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ग्रामीण विद्युतीकरण: आंकड़ों का उजाला

जब तक सिर्फ आंकड़े बोल रहे थे तब तक अंधेरे गांवों को रोशन करने की मुहिम की चारों तरफ वाहवाही हो रही थी, लेकिन जब गांवों ने बोलना शुरू किया तो अंधेरे में नजर आने लगे आशंका के दीप.

गांवः नानकड़ रामजीवाला, बिजनौर, यूपी गांवः नानकड़ रामजीवाला, बिजनौर, यूपी
पीयूष बबेले
  • नई दिल्ली,
  • 29 अगस्त 2016,
  • अपडेटेड 6:27 PM IST

आजादी की 70वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले की प्राचीर से जब देश के कुछ गांवों से 60 साल का अंधेरा दूर करने की बात कह रहे थे, तो उनके लिए यह कोई नई बात नहीं थी. इससे पहले वे संयुन्न्त राष्ट्र और अमेरिकी संसद में भी अपनी इस उपलब्धि को गिनाकर तालियां बटोर चुके थे. लाल किले की तरह ही इन जगहों पर भी उन्होंने बाकायदा उस मोबाइल ऐप 'गर्व' का विस्तार से उल्लेख किया था, जिसमें पहली बार बिजली की सुविधा से जुड़े एक-एक गांव का ब्योरा और तस्वीरें उपलब्ध हैं. नई बात बस यह थी कि प्रधानमंत्री ने अंधेरे से बाहर निकले गांवों की संख्या के साथ ही उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के नगला फटेला गांव का जिक्र भी कर दिया था. इतनी-सी बात का बतंगड़ बन गया. कुछ ही घंटे में नगला फटेला से खबरें आने लगीं कि वहां लोगों को बिजली नहीं मिली है और जिन्हें मिली भी है, वह कई साल पहले आ गई थी.

यह गड़बड़ी कैसे हुई और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, इसका जिक्र तो किया ही जाएगा, लेकिन इससे पहले भारत में ग्रामीण विद्युतीकरण की पहेली को थोड़ा इत्मीनान से समझ लिया जाए. अपने देश में छह लाख गांव हैं. इनमें से एक लाख से ज्यादा गांव ऐसे हैं, जिनमें 2004 तक बिजली नहीं पहुंची थी. केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-1 की सरकार बनने के बाद इन गांवों तक बिजली पहुंचाने के लिए राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना (आरजीजीवीवाइ) शुरू की गई. मनमोहन सिंह के दोनों कार्यकाल के दौरान यह काम जारी रहा और हर साल करीब 10,000 गांवों तक बिजली पहुंचाने के बावजूद 3,000 से कुछ अधिक गांव बिजली से वंचित रह गए. इसके बाद केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी तो 3 दिसंबर, 2014 को ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना (डीडीयूजीजेवाइ) शुरू की गई. ग्रामीण विद्युतीकरण का जिक्वमा संभाल रही रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉर्पोरेशन (आरईसी) के कार्यकारी निदेशक दिनेश अरोड़ा ने इंडिया टुडे को बताया, ''इस योजना में कृषि और आवासीय इलेक्ट्रिक फीडर को अलग करना और गांवों में बिजली वितरण का विशेष ढांचा बनाने का बड़ा काम होना है. साथ ही आरजीजीवीवाइ के शेष बचे लक्ष्य को पूरा करना भी इसमें शामिल है.'' योजना का नाम बदलने के अलावा दूसरी चीज यह हुई कि राज्य सरकारों से बिना बिजली वाले गांवों की सूची दोबारा मांग ली गई. नई सूची में बिना बिजली वाले गांवों की संख्या बढ़कर 18,452 हो गई. इसके बाद उस मशहूर ऐप 'गर्व' का काम शुरू हुआ, जिसका जिक्र देश के प्रधान सेवक कर रहे थे. इस ऐप में हर उस गांव की विस्तृत जानकारी मिल जाती है, जहां बिजली पहुंचा दी गई है या जहां बिजली पहुंचाई जानी हैं. जानकारी में कोई झोल न हो, इसके लिए गांव से ही कुछ तस्वीरें ऐप पर अपलोड की जाती है. जीपीएस तकनीक के आधार पर तस्वीर की प्रामाणिकता भी जांच ली जाती है. ऐप में यह इंतजाम भी है कि गांव वाले अपने सुझाव और शिकायत दर्ज करा सकें. गर्व ऐप का डेशबोर्ड संवाददाता की तरफ घुमाते हुए अरोड़ा कहते हैं, ''पारदर्शिता का जितना इंतजाम संभव है, वह इस ऐप ने कर दिया है. गांवों का विद्युतीकरण टारगेट से तेज रफ्तार से चल रहा है.''

लेकिन जब इतना पुख्ता इंतजाम है तो नगला फटेला को लेकर प्रधानमंत्री को फजीहत क्यों झेलनी पड़ी? तो इसका रहस्य उस बात में है, जिसका जिक्र करना प्रधानमंत्री अब तक जरूरी नहीं समझते थे. वह बात यह है कि बिजली वितरण राज्यों की जिम्मेदारी है. केंद्र किसी भी योजना के माध्यम से बिजली पहुंचाना चाहे, असल में काम राज्य सरकार को ही करना होता है. आरईसी के वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश से आई रिपोर्ट में नगला फटेला में अक्तूबर 2015 में बिजली पहुंचने की पुष्टि की गई. 24 नवंबर, 2015 को हुए परीक्षण और सत्यापन में बताया गया कि 82 घरों को कनेक्शन दिया गया है, 25 केवीए के चार ट्रांसफॉर्मर, 16 केवीए का एक ट्रांसफॉर्मर और बिजली के 88 खंभे लगे हैं. यही आंकड़े गर्व से 'गर्व' के डैशबोर्ड पर चमचमा रहे थे. हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने कहा कि केंद्र प्रधानमंत्री की शर्मिंदगी छिपाने के लिए यूपी पर गलत आरोप लगा रहा है. राज्य ने केंद्र को कोई गलत तथ्य नहीं भेजा था.

अब कौन सच बोल रहा है और कौन नहीं, यह तो लंबी बहस में जाएगा, लेकिन असल बात यह है कि नगला फटेला अकेला ऐसा गांव नहीं है, जहां बिजली नहीं पहुंची है. इंडिया टुडे ने इस साल जून से अगस्त के बीच उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पहली बार विद्युतीकृत बताए गए गांवों का दौरा किया. सबसे पहले साबका पड़ा बिजनौर जिले के नानकड़ उर्फ राजमीवाला गांव से. यहां 12 जून को स्थिति यह थी कि बिजली की नई लाइन बिछाने का काम चल रहा था. गांव के ज्यादातर घरों में लोगों ने अपने खर्च से सोलर लाइट लगवाई हुई थी. बिजली की लाइन बिछाने का बहुतसा सामान पूर्व प्रधान मोहम्मद अख्तर के घर पर पड़ा हुआ था और रात में उनके घर पर सौर लालटेन की रोशनी में चूल्हे पर खाना बन रहा था. अख्तर ने बताया, ''चार-पांच साल पहले भी यहां खंभे लगाए गए थे, लेकिन काम आगे नहीं बढ़ सका.'' इसके बाद गर्व ऐप पर लिखा गया कि इस साल 9 अगस्त को गांव में बिजली की लाइन चालू हो गई. लेकिन 22 अगस्त को गांव के प्रधान नसीम ने इंडिया टुडे से पुष्टि की, ''गांव में बिजली की लाइन चालू नहीं हुई है, यह बात सरासर झूठ है.'' इसी जिले के अलाउद्दीनपुर को भी कई महीने पहले विद्युतीकृत घोषित कर दिया गया. लेकिन इस गांव के प्रधान शाकिर अली ने बताया कि बिजली नहीं आई है. 27 जून को शाम 6.18 बजे इस संवाददाता ने ग्राम प्रधान की सीधी बात आरईसी के अपर महाप्रबंधक आर.के. गुप्ता से कराई तो विद्युतीकरण के दावे को प्रधान ने साफ खारिज कर दिया. तब अधिकारी ने प्रधान से कहा कि आपका गांव तो पहले से ही विद्युतीकृत है, फिर भी इसे छोड़ा नहीं जाएगा. लेकिन 24 अगस्त को जब इस संवाददाता ने ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल से मुलाकात की तो उसी दौरान ग्राम प्रधान ने अधूरे काम के फोटो व्हाट्सऐप से भेजे और दुखड़ा रोया. ऊर्जा मंत्री  कार्यालय ने फिर कार्रवाई करने की बात कही.

उधर, मध्य प्रदेश के सागर जिले के मझिहार गांव में तेंदू पत्ते से बीड़ी बनाने के काम में मगन आदिवासी कपूरी बाई कहती हैं, ''परसाल टीवी पर देखा कि मोदीजी बिना बिजली वाले गांवों में बिजली दे रहे हैं, तो बड़ा अच्छा लगा.'' कपूरी ने सोचा कि वे सौभाग्यशाली हैं जो 20 साल पहले ब्याह कर इस गांव में आ गईं, जहां लाइट थी. गांव में पहला कनेक्शन हरिप्रसाद आदिवासी के नाम पर हुआ था. तब गांव में तीन बिजली कनेक्शन थे. अब डीडीयूजीजेवाइ योजना से गांव में पांच और कनेक्शन हो गए हैं.  हरिप्रसाद के यहां अब नया मीटर लग गया है. मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तंज करते हैं, ''मोदीजी दूसरी लाइन बिछाकर पहली बार बिजली भेजने का दावा कर रहे हैं. अब ऐसा सफेद झूठ तो मोदी ही बोल सकते हैं. और अगर वे सच भी बोल रहे हैं तो देश के 5.82 लाख गांवों को बिजली तो कांग्रेस पहले ही दे चुकी है.'' उधर, इंडिया टुडे ने राजस्थान के जैसलमेर जिले के पाकिस्तान सीमा से लगे गांवों का दौरा किया तो वहां जरूर दावे के मुताबिक सोलर लाइट लगी मिली.

लेकिन कुछ गांव ऐसे भी बदनसीब हैं जिन्हें न तो अंधियारा माना गया और न ही दो-दो बार बिजली मिलने का सौभाग्य मिला. यूपी के झांसी जिले का साजेरा ऐसा ही गांव है. गांव के पहलवान सिंह बताते हैं, ''यहां न तो आज तक लाइट आई और न आने की उक्वमीद है.''
ग्रामीण विद्युतीकरण की ये छटाएं देखने के बाद आते हैं, असल सवाल पर. यानी गांवों में बिजली कितनी देर के लिए आती है. अरोड़ा बताते हैं, ''गर्व ऐप पर रोजाना औसतन 10 शिकायतें आती हैं. इनमें बिजली की अघोषित कटौती और बीपीएल श्रेणी के कनेक्शन के लिए रिश्वत मांगने की शिकायतें प्रमुख हैं.'' गर्व ऐप इन शिकायतों को दर्ज कर सकता है और यहां से यह राज्य के अधिकारियों को भेजी जा सकती हैं, लेकिन संघीय ढांचे में केंद्र सरकार इनमें से कोई समस्या हल नहीं कर सकती. यानी जिन राज्यों में शहरों तक में बिजली का संकट है, वहां गांव वालों को भले ही पहली बार बिजली का कनेक्शन मिल गया हो, लेकिन बिजली कितनी देर जलेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है.

इन हालात में गांव वाले ही तय कर सकते हैं कि अब तक के सबसे पारदर्शी ऐप पर बिजली की जानकारी उपलब्ध होने से उन्हें ढाढस बंधती है या फिर रात में बल्ब जलने से उनकी जिंदगी का अंधेरा दूर होता है. लेकिन संघीय ढांचा और केंद्र-राज्य की बहस में उलझकर कहीं यह ढाढस भी न मिट जाए. सहज बुद्धि यही कहती है कि सरकार के पास भले ही सरप्लस बिजली हो, लेकिन राज्य उसे खरीद न पाएं तो वह किस काम की. इसलिए हिंदुस्तान के गांवों का अंधेरा तभी छंटेगा, जब रोशनी आंकड़ों से निकलकर आंगन और खलिहान में छिटक जाए.

—साथ में संतोष पाठक और विमल भाटिया

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