
'गुनाहों का देवता', 'सूरज का सातवां घोड़ा', 'कनुप्रिया' और 'अंधायुग' से देश और दुनिया के हिंदी साहित्यप्रेमियों के दिमाग में पैठ जाने वाले डॉ. धर्मवीर भारती का बचपन बेहद गरीबी में बीता था. किसी तरह स्कूल की फीस जमा हो पाती, ऐसे में किताबों का शौक उनके लिए उस समय मुसीबत का सबब था. मुफलिसी इतनी कि स्कूली शिक्षा ही ट्यूशन पढ़ाकर पूरी हो पाती. किताबें खरीदना तो दूर लाइब्रेरी से लेकर पढ़ना तक मुश्किल था, क्योंकि उस जमाने में इतने भी पैसे न थे कि देकर वह किसी पुस्तकालय के सदस्य बन जाएं. लेकिन पढ़ने की ललक व लगन खूब थी.
स्कूल से समय बचता तो पुस्तकालयों के चक्कर लगाते. उनकी लगन देखकर इलाहाबाद के एक लाइब्रेरियन ने एक दिन उन्हें बुलाया और बातचीत के बाद भरोसा कर अपने नाम पर पांच दिन के लिए किताबें देना शुरू कर दिया. यहीं से उनकी पढ़ाई की गाड़ी चल निकली. वह पढ़ते भी और लिखते भी. पहले-पहल तो उन्होंने अंग्रेजी के नामी लेखकों के अनुवाद पढ़े, फिर उनकी मूल कृतियां पढ़ीं और हिंदी- अंग्रेजी भाषा पर अपना अधिकार जमाया.
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धर्मवीर भारती ने अपने छात्र जीवन में ही ऐसे-ऐसे लेखकों को और इतना अधिक पढ़ लिया, जिन्हें आज के दौर की पीढ़ी में शायद ही कोई शोधार्थी भी पढ़ रहा हो. कीट्स, वर्ड्सवर्थ, टॅनीसन, एमिली डिकिन्सन के साथ उन्होंने फ़्रांसीसी, जर्मन और स्पेन के कवियों के अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़े. एमिल ज़ोला, शरदचंद्र, मैक्सिम गोर्की, क्युप्रिन, बालज़ाक, चार्ल्स डिकेन्स, विक्टर हयूगो, दॉस्तोयव्स्की, तॉल्सतोय आदि को वह स्कूली जीवन में ही पढ़ चुके थे. शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन्होंने संस्कृत साहित्य भी खूब पढ़ा. वेद, श्रीमद्भगवत गीता, उपनिषद और पुराण भी पढ़े, जिनका प्रभाव उनकी लेखनी पर सतत बना रहा.
धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर, 1926 को इलाहाबाद में हुआ था. पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें देश से भी बहुत प्यार था. आलम यह था कि स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में महात्मा गांधी के आह्वान पर एक बार उन्होंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई छोड़ दी थी और आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. बाद में सुभाष चंद्र बोस के प्रशंसक बने तो हर समय साथ में हथियार लेकर चलने लगे और 'सशस्त्र क्रांतिकारी दल' में शामिल होने के सपने संजोने लगे, पर अंतत: अपने मामा के समझाने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक किया. स्नातक में हिंदी में सबसे ज्यादा अंक लाए तो 'चिंतामणि गोल्ड मैडल' से सम्मानित किए गए. बाद में 1956 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी की. उसके बाद वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए.
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साहित्यिक रूचि बनी रही. ‘अभ्युदय’ और ‘संगम’ के उप-संपादक बने. बाद में ‘धर्मयुग’ के प्रधान संपादक बन मुंबई गए तो वहीं के होकर रह गए. एक बड़े साहित्यकार और संपादक रहते हुए भी उन्होंने साल 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्टिंग भी की. उनकी रचनाओं में 'सूरज का सातवां घोड़ा' जहां लघुकथाओं की एक अलहदा शैली का नमूना था, तो 'गुनाहों का देवता' एक अद्भुत प्रेम उपन्यास. 'कनुप्रिया' एक अद्भुत खंडकाव्य था, तो 'अंधायुग' एक ऐसी रचना, जिस पर इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक कर चुके हैं. इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गांव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चांद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी किताबें भी लिखीं.
डॉ धर्मवीर भारती की अधिकांश रचनाएं बेहद लोकप्रिय रहीं. वह पत्रकारिता और साहित्य लेखन के लिए हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार, साहित्य अकादमी रत्न, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली, महाराणा मेवाड़ फ़ाउंडेशन, राजस्थान से सर्वश्रेष्ठ लेखक सम्मान, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान, बिहार, भारत भारती सम्मान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र गौरव, केडिया हिन्दी साहित्य न्यास, मध्यप्रदेश, बिड़ला फ़ाउंडेशन के व्यास सम्मान आदि से सम्मानित हो चुके थे. पर ये सम्मान उनके लिए केवल एक प्रतीक भर थे. इसीलिए 4 सितंबर, 1997 को उनका निधन जरूर हुआ, पर अपने प्रशंसकों के दिल में वह अपनी रचनाओं से जिंदा हैं.
साहित्य आजतक के पाठकों के लिए उनकी एक बेहद चर्चित कविताः
...क्योंकि सपना है अभी भी!
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!
तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आंका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूं मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है- दिशाएं, पहचान, कुंडल, कवच
लेकिन शेष हूं मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी!
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!