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कुमार का खु़मार, साहित्य आजतक के मंच पर भी बोलेगा नए संग्रह 'फिर मेरी याद' का जादू

कुमार विश्‍वास की कविता को किसी भाष्‍य की जरूरत नहीं है. हाल ही में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह 'फिर मेरी याद' का लोकार्पण भी साहित्य आजतक 2019 के मंच पर होगा. कैसी है यह किताब पढ़िए यह समीक्षा

साहित्य आजतक के मंच पर कुमार विश्‍वास की इसी किताब 'फिर मेरी याद' का होगा लोकार्पण साहित्य आजतक के मंच पर कुमार विश्‍वास की इसी किताब 'फिर मेरी याद' का होगा लोकार्पण
ओम निश्चल
  • नई दिल्ली,
  • 17 अक्टूबर 2019,
  • अपडेटेड 1:37 PM IST

कुमार विश्‍वास की कविता को किसी भाष्‍य की जरूरत नहीं है. वह एक सुगम लय की तरह मन में उतर जाती है. मघई पान की तरह कंठ में घुल जाती है. वह लाखों करोड़ों जनता को कविता में संस्‍कारित करती है. वह कविता सुनना और गुनना सिखाती है. वह साधारण कविता और असाधारण कविता के बीच का फ्लाईओवर है. खास बात यह कि साहित्य आजतक पर कुमार विश्वास एक खास चेहरा हैं.

वह साहित्य आजतक के मंच पर इसके शुरुआती साल में भी थे, और इस साल भी होंगे. यही नहीं कुमार विश्‍वास के हाल ही में प्रकाशित संग्रह 'फिर मेरी याद' का लोकार्पण भी साहित्य आजतक 2019 के मंच पर होगा. इस संग्रह पर चर्चित आलोचक डॉ ओम निश्‍चल ने यह समीक्षा खासतौर से साहित्य आजतक के लिए लिखी है.

कविता का रस चखते हुए अर्धशती गुजर गयी. उस गांव के कस्‍बे में यदि कोई अध्‍यापक गोपियों के विरह वर्णन को यूं न समझाता कि सूर की गोपियां तो बेचारी मिडिल पास हैं, बहुत भावुक, बहुत संवेदनशील, रिश्‍तों की कद्र करने वाली, अपने प्रिय पर मर मिटने वाली और विरह में आंसू बहाने वाली पर रत्‍नाकर की गोपियां ग्रेजुएट हैं. वे न रोती हैं न झींकती हैं, कृष्‍ण से प्रेम ही नहीं करतीं उन पर अपना अधिकार भी समझती हैं फिर कौन माई का लाल है जो उन्‍हें ऐसा करने से रोके. उनकी पथ बाधा बने.

लाख उद्धव अपने एजेंडे के साथ आए बहुत समझाया चालें चलीं कि भूल जाओ पर ग्रेजुएट गोपियों ने उनके तर्क के छक्‍के छुड़ा दिये तथा उन्‍हें चुप चाप पतली गली से खिसक लेने की हिदायत भी दे डाली. निशि दिन बरसत नैन हमारे और चुप रहो ऊधो सूधो पथ मथुरा को गहो...के बीच का यह अंतर जो कभी हमारे इंटर के अध्‍यापक से समझाया वह आज तक मन से न गया.

कविता के उद्गम का स्रोत यही है कि कोई कविता का मर्म समझा दे, उस भाव धारा में उतार दे जिसमें वह खुद डूब कर बह रहा है. कविता यही करती है. वह हमारे भीतर के सोते हुए तारों को जगाती है, उसका रस लेना सिखाती है, विरह में कष्‍ट में डूबना सिखाती है और कुतर्क के आगे अपने तर्क के साथ रहना और जीना सिखाती है.

बचपन में पंत, प्रसाद, महादेवी, नीरज, बच्‍चन, क्षेम, भारतभूषण, रूप नारायण त्रिपाठी, रामावतार त्‍यागी, शंभुनाथ सिंह के गीतों को पढ़ कर जाना कविता में कितने गहरे उतरना होता है. वह कविता का स्‍वर्णयुग था. छंदों का स्‍वर्णयुग था जो लगभग विदा हो चुका है. आज के बाब्‍डहेयर गीतों में वह दमखम नहीं है कि वह दिल की वीणा को वैसा झंकृत कर दें जैसे रमानाथ अवस्‍थी, नरेन्‍द्र शर्मा और सोम ठाकुर के गीत किया करते थे. नवगीतों में यही काम ठाकुर प्रसाद सिंह, रमेश रंजक और उमाकांत मालवीय के गीतों ने किया है.

आज कुमार विश्‍वास की कविता यही करती दीखती है. वह नए नए किशोरों को कविता में रस लेना सिखाती है, गीत में रस लेना सिखाती है. वह प्रेम करना सिखाती है. वह अभिव्‍यक्‍ति की राह पर चलना सिखाती है तथा कविता को मंच की वाचिक अदायगी का सलीका सिखाती है. उनकी कविता गंभीर कविता तक पहुंचने का पुल बनाती है, वह साधारण कविता और असाधारण कविता के बीच का फ्लाईओवर है.

अक्‍सर कुमार विश्‍वास और उनके कवित्‍व को लेकर तमाम बातें कही जाती हैं. लोग नाक भौं सिकोड़ते हैं कि उन्‍होंने कविता का स्‍तर गिरा दिया है. मैं कहता हूं उन्‍होंने कविता में छंद को प्रतिष्‍ठा दी है तथा अनेक कवियों को गाकर अपने स्‍मृतिकोष का हिस्‍सा बना कर लोगों को अपने सुख दुख को गान बनाकर जीना सिखाया है. उन्‍होंने रामावतार त्‍यागी जैसे कवियों के पुराने छंदों को 'कोई दीवाना कहता है' जैसे पदों में पिरोया और अपनी तरह गाकर वैसा ही गाने वालों की कतार खड़ी कर दी. यह उनके गीतों और गायन का संक्रमण है कि हर घर में जिसने उन्‍हें कभी सुना है, उनके गीतों पदों की धुन किसी न किसी के दिल में घर कर जाती है. साहित्य आजतक के मंच पर उन्होंने यही किया है. देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय चैनल आज तक के मंच पर अपने चर्चित कार्यक्रम 'केवी सम्मेलन' में वह यही करते रहे हैं.

रही बात स्‍तरीयता की तो कहने की बात नहीं कि जिस देश की जबान हिंदी हो, इतनी समृद्ध बोलियां और भाषाएं इसके खजाने में हों, वहां हिंदी की यह बेकदरी है कि इसे पढ़ने वालों को रोजगार नही है, हिंदी में लाखों बच्‍चे फेल होते हैं. ऐसे में गंभीर कविता पहुंचेगी कैसे. पहले तो वह कालेजों विश्‍वविद्यालय के अध्‍यापकों की जटिल समझ की जटाओं में ही उलझ कर रह जाएगी, वह बच्‍चों तक पहुंच ही न पाएगी क्‍योंकि बच्‍चों को कविता का संस्‍कार देने वाले अध्‍यापक बहुत कम रह गए हैं.

एक वक्‍त ऐसे ही अध्‍यापकों ने नई कविता को रबड़ छंद कह कर उसका उपहास किया था पर आज वे उसे ही पढ़ाने को अभिशप्‍त हैं, वे न गा सकते हैं न ठीक से कविता का वाचन कर सकते हैं. वे कविता में डूब नही सकते न डूबना और रस लेना सिखा सकते हैं. ऐसे में कुमार विश्‍वास की कविता और उनका मंच कविता की एक जीवंत कार्यशाला है. मैंने कोलकाता में रह कर देखा है कि कवि सम्‍मेलन सुनने वालों में अग्रणी पंक्‍ति में वागर्थ के संपादक और हमारे समय के श्रेष्‍ठ आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय पत्‍नी ज्‍योति श्रोत्रिय के साथ बैठे दीख जाते थे, इसलिए नहीं कि वे सम्‍मेलनी कवियों के प्रशंसक थे पर वे उनकी उस भूमिका को स्‍वीकार करते थे कि ऐसे कवियों ने कविता की वाचिक परंपरा को जीवित रखा है. छंद और कविता के बीच एक पुल बनाया है. देश भर के मंचों पर, राम कथा से लेकर साहित्य की कथा, साहित्य आजतक में उनकी लगातार उपस्थिति इसीलिए है.

कुमार विश्‍वास को मंचों पर पढ़ते रमते और जमते हुए लगभग ढाई दशक से ऊपर हुए. अपने अध्‍यापक बनने की कहानी वे खुद ही सुनाते हैं कि कैसे पिता के सख्‍त अनुशासन के पंजे से छूट कर वे कविता की दुनिया में पहुंचे और आज यहां लोगों के बीच हैं नहीं तो पिता के बताए मार्ग पर चलते तो अब तक कहीं कल पुर्जे जोड़ने वाले इंजीनियर बने होते. कुमार की कविता लोगों को कनेक्‍ट करती है. कुमार ने छंद की साधना की है. प्रसाद, महादेवी, निराला आदि की परंपरा से ग्रहण किया है. भारतभूषण नीरज सोम ठाकुर रंग उर्मिलेश को सराहा है. उनके गीतों और पदों में यह झलक दीखती है.

राजकमल प्रकाशन से अभी-अभी आए उनके नए संग्रह 'फिर मेरी याद' के केवल दो माह में तीन संस्‍करण हो चुके हैं. जबकि इस किताब का औपचारिक विमोचन साहित्य आजतक के मंच पर प्रस्तावित है. गीत, मुक्‍तक और कविता के इस मिले जुले संग्रह में पिछले संग्रह के बाद की कुमार की वे सारी रचनाएं संग्रहीत हैं जो वे अक्‍सर मंच पर गाते गुनगुनाते रहते हैं. अचरज नहीं कि वे खुद कहते हैं, '' जिनके लिए जीना केवल जीते रहने ही अनिवार्यता है, उनकी तो नहीं कह सकता पर युग की नियमित ताल से असंगत हम जैसे लोगों के लिए हर सांस एक कौतूहल भरा ईश्‍वरीय पुनर्स्‍मारक है.

तालियों, शालों-दुशालों और आह वाह के इस नियमितशोर के बाहर खड़ा हुआ मैं खुद को अक्‍सर स्‍कूल की आखिरी घंटी का इंतजार करते पाता हूं, जैसे लकड़ी की टिकटी में बंधी मुर्दा पीतल पर पहली थाप पड़ते ही पैरों को पंख बनाकर उड़ चलूंगा....कहां किस ओर...सच में नहीं पता.''

कुमार विश्‍वास ने अपने जीवन को गान में ढाल लिया है. सुख दुख के हर लम्‍हे को गुनगुनाना सीख लिया है. वे जब राजनीति के मंच पर नही आए थे तो गीत लिखा करते थे, पद लिखा करते थे, उनमें आकुलता होती थी, हिय की पीर होती थी. राजनीति के मंच पर आए तो सुरों में सियासत की खुनक भी उठी. सत्‍ता परिवर्तन के गीत भी लिखे. सत्‍ता का अंश हुए तो फिर सम पर लौटे. सत्‍ता से दो चार हुए और सियासत की असली औकात और भीतरी निर्मम चेहरा देखा तो तमतमाए भी. उसकी छाया भी उनके गीतों मुक्‍तकों पर पड़ी. प्राय: हर कवि स्‍वभाव से ही देशप्रेमी होता है. यह जज्‍़बा कुमार के स्‍वभाव में भी है हालांकि उन्‍होंने पाया होगा कि हर एक के भारत मां की जय कहने का अपना अपना एजेंडा भी है.

सियासत में तो हर एक की भारत मां भी जैसे उसकी अपनी हैं. वह भारत मां की लज्‍जा बचाने को ऐसे आतुर दिखता है जैसे लज्‍जित होती द्रोपदी सी भारत मां की लाज बचाने के लिए ही उसका अवतरण हुआ है. ऐसे सतही भारत माता की जय के कोरस में कवि का मन हर वक्‍त सियासती नहीं हो सकता है. वह दुखी होता है, खिन्‍न होता है. ऐसे अहसास और खिन्‍नता के गीत और मुक्‍तक भी कुमार ने रचे हैं. उनका एक गीत पीछे बहुत लोकप्रिय हुआ:

होठों पर गंगा हो, हाथो में तिरंगा हो.
दौलत न अता करना मौला
शोहरत न अता करना मौला
बस इतना अता करना मौला
शम्‍मा ए वतन की लौ पर जब कुरबान पतंगा हो.
होठों पर गंगा हो, हाथो में तिरंगा हो.

कुमार का यह तीसरा संग्रह है जो जाहिर है उनकी लोकप्रियता के मद्देनजर लाया गया है. पर कुमार अपने गीतों की लीक, उसके मिजाज और अहसास से बहुत ज्‍यादा अलग नहीं हुए हैं. उन पर श्रृंगार के कवि होने का जो लेबल लगा है वह अभी तक कायम है. राजनीति पर यदा कदा कुछ छींटें वे जरूर उछालते हैं, पर गहरे राजनीतिक बोध के वे कवि नहीं हैं न होना ही चाहते हैं. पर हां सियासत में वे बागी होकर भी कवि सम्‍मेलनों के केंद्र में प्रतिष्‍ठित हैं.

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उनकी भीषण फ्रेंड फालोइंग है. उनके ट्वीट पर रिट्वीट्स की बरसातें होती हैं. उन्‍होंने कल क्‍या कहा, आज क्‍या  कहा, इस पर चर्चाएं होती हैं. वे खबरों की लीड बनती हैं. पर जिस सत्‍ता और सियासत के बीच उनके कवि का चेहरा कुछ दिनों दब गया था, वह अब पुन: पूरे कवि-स्‍वाभिमान के साथ वापस लौटा है. एक गीत में वह कहता है:

कुछ कहते हैं, मैं सीखा हूं अपने जख्‍मों को खुद सी कर
कुछ जान गए, मैं हंसता हूं भीतर भीतर आंसू पी कर
कुछ कहते हैं, मैं हूं विरोध से उपजी एक खुद्दार विजय
कुछ कहते हैं, मैं रचता हूं खुद में मर कर खुद में जी कर
लेकिन मैं हर चतुराई की सोची समझी नादानी हूं
लव कुश की पीर, बिना गाई सीता की राम कहानी हूं.

छंद कविता की देहरी की प्रथम सिद्धि है पर वह अन्‍यतम नहीं है. हमारी सारी कवि परंपरा प्राय: छंदों से ही रची बसी है. जो मात्रिक वर्णिक छंदों में सिद्ध न हुए वे भी आंतरिक लय की बात करते हैं. नई कविता के वैचारिक विन्‍यास में ऐसे कवियों का एक बड़ा संप्रदाय है. वे कविता का वेद रच रहे हैं जिसे भाष्‍य की जरूरत है. कुमार की कविता को किसी भाष्‍य की जरूरत नहीं है. वह एक सुगम लय की तरह मन में उतर जाती है. मघई पान की तरह कंठ में घुल जाती है. वह लाखों करोड़ों जनता को कविता में संस्‍कारित करती है. वह कविता सुनना और गुनना सिखाती है. उनके इस कौल करार को भला कैसे भूला जा सकता है?

सियासत में तेरा खोया या पाया हो नहीं सकता
तेरी शर्तों पे गायब या नुमायां हो नहीं सकता
भले साजिश से गहरे दफ्न मुझको कर भी दो, पर मैं
सृजन का बीज हूं मिट्टी में जाया हो नही सकता.

इस संग्रह में उनकी 'तेरी याद आती है', 'चुप रह नहीं सकते', 'तुमको सूचित हो' जैसी मुक्‍तकों की सीरीज भी है जो वे अक्‍सर सुनाते रहते हैं. यह कवि की-सी ही विकलता है जो उनसे कहलवाती है:

चंद सांसें खरीदने के लिए
रोज कुछ ख्‍वाब बेच देता हूं.

बस थोड़ा-सा सुस्‍ताए थे बच कर दुनियादारी से
एक पुराना ख्‍वाब मिला है आंखों की अलमारी से.

गीत, कविता, मुक्‍तक, क़ता और आजाद अशआर के इस संग्रह में कुमार विश्‍वास की सारी मुद्राएं मौजूद हैं. वे कविता में उस खोते हुए रसायन को फिर से जीवित करने की कवायद में जुटे हैं जो दिनोदिन हमारी जिन्‍दगी और कविता से गायब होता जा रहा है. वे सियासत में न होकर भी सियासत के ताल को अपने छंद से हिलकोरते रहते हैं. वे कवि हैं या नहीं, इस बहस में पड़े बिना यह कहना चाहूंगा कि ज़रा-सी कविता की एक छुवन से कुमार विश्‍वास जैसा शख्‍स पैदा हो सकता है जो सदियों की हमारी कवि परंपरा का अनुगायक है. वह कविता के केंद्र में हो न हो; वह आज लाखों लोगों के दिलों के ताजोतख्‍़त पर आसीन है जिसके लिए भाई एहतराम इस्‍लाम का यह पद कह देना लाजिमी होगा-

सुर्ख मौसम की कहानी है पुरानी हो न हो
आस्‍मां का रंग आगे आसमानी हो न हो
अब दिलों की सल्‍तनत का ताज़ मेरे सर पर है
अब सिंहासन हो न हो अब राजधानी हो न हो.

तो इस कविराज से मिलने का मौका. सीधे उन्हें सुनने और उनसे किताब हस्ताक्षरित कराने का मौका न चूकें. इससे पहले की देर हो जाए, साहित्य के सबसे बड़े महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2019 ' के लिए अभी रजिस्ट्रेशन कराएं. साहित्य का यह जलसा हर साल की तरह इस साल भी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में 1 नवंबर से 3 नवंबर को लग रहा है. साहित्य आजतक के लिए फ्री रजिस्ट्रेशन की शुरुआत हो चुकी है. जल्दी ही यहां दिए लिंक साहित्य आजतक 2019 पर क्लिक करें, और रजिस्ट्रेशन करा लें या फिर हमें 8512007007 नंबर पर मिस्ड काल करें.
 
# यह समीक्षा डॉ ओम निश्‍चल ने की है. वह हिंदी के सुपरिचित कवि गीतकार आलोचक एवं भाषाविद हैं. कविता, आलोचना, निबंध, संस्‍मरण व भाषिक विमर्श की कई पुस्‍तकें प्रकाशित. कविता के लिए हिंदी अकादमी के नवलेखन सम्‍मान, 'शब्‍दों से गपशप' के लिए उप्र हिंदी संस्‍थान द्वारा आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल आलोचना पुरस्‍कार से सम्‍मानित एवं विचारमंच, कोलकाता द्वारा समग्र साहित्‍यिक अवदान के लिए प्रो.कल्‍याणमल लोढा साहित्‍य सम्‍मान से विभूषित.
 ***
पुस्तकः फिर मेरी याद
कवि: कुमार विश्‍वास
विधाः कविता
प्रकाशनः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 199
पृष्‍ठः 175

# औपचारिक लोकार्पण, साहित्य आजतक 2019 के मंच पर

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