबसे कम घातक' माना जाता है और संयुक्त राष्ट्र शांति सेना समेत दुनिया भर की पुलिस भीड़ को रोकने में इसका इस्तेमाल करती है. अमेरिका में नागरिक अशांति के समय भी हथियार और गोला-बारूद को शामिल किया जाता है. हैदराबाद स्थित शफात अली खान जैसे विशेषज्ञ शूटर इस विचार को चुनौती देते हैं. उनका कहना है कि पैलेट प्रति सेकंड 1,400 फुट के वेग से भागती हैं और जब वे इनसानी शरीर के किसी नाजुक हिस्से पर लगती हैं तो काफी घातक हो सकती हैं. वे कहते हैं, ''एक कारतूस में 400 छर्रे होते हैं और बंदूक की नली से निकलने पर उनका फैलाव चार फुट का होता है. 40-45 मीटर की दूरी से भी दागे जाने पर वे काफी नुक्सान पहुंचा सकते हैं.''
सीआरपीएफ के महानिदेशक के. दुर्गा प्रसाद कहते हैं कि उनके आदमी ''इसे किसी को नुक्सान पहुंचाने के इरादे से नहीं दागते हैं.'' वे कहते हैं कि सुरक्षा बल, खासकर सीआरपीएफ भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कई तरह के साधनों का इस्तेमाल करती रही है, जैसे गैस के हथगोले और शेल, ओलेओरेसिन ग्रेनेड, प्लास्टिक पेलेट और यहां तक कि (आवाज के लिए) कारतूस के खाली खोखे.

प्रसाद कहते हैं, ''हमें उस समय मौके पर उपलब्ध संसाधनों के इस्तेमाल से स्थिति को काबू में करना पड़ता है.'' वे इस बात से इनकार करते हैं कि सीआरपीएफ के जवानों ने पेलेट गनों के लिए निर्धारित एसओपी का पालन न करते हुए जरूरत से ज्यादा ताकत का इस्तेमाल किया है, जिनमें कमर से नीचे के हिस्सों को निशाना बनाया गया है. उनका कहना है कि एसओपी का पालन अगर न किया गया होता तो घायलों की संख्या कहीं ज्यादा होती.

हालांकि आंखों में चोट लगने की घटनाएं अलग हैं, लेकिन पंप ऐक्शन शॉटगन और छर्रे बहुत घातक साबित हो रहे हैं. एसएचएमएस अस्पताल के डॉक्टर शफिया जान के बारे में बताते हैं. शफिया युवा हैं और मां भी हैं, उन्हें श्रीनगर के दक्षिण में 50 किमी दूर अरवानी गांव में पेट में गोली लगी थी.

डॉक्टर कहते हैं, ''छर्रे लगने के बाद उनकी आंतें बिखर गई थीं और सीजेरियन सेक्शन के टांके फिर से खुल गए थे.'' बहुत से ऐसे युवक हैं जिनके शरीर के नाजुक अंगों या रीढ़ की हड्डी के पास छर्रे स्थायी रूप से घुस गए हैं. एक युवा सर्जन अपने आइफोन पर श्रीनगर के रैनावाड़ी इलाके के एक युवा की तस्वीर दिखाता है, जिसकी बाईं आंख में शॉटगन का पूरा कारतूस ही धंस गया था.

छर्रा बंदूक के शिकार सबसे नए पीड़ितों में दो युवा फोटो पत्रकार जुहैब अहमद और मुजम्मिल मट्टो भी शामिल हैं. वे दोनों 4 सितंबर को रैनावाड़ी में पत्थरबाजी कर रही भीड़ और सुरक्षा बलों की झड़प में फंस गए थे. उस दिन सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल श्रीनगर आया हुआ था. लगता नहीं कि पेलेट गन इतनी जल्दी घाटी से बाहर जाने वाली हैं.

—साथ में नसीर गनई

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