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रानी लक्ष्मीबाई: एक रानी, जो बनी देश की सबसे बड़ी मर्दानी

अदम्य साहस, शौर्य और देशभक्ति की प्रतिमूर्ति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आज पुण्यतिथि है. रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की, लेकिन जीते-जी अंग्रेजों को अपनी झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया.

लक्ष्मी बाई लक्ष्मी बाई
मोहित पारीक
  • नई दिल्ली,
  • 18 जून 2018,
  • अपडेटेड 2:28 PM IST

अदम्य साहस, शौर्य और देशभक्ति की प्रतिमूर्ति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आज पुण्यतिथि है. रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की, लेकिन जीते-जी अंग्रेजों को अपनी झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया. उनकी बहादुरी के किस्से और ज्यादा मशहूर इसलिए हो जाते हैं, क्योंकि हम ही नहीं उनके दुश्मन भी उनकी बहादुरी के कायल थे.

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रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को बनारस के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ. उन्हें मणिकर्णिका नाम दिया गया और घर में मनु कहकर बुलाया गया. 4 बरस की थीं, जब मां गुज़र गईं. पिता मोरोपंत तांबे बिठूर ज़िले के पेशवा के यहां काम करते थे और पेशवा ने उन्हें अपनी बेटी की तरह पाला. प्यार से नाम दिया छबीली. बचपन में ही मनु नाना साहेब और तात्या टोपे जैसे साथियों के साथ जंग के हुनर सीखने लगी थीं.

1842 में मनु का विवाह झांसी नरेश गंगाधर राव नेवलकर के साथ हुआ जिसके बाद उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला. 1851 में रानी ने राजकुंवर दामोदर राव को जन्म दिया. लेकिन कुंवर चार महीने से अधिक नहीं जी पाए. पुत्र की मृत्यु के साथ ही मानो लक्ष्मीबाई का सौभाग्य भी उनका साथ छोड़ गया था.

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राजा का देहांत होते ही अंग्रेज़ों ने चाल चली और लॉर्ड डलहौज़ी ने ब्रिटिश साम्राज्य के पैर पसारने के लिए झांसी की बदकिस्मती का फायदा उठाने की कोशिश की. रानी लक्ष्मीबाई, अंग्रेजों से भिड़ना नहीं चाहती थीं, लेकिन सर ह्यूज रोज़ की अगुवाई में जब अंग्रेज़ सैनिकों ने हमला बोला, तो कोई और विकल्प नहीं बचा. वहीं झांसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बन गया था, जहां हिंसा भड़क उठी.

झांसी हमेशा इस बात की पक्षधर थीं कि झांसी को फिरंगियों के अधीन नहीं जाने दिया जाएगा. हालांकि ब्रिटिश अधिकारियों ने उनसे कई मुद्दों को लेकर बात करना चाही, लेकिन लक्ष्मी बाई ने ठुकरा दिया. 23 मार्च 1858 को ब्रिटिश फौजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया. 30 मार्च को भारी बमबारी की मदद से अंग्रेज किले की दीवार में सेंध लगाने में सफल हो गए.

खुद को कमजोर होता देख लक्ष्मीबाई, झांसी की आखिरी उम्मीद दामोदर राव को अपनी पीठ बांध छोटी सैन्य टुकड़ी के साथ झांसी से निकल आईं. 17 जून की सुबह लक्ष्मीबाई अपनी अंतिम जंग के लिए तैयार हुईं. लॉर्ड केनिंग की रिपोर्ट के अनुसार रानी को एक सैनिक ने पीछे से गोली मारी थी. अपना घोड़ा मोड़ते हुए लक्ष्मीबाई ने भी उस सैनिक पर फायर किया लेकिन वह बच गया और उसने अपनी तलवार से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का वध कर दिया.

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अंग्रेज भी थे बहादुरी के कायल

रानी लक्ष्मीबाई की क्षमताओं का लोहा उनके प्रशंसक ही नहीं बल्कि उनके दुश्मन भी मानते थे. पामेला डी टॉलर इस बारे में लिखती हैं कि झांसी के राजनीतिक एजेंट एलिस के मन में रानी के लिए सहानुभूति थी. हालांकि उसका वरिष्ठ अधिकारी मैल्कॉम रानी को पसंद नहीं करता था लेकिन फिर भी उसने लॉर्ड डलहौजी भेजे पत्र में लिखा था, ‘लक्ष्मीबाई बेहद सम्मानीय महिला हैं और मुझे लगता है कि वे इस पद (सिंहासन) के साथ पूरा न्याय करने में समर्थ हैं.’ यही नहीं, झांसी पर आखिरी कार्रवाई करने वाले सर ह्यू रोज ने कहा था, ‘सभी विद्रोहियों में लक्ष्मीबाई सबसे ज्यादा बहादुर और नेतृत्वकुशल थीं. सभी बागियों के बीच वही मर्द थीं.'

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