
बिहार कांग्रेस में फूट की चर्चा आजकल जोरों पर है, लेकिन उससे ज्यादा चर्चा अब इस बात को लेकर होने लगी है कि क्या बिहार कांग्रेस को लालू प्रसाद यादव चला रहे हैं? ये बात इसलिए उठी क्योंकि बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती के अवसर पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, जिसके मुख्य अतिथि आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव थे.
कांग्रेस नेताओं को नहीं पची लालू की सलाह
इस कार्यक्रम को प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने सपोर्ट किया था. मुख्य अतिथि के तौर पर बोलते हुए लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस के नेताओं से कहा कि वो आपस में झगड़ना छोड़े और पार्टी के लिए मिलजुल कर काम करें. लालू यादव ने बात तो अच्छी कही, लेकिन कुछ कांग्रेसी नेताओं को ये अच्छा नहीं लगा. उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव को क्या जरूरत थी कांग्रेस के अंदरूनी मामलों में दखल देने की.
20 सालों से है कांग्रेस में लालू का दखल!
हालांकि ये कहने वाले शायद ये नहीं जानते कि बिहार कांग्रेस में आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का दखल आज से नहीं है, बल्कि 20 सालों से लगातार चल रहा है. अगर पिछला इतिहास देखा जाये तो बिहार में कांग्रेस के पतन का यह प्रमुख कारण भी रहा है. 1990 में लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस से लड़कर उससे सत्ता छिनी थी, लेकिन कांग्रेस की तरफ से उस सत्ता के गौरव को पाने की एक भी कोशिश इन 27 सालों में नहीं हुई. यही वजह है कि कांग्रेस यहां लगभग पंगु बन के रह गई है.
27 साल पहले बिहार में मुख्य विपक्षी दल थी कांग्रेस
इस मामले को समझने के लिए हमें 27 साल पहले जाना पड़ेगा. 1990 में कांग्रेस बिहार में विधानसभा का चुनाव हार गई. पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व में एक मजबूत विपक्ष के तौर पर कांग्रेस विधानसभा में 72 विधायकों के साथ मौजूद थी. लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे. 1990 से 1995 का दौर बिहार में सामाजिक परिवर्तन का दौर माना जाता है क्योंकि पहली बार पिछड़ी जातियों की भागीदारी सत्ता में प्रचुर मात्रा में थी.
लालू मजबूत होते गए... कांग्रेस कमजोर
इस दौरान कांग्रेस ने अपनी प्रगति के लिए खोई हुई गरिमा को वापस पाने का कोई प्रयास ही नहीं किया. इस दौर में देखा जाये तो शुरू में कमजोर मुख्यमंत्री के तौर पर आंके जाने वाले लालू प्रसाद यादव दिन प्रतिदिन मजबूत होते गए और कांग्रेस दिन प्रति दिन कमजोर.
कांग्रेस की कमजोरी का ये आलम हो गया है कि अब उसे बिहार में राजनीति करने के लिए सहारे की जरूरत पड़ने लगी है. 1995 की विधानसभा में सीट घट कर 29 हो गई और 1996 के लोकसभा में समता पार्टी और बीजेपी के मजबूती से उभरने की वजह से लोकसभा में भी उसकी हालत पतली होने लगी.
जब सीताराम केसरी ने मिलाया लालू से हाथ
1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बिहार की 54 सीटों में से केवल 3 सीटें ही जीत पाई थी. यह पार्टी के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति थी, लेकिन 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी ने पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. 1998 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस और आरजेडी ने मिलकर लड़ा.
1999 में हास्यास्पद हुई कांग्रेस की हालत
संयुक्त बिहार की 54 सीटों में लालू प्रसाद यादव ने केवल 8 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी. यही से कांग्रेस का प्रभाव तेजी से कम होने लगा. इन 8 सीटों में से कांग्रेस को चार पर जीत मिली, लेकिन 1999 के लोकसभा चुनाव में तो हद ही हो गई जब कांग्रेस ने 13 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से 8 पर आरजेडी से समझौते के तहत और 5 पर फ्रेंडली लड़ाई हुई. लेकिन जीत मिली सिर्फ 2 पर. अब इससे कांग्रेस की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता था. अबतक लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाले का आरोप लग चुका था, सीबीआई ने जांच शुरू कर दी थी.
साल 2000 में अकेले लड़ी कांग्रेस
इस अपमानजनक स्थिति के बाद कांग्रेस में फिर से स्वाभिमान जगा और 2000 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया. तर्क ये दिया गया कि लालू प्रसाद यादव भ्रष्ट हैं उन पर घोटाले का आरोप है. इससे पहले कांग्रेस चारा घोटाले का आरोप लगने के बावजूद 1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव लालू प्रसाद यादव के साथ मिलकर लड़ी थी. खैर 2000 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 23 सीटें जीती.
लालू के भ्रष्टाचार को ना, राबड़ी सरकार में हिस्सेदार
राबड़ी देवी के नेतृत्व में सरकार बनी तो कांग्रेस उसी सरकार में शामिल हो गई जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर चुनाव लड़ा था. 2004 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने आरजेडी और राम विलास पासवान के साथ मिलकर लड़ा था, जिसमें कांग्रेस ने 4 सीटें जीती. केन्द्र में यूपीए की सरकार बनी. लेकिन बिहार से आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का ही वर्चस्व रहा.
लालू के साथ पासवान बने नए साथी
2005 में बिहार में दो बार विधानसभा के चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस की रणनीति देखिए उसने दोनों बार अलग अलग गठबंधन से चुनाव लड़ा. एक बार रामविलास पासवान की पार्टी लोकजनशक्ति के साथ गठबंधन किया तो दूसरी बार लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी से. जिसमें 10 सीटें कांग्रेस के हिस्से आई. नीतीश कुमार ने बीजेपी के सहयोग से बिहार में एनडीए की सरकार बनाई.
लालू और पासवान ने दी सिर्फ 4 सीटें!
उसके बाद की कहानी का क्या कहना 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए सरकार में रहते हुए लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने कांग्रेस को केवल 4 सीटें दी. कांग्रेस में थोड़ा स्वाभिमान जगा उसने इसे लेने से इंकार कर दिया. कांग्रेस उस चुनाव में अकेले दम उतरी और 2 सीटें जीत ली. 2010 का विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस ने अकेले लड़ा तब उसे 4 सीटें मिली.
फिर 2014 में कांग्रेस आलाकमान को लगा कि अकेले चल नहीं सकते. तो फिर लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. इस बार गठबंधन के तौर पर कांग्रेस को 12 सीटें मिली जिनमें 2 सीटों पर कांग्रेस ने विजय पाई. 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी कांग्रेस के साथ-साथ नीतीश कुमार की पार्टी भी महागठबंधन में शामिल हुई तब कांग्रेस को 41 सीटें लड़ने को मिली तब उसने 27 सीटों पर जीत पाई जो 1995 के बाद सबसे ज्यादा सीटें थी.
'जब चाहा, जैसे चाहा, कांग्रेस को इस्तेमाल किया'
ये है कांग्रेस के पिछले 27 सालों का लेखा जोखा. इसमें ये जानना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस पर लालू प्रसाद यादव का कितना प्रभाव रहा है. लालू प्रसाद यादव ने जब जब चाहा जैसे चाहा कांग्रेस का इस्तेमाल किया. कोशिश कांग्रेस की तरफ से भी हुई लेकिन उन कोशिशों की वजह से कांग्रेस कई बार एक्सपोज हो गई. जैसे 2000 का विधान सभा चुनाव.
लालू के खिलाफ चुप्पी साधे रही कांग्रेस
1990 से लेकर 1995 तक कांग्रेस बिहार की प्रमुख विपक्षी दल थी, लेकिन उस दौरान कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव के खिलाफ कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया. वो मंडल कमंडल के दौर में कहीं एक कोने में खड़ी रही. कांग्रेस ने विरोध प्रदर्शन तक नहीं किया न किसी मुद्दे पर बिहार बंद का ऐलान किया.
नतीजा ये हुआ कि 1995 में बीजेपी बिहार में प्रमुख विपक्ष दल बन के उभरी और बाद में नीतीश कुमार के साथ सत्ता पर काबिज हुई. ऐसे में ये सवाल तो बिल्कुल बेमानी है कि लालू प्रसाद यादव बिहार कांग्रेस को चला रहे हैं. क्या अभी भी कोई शंका है?