
उर्दू के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि है. मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम मिर्जा असल-उल्लाह बेग खां था. उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को मुगल शासक बहादुर शाह के शासनकाल के दौरान आगरा के एक सैन्य परिवार में हुआ था और वो 15 फरवरी 1869 को दुनिया रुखसत हो गए थे. उन्होंने फारसी, उर्दू और अरबी भाषा की पढ़ाई की थी. उनकी कई ग़ज़ल और शेर लोगों को याद हैं, जिसमें 'ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए/इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है' जैसे कई शेर शामिल है.
उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आए थे. उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गए. उन्होंने तीन भाषाओं में पढ़ाई की थी, जिसमें फारसी, उर्दू, अरबी आदि शामिल है.
ग़ालिब 11 साल की उम्र से ही उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य और पद्य लिखने शुरू कर दिए थे. इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है.
कई रिपोर्ट्स के अनुसार छोटी उम्र में ही ग़ालिब से पिता का सहारा छूट गया था जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें पाला, लेकिन उनका साथ भी लंबे वक्त का नहीं रहा. बाद में उनकी परवरिश नाना-नानी ने की. ग़ालिब का विवाह 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से हो गया था.
'वो पूछता है कि गालिब कौन था? कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?'
ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है. उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला है. ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे.
उनकी प्रमुख कृतियों में ये बहुत प्रचलित हैं-
-आह को चाहिए इक उम्र असर होते तककौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
-बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
-बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
-दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
-हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
-हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
-हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
-इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
-काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
-कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले