
ऐ सुबह की हवा, अगर कभी जेनेवा से गुजरो तो हमारा ये संदेशा लीग ऑफ नेशंस को पहुंचा देना. उन्होंने हमारी जमीन बेच दी, हमारे किसान बेच दिए हैं, उन्होंने हमारी जनता को बेच दिया है और कितनी कम कीमत पर." ये पंक्तियां इकबाल की हैं, जो कश्मीर को लेकर कुछ यूं लिखी गईं- बाद-ए-सबा अगर ब जेनेवा गुजर कुनी/हर्फ-ए जमान ब मजलिसी अकवामे-ए बाज गोय/दहकान-ओ-केश्त-ओ-बाग-ओ-ख्याबां फरोक्चतंद/कौम-ए-फरोख्तंद-ओ-चे अर्जन फरोख्तंद.
और मौजूदा कश्मीर के हालात से इतर कश्मीर के इतिहास के पन्नों को कश्मीरनामा के जरिए पलटना शुरू करेंगे तो आपकी रूह कांप जाएगी. यही कि जिस आजादी के नारे तले अब आतंकवाद की बारूदी लौ नजर आती है, उस आजादी का जिक्र कैसे सदियों से कश्मीर में गूंजता रहा है.
इसकी आहट 19 नवंबर, 1586 की रात मुगलों को एक युद्ध में हराने के बाद याकूब शाह चक के उस बयान में मिलती है, जब वे उत्साहित सैनिकों से कहते हैं, ''आजादी सिर्फ एक कदम दूर है. जल्द ही हम मुगलों को कश्मीर से खत्म कर देंगे."
और कैसे यह रात इतनी लंबी होती चली गई! इस अंधेरी सुरंग का एहसास ही है अशोक कुमार पांडेय का कश्मीरनामा. 1184 ईसा पूर्व से लेकर अब तक के हालात को दस्तावेजों के जरिए इस किताब में जिस ढंग से पिरोया गया है, उसे पढ़कर तो जहांगीर के मुंह से निकले अल्फाज ''अगर फिरदौस बर रू-ए-जमीन अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त" बेमानी लगते हैं.
इस जमीन का भूगोल-इतिहास कैसे सदियों से उसे एक समस्या के तौर पर रखता आया है. यहां तक कि इसके नायक, खलनायक के बीच लकीर खींचना भी कितना मुश्किल काम है, यह किताब बारीकी से इसे उभारती है.
आजादी के बाद नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को जेल पहुंचाया, और आजादी से 15 दिन पहले गांधी जी ने शेख की रिहाई के लिए कश्मीर की यात्रा भी की. 1943 में मीरपुर में हुए नेशनल कॉन्फ्रेंस के चौथे अधिवेशन में उन्हीं शेख ने कहा, ''एक मुसलमान की तरह हमें भरोसा होना चाहिए कि हिंदुस्तान हमारा घर है.
हम इस जमीन से ही जन्मे हैं और इसी जमीन पर मरेंगे. हिंदुस्तान हमारा मादर-ए-वतन है और रहेगा. यह हमारा फर्ज है कि अपने मादर-ए-वतन और अपने घर को गैर मुल्कियों से आजाद कराएं." और महज चार महीने बाद जिन्ना मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के सम्मेलन में बोले, ''कश्मीर एक मुस्लिम राज" है, जिसमें 35 लाख मुसलमान रहते हैं, जिनका अल्लाह एक है, कलमा एक है और काबा एक है.
इसलिए अपनी आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए उन्हें एक संगठन में शामिल हो जाना चाहिए. दस करोड़ भारतीय मुसलमानों की सहानुभूति आपके साथ है. मैं आपकी कामयाबी के लिए खुदा से दुआ करूंगा."
जिन्ना ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को गुंडों का गैंग कहा तो शेख अब्दुल्ला बोले कि ''अगर जिन्ना हमारे मामलों में टांग अड़ाने की आदत से बाज नहीं आएंगे तो उनके लिए कश्मीर से बाइज्जत लौटना मुश्किल हो जाएगा."
दरअसल सौ से ज्यादा किताबों और दस्तावेजों में फैली सामग्री को एक जगह पेश करने वाली यह बेहद तथ्यपूर्ण किताब कश्मीर को लेकर तमाम जाले साफ कर देती है. उसके इतिहास और वर्तमान को लेकर फैले बहुत से भ्रम यह दूर करती है. जो लोग कश्मीर के नाम पर खीर और चीर के जुमलों में तुक भिड़ाने लगते हैं, उन्हें भी किताब पढ़ते वक्त पता चलेगा कि कश्मीर दरअसल एक पीर है जो पर्वत बन गई.
शायद तभी तो एस. अंकलेसरिया अय्यर ने अपने आलेख अ टेल ऑफ टू एथनिक क्लीनजिंग्स इन कश्मीर में जम्मू से मुसलमान और नब्बे के दशक में घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन को साथ रखकर लिखा था.
इसमें उनका कहना था कि ''जम्मू-कश्मीर की त्रासदियां मौत और अमानवीयता की एक लंबी और खौफनाक कहानी हैं. इसमें कई खलनायक हैं पर नायक कोई नहीं. दोनों ही पक्ष सांप्रदायिक सफाए के दोषी रहे हैं. यह भूलकर कि वे खुद भी इसके अपराधी रहे हैं, दोनों ही खुद को पीड़ित बताते हैं."
जो लोग मौजूदा हालात के अक्स में कश्मीर को देख-समझ रहे हैं, उनके लिए यह जानकारी भी बेहद जरूरी है कि 1989-90 में घाटी में जिस तरह बंदूकें लहरा रही थीं, उसके बाद नवंबर '95 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कहा कि ''पिछले छह साल में कश्मीर के लोगों ने आतंकवाद के चलते अपूर्व कष्ट सहे हैं..हजारों लोग अपने घर-परिवार से उखाड़ दिए गए."
आंसू पोछने का जो फॉर्मूला राव ने धारा 370 जारी रखने और संविधान के तहत स्वायत्तता देने के जरिए दिया, उसे (अटल बिहारी) वाजपेयी सरकार ने सत्ता में आते ही खारिज कर दिया. उसी ने पाकिस्तानपरस्त कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत का रास्ता खोला. दिल्ली की कश्मीर नीति में यह पैराडाइम शिफ्ट था. कश्मीरनामा में यह सब सलीके से दर्ज है.