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अलीगढ़ के रहने वाले 70 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद विद्यार्थी की जिंदगी पांच साल पहले तक मुश्किलों से भरी थी. चलने-फिरने में परेशानी, रोजमर्रा के काम के लिए दूसरों पर निर्भरता और हर समय घुटनों में रहने वाली सूजन और दर्द ने उन्हें बेहाल कर दिया था. अब वे रोज सुबह सैर को जाते हैं और घर-बाहर के कई काम बखूबी निबटा लेते हैं. विद्यार्थी कहते हैं, ''मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि अब कभी सामान्य जीवन जी सकूंगा. घुटने नहीं बदलवाता तो जिंदगी और भी बदतर हो गई होती. ऑपरेशन करवाने का फैसला सही समय पर लिया इसलिए कई तीर्थस्थलों की कठिन यात्राएं भी कर सका हूं.'' पंद्रह दिन पहले विद्यार्थी की गुडग़ांव के एक अस्पताल में बाइपास सर्जरी भी हो चुकी है, फिलहाल वे स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं.
बेहतर चिकित्सीय सुविधाओं, अच्छे खान-पान और जीवनशैली में सुधार की वजह से लोगों की औसत आयु में तो वृद्धि हुई है लेकिन वृद्धावस्था से जुड़ी जटिलताएं भी बढ़ गई हैं. 65 की उम्र तक आते-आते ज्यादातर लोग घुटनों में दर्द और सूजन की परेशानी से जूझने लगते हैं. ऐसे में नी या जॉइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी उनके लिए जीवन की नई शुरुआत जैसी होती है. हृदय रोगियों के लिए बाइपास सर्जरी थकती देह में नई जान फूंकने का काम करती है.
कदमों में दम भरने की तरकीब
मार्केट रिसर्च कंपनी फ्रॉस्ट ऐंड सुलिवन ने 2013 में एक रिसर्च की थी जिसमें पता चला था कि भारत में 2011 में घुटने बदलने के 70,000 ऑपरेशन हुए थे और 2017 तक भारत के ऑर्थोप्लास्टी मार्केट के सालाना 26.7 फीसदी की दर से बढऩे की संभावना है.
इस किस्म की सर्जरी करवाने वालों की बढ़ती संख्या इस बात की तस्दीक करती है कि बढ़ती उम्र के साथ होने वाले रोगों को लोग अपनी किस्मत का दोष मानकर अपनी रफ्तार रोकना नहीं चाहते और जीवन की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए सर्जरी करवाने से नहीं घबराते. नी या जॉइंट रिप्लेसमेंट (घुटने बदलना) के अलावा हिप रिप्लेसमेंट (कूल्हे बदलना), बाइपास सर्जरी, मोतियाबिंद का ऑपरेशन और मोटापे से मुक्ति के लिए लैप्रोस्कोपिक सर्जरी जैसे चिकित्सीय उपायों ने भी उम्रदराज लोगों की जिंदगी को बहुत हद तक बेहतर बना दिया है.
मुंबई के पी.डी. हिंदुजा अस्पताल के वरिष्ठ ऑर्थोपेडिशियन डॉ. संजय अग्रवाल कहते हैं, ''आर्थराइटिस होने या किसी चोट की वजह से घुटनों में विकार आने से कई बार विकलांगता तक के हालात पैदा हो जाते हैं. हालात इतने बिगड़ जाते हैं कि चलना-फिरना, उठना-बैठना यहां तक कि रोजमर्रा के काम करना तक मुश्किल हो जाता है. ऐसे में घुटनों को रिप्लेस करना ही उपाय होता है. यह ठीक है कि अब कृत्रिम जोड़ों का प्रत्यारोपण संभव हो गया है लेकिन सर्वश्रेष्ठ उपाय रोग से बचना ही होता है. हड्डियों के रोगों से बचने के लिए बेहतर होगा कि प्रौढ़ावस्था में चिकनाई (घी, तेल) और चीनी का सेवन कम करें, संतुलित आहार लें, भोजन में कैल्शियम की मात्रा पर्याप्त हो, साग-सब्जियां लें और हल्की-फुल्की कसरत भी करें.''
भारत में घुटनों के दर्द की एक खास वजह जीवनशैली से संबंधित विकार मोटापा भी है. ब्रिटेन के मेडिकल जर्नल लांसेट में 2014 में प्रकाशित एक शोध में बताया गया था कि अमेरिका और चीन के बाद भारत में मोटे लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है. इसी शोध के मुताबिक, मोटापे के कारण भारतीय लोगों को युवावस्था में ही घुटनों में दर्द और जॉइंट संबंधित विकारों का सामना करना पड़ा रहा है.
विभिन्न रोगों की जड़
लोग मोटापे को खत्म करने के लिए होने वाली बैरियाट्रिक सर्जरी को भी अपना रहे हैं. उन्हीं में से एक हैं 49 वर्षीय वीणा गांधी जो अपने भारी वजन की वजह से कई बीमारियों का सामना कर रही थीं. उन्हें सांस लेने में दिक्कत थी, थाइरॉयड और हाइ ब्लड प्रेशर की समस्या थी और ब्लड शुगर पर नियंत्रण रखने के लिए उन्हें हर रोज इंसुलिन लेना पड़ता था. नई दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल के लैप्रोस्कोपिक और ओबेसिटी सर्जन डॉ. तरुण मित्तल बताते हैं, ''हमने गांधी को समझाया कि उनके लिए सबसे बड़ी समस्या मोटापा है और इससे निजात पाने के लिए बैरियाट्रिक सर्जरी ही ठीक उपाय है. सर्जरी के बाद अगले दस महीनों में उनका वजन 25 किलो कम हो गया और आने वाले दिनों में उनका वजन और 10-15 किलो तक कम हो जाएगा.''
सर्जरी के बाद वीणा गांधी की मधुमेह की समस्या पर भी बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया गया और अब उन्हें इंसुलिन की नियमित डोज की जरूरत नहीं पड़ती है. मित्तल बताते हैं, ''अगर गांधी को ऑपरेट नहीं किया गया होता तो उन्हें हृदय रोग, सांस की बड़ी तकलीफ, ऑस्टियोआर्थराइटिस, अनियंत्रित मधुमेह और उससे संबंधित अन्य जटिलताएं हो सकती थीं.''
बैरियाट्रिक सर्जरी का फायदा यह है कि इससे अच्छा-खासा वजन कम हो जाता है, जिसे मेंटेन करना आसान होता है. इसके अलावा मोटापे के कारण होने वाली समस्याएं जैसे मधुमेह (डायबिटीज), हाइ ब्लड प्रेशर, घुटनों में दर्द, कमर के निचले हिस्से में दर्द, ज्यादा कोलेस्ट्रॉल, फैटी लीवर, इनफर्टिलिटी जैसी समस्याओं पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है. वृद्धावस्था में यह सर्जरी लोगों के जीवन की गुणवत्ता को सुधारने में खास मददगार साबित होती है.
हालांकि दिल को सेहतमंद बनाने का काम भी चिकित्सक बाइपास सर्जरी के जरिए बखूबी कर रहे हैं. जैसा कि बीएलके हार्ट सेंटर के कार्डियोथोरेसिक और वैस्कुलर सर्जरी के एसओडी और चेयरमैन डॉ. अजय कौल कहते हैं, ''सर्जरी के बाद दिल की सेहत दुरुस्त हो जाती है और मरीज भी ज्यादा ऊर्जावान और बेहतर महसूस करता है.''
दर्द से निजात
जिंदगी को बेहतर बनाने वाली सर्जरी करवाने वालों में गुडग़ांव के 54 वर्षीय राजीव माहेश्वरी भी हैं जिन्होंने बीती 2 मई को एम्स में हिप रिप्लेसमेंट सर्जरी करवाई है. लगभग बीस साल पहले हुए एक हादसे में उनके कूल्हे क्षतिग्रस्त हो गए थे. वे ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाते थे, बगैर मदद के उठना-बैठना या चलना उनके लिए काफी मुश्किल होता जा रहा था. लेकिन सर्जरी करवाने के महीने भर के भीतर उन्हें असर दिखने लगा. माहेश्वरी कहते हैं, ''दफ्तर जाना भी शुरू कर दिया है और अब लंबे समय तक बैठने में भी कोई परेशानी नहीं है.''
मुंबई के लीलावती अस्पताल में ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉ. नीरद एस. वेंगसरकर बताते हैं, ''हिप रिप्लेसमेंट सर्जरी से मरीज को मिलने वाले आराम को अगर नौ तक की स्केल पर तोला जाए तो पता चलता है कि उनका दर्द नौ से घटकर एक पर आ गया है.'' सर्जरी के बाद कूल्हे के जिस हिस्से को बदला जाता है, उसमें अब घर्षण नहीं होता इसलिए मरीज दो से छह हफ्ते में सामान्य जीवन जीने लगता है. वेंगसरकर कहते हैं, ''भारत में हर साल इस तरह की एक लाख सर्जरी होती हैं और अगले पांच साल में यह आंकड़ा दोगुना होने की संभावना है.'' यह इम्प्लांट 25 से 30 साल तक चलता है.
सटीक नजर के लिए
साठ के पार होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में आंखों में मोतियाबिंद एक बड़ी और आम समस्या है. सेंटर फॉर साइट के चेयरमैन और मेडिकल डायरेक्टर डॉ. महिपाल एस. सचदेव बताते हैं, ''बढ़ती उम्र में घटती रोशनी की सबसे बड़ी वजह मोतियाबिंद है. 60 साल की उम्र तक आते-आते लगभग आधी आबादी को मोतियाबिंद हो जाता है जबकि 80 फीसदी लोगोंको 70 साल की उम्र तक कम से कम एक आंख में यह विकार आ जाता है. इसे खत्म करने का एकमात्र उपाय सर्जरी होता है.'' मोतियाबिंद के इलाज की लेटेस्ट तकनीक फेमटोसेकंड लेजर टेक्नोलॉजी है.
डॉ. सचदेव बताते हैं, ''मोतियाबिंद में आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम होने लगती है और फिर दिखना पूरी तरह से बंद हो जाता है. ऐसी स्थिति में वृद्ध लोगों के साथ फिसलने या गिरने जैसे हादसे हो सकते हैं. अधिक आयु के लोगों में कूल्हे में फ्रैक्चर जैसे मामले काफी आम हैं और इसका दोष मोतियाबिंद को दिया जा सकता है.'' यह सर्जरी कुछेक मिनटों में हो जाती है और मरीज हफ्ते भर के भीतर रोजमर्रा के काम करने लगते हैं. आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों का ही कमाल है कि अब जीवन की संध्या में भी लोग बीमारियों का बोझ ढोने को मजबूर नहीं हैं और खुलकर जीवन जी रहे हैं.