
किताब लाल श्याम शाहः एक आदिवासी की कहानी के लेखक सुदीप ठाकुर हैं. ये किताब यश पब्लिशर्स ऐंड डिस्ट्रीब्यूटर्स से प्रकाशित हुई है.
इसी महीने 12 तारीख को हजारों किसानों-आदिवासियों का काफिला पांच दिनों तक खामोशी से पैदल चलते हुए मुंबई पहुंचा. मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने उनकी मांगों को मानने का आश्वासन देकर उन्हें वापस कर दिया.
इसी तरह अब से 58 साल पहले कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन के वक्त करीब 40,000 आदिवासी जल, जंगल और जमीन पर अपने हक की मांग करते हुए पहुंचे थे, और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे मिलकर ऐसा ही आश्वासन दिया था.
आदिवासियों की मांग और बदले में आश्वासनों का लंबा इतिहास है. लेकिन आदिवासियों की तरह उनके नायकों और उनके संघर्ष का इतिहास भी उपेक्षित है. उन्हीं में से एक हैं लाल श्याम शाह, जो आदिवासियों के बीच किंवदंती बन चुके है.
करीब सौ साल पहले जन्मे शाह आज के राजनांदगांव जिले में जमींदारी रियासत मोहला-पानाबरस के जमींदार थे. चौकी से दो बार निर्दलीय विधायक और चांदा (अब चंद्रपुर) से एक बार सांसद चुने गए शाह ने 1964 में बस एक दिन संसद में बिताया और खिन्न होकर इस्तीफा दे दिया.
उन्होंने इस्तीफे में लिखाः ''हम आदिवासी ऐसे लोग हैं, जो अपने ही देश में शरणार्थी हैं." शाह ने आदिवासी बहुल सेंट्रल प्रॉविंस के इलाकों को अलग राज्य गोंडवाना का दर्जा देने की मांग अनसुनी होने पर कहा था, ''जब नए प्रदेश सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक आधार पर कायम किए जा रहे हैं, हमारी गोंडवाना प्रांत की मांग की उपेक्षा क्या घोर अन्याय नहीं है?"
1988 में उनके देहांत के 12 साल बाद छत्तीसगढ़ राज्य बना. तब राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 34 आदिवासियों के लिए आरक्षित थीं, जिनकी संक्चया अब घटकर 29 हो गई है! यानी एक बार फिर अन्याय!
पत्रकार सुदीप ठाकुर शाह के परिचय से पहले 22 जून, 1897 को लंदन में महारानी विक्टोरिया के शासन की हीरक जयंती की तस्वीर खींचने की कोशिश करते हुए ऐसे लगते हैं मानो आठ वर्षीय अर्नाल्ड टॉयनबी की नजरों से सारा मंजर देख रहे हों.
लेकिन इतिहासकार टॉयनबी ने उस बक्से को नहीं देखा होगा, जिसे तत्कालीन सेंट्रल प्रॉविंस में चांदा जिले के डिप्टी कमिशनर स्टेनली डब्ल्यू कॉक्सन ने भेजा था. स्टेनली के हवाले से वे उस जमाने के समाज और फिर शाह की कहानी बयान करते हैं.
ठाकुर ने पूरी कहानी अलग-अलग अध्यायों में बांटकर बताई है. लेकिन इसमें कोई कल्पना नहीं है क्योंकि उन्होंने तथ्यों को जुटाने के लिए पुराने दस्तावेज, गजट, अखबार, विधानसभा और संसद के रिकॉर्ड खंगाले हैं, इलाके में घूम-घूमकर लोगों से बात की है, शाह के रिश्तेदारों-परिचितों से मिलकर गहन शोध किया है.
इस इलाके के भूगोल, इतिहास और समाज से भली-भांति वाकिफ ठाकुर दरअसल शाह की कहानी बताते हुए परोक्ष रूप से आदिवासियों के राजनैतिक-सामाजिक संघर्ष की भी कहानी बयान कर देते हैं, जो काफी दिलचस्प है.
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