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तेंदुए के आगे बेबस हुआ एक शहर...

एक तरफ एक शहर के 18 लाख लोग और दूसरी तरफ एक भटका हुआ तेंदुआ, जिसने पूरे शहर को घरों में कैद कर दिया है. क्या पुलिस, क्या सेना, क्या वन विभाग और क्या आम लोग, सभी उसकी तलाश में हैं. पर वो है कि एक झलक दिखाता है और फिर गायब.

तेंदुआ तेंदुआ
aajtak.in
  • मेरठ,
  • 26 फरवरी 2014,
  • अपडेटेड 5:10 AM IST

एक तरफ एक शहर के 18 लाख लोग और दूसरी तरफ एक भटका हुआ तेंदुआ, जिसने पूरे शहर को घरों में कैद कर दिया है. क्या पुलिस, क्या सेना, क्या वन विभाग और क्या आम लोग, सभी उसकी तलाश में हैं. पर वो है कि एक झलक दिखाता है और फिर गायब. अब सवाल यह है कि आखिर अपना घर छोड़कर यह तेंदुआ इंसानों की बस्ती में क्यों और कैसे आया? तो आइए यह सच भी जान लीजिए...

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कुदरत के बनाए निजाम के खिलाफ जब-जब कोई गया, तब-तब कुछ ऐसा ही हुआ. कहते हैं कि क़ुदरत कभी भी किसी को परेशान नहीं करती. लेकिन ये बस तब तक सही है जब तक आप उसे छेड़ें नहीं. मेरठ के दामन में ख़ौफ़ के जो मंज़र इधर-उधर बिखरे पड़े हैं. वो दरअसल सालों से क़ुदरत के साथ की जा रही लागातार छेड़छाड़ का नतीजा हैं. कोई ख़ामोश रहे और कुछ न कहे, तो इसका मतलब यह नहीं कि वो कमज़ोर है. मगर लालची ठेकेदारों को ये कहां पता था. लेकिन मान लीजिए कि अगर उन्हें इसका पता भी होता, तो शायद वो इसे ज़ाहिर नहीं करते, क्योंकि लालच उन्हें ऐसा करने नहीं देती. कुल मिलाकर मेरठ में पिछले 48 घंटे से जो कुछ हो रहा है, वो पिछले कई सालों की इंसानी लापरवाहियों और लालच का ही नतीजा हैं.

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करीब 35 लाख वाली पूरे मेरठ जिले की आबादी का 51 फीसदी हिस्सा पहले गांव में बसता था. लेकिन तरक्की और शहरीकरण के नाम पर जंगलों को काट-काट कर सीमेंट और कंक्रीट का ऐसा जंगल तैयार किया गया कि गांव की वही 51 फीसदी आबादी भी उठकर शहर में आ गई. जाहिर है इंसानी घरों को बसाने के चक्कर में जंगल में रहने वाले जानवर अपने ही घर से बेघर होते गए. नतीजा हम सबके सामने है. ऐसे जानवर अब जब-तब भटकर कर हम इंसानों की बस्ती में चले आते हैं. यहीं से कुदरत का निजाम बिगड़ जाता है, क्योंकि कुदरत ने इंसानों के लिए अलग और जानवरों के लिए अलग बस्ती बनाई थी. पर हम इंसानों ने जानवरों की बस्ती पर भी कब्जा कर लिया.

कहने वाले कह रहे हैं कि मेरठ को सिर पर उठा लेने वाला ये तेंदुआ जंगलों की कटाई की वजह से नहीं, बल्कि जिम कार्बेट से निकलकर आ गया है. लेकिन वो ये नहीं बता पा रहे कि करीब डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी तय कर तेंदुआ मेरठ कैसे आ सकता है. रास्ते में और भी बस्तियां थीं वहीं रुक जाता.

ज़ाहिर है सच्चाई ये नहीं है, बल्कि सच ये है कि एक पूरे शहर पर हावी ये खौफ लापरवाह सरकारी और सामाजिक दोहन की वजह से हावी है. मेरठ के इन इलाकों में पिछले दस-बीस सालों में विकास और शहरीकरण के नाम पर हर तरह की दुकानें खुल गई हैं. मनमाने तरीके से यहां ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त हो रही है. अंधाधुंध इंमारतें खड़ी हो रही हैं. ये सब कुछ हो रहा है हरियाली और जंगलों को कुचलकर. नतीजा सामने है. जिनकी बस्ती इंसानों ने छीन ली, वही जब हम इंसानों की बस्ती में भटककर आ गया तो पूरा शहर सहम गया है.

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वैसे शायद मेरठ के लोगों को तेंदुए के खौफ से पहले ही छुटकारा मिल सकता था, अगर वन विभाग के लोगों ने अपना काम ठीक से किया होता. तेंदुआ लगभग उनकी गिरफ्त में आ चुका था. तेंदुए को बेहोश करने के लिए ट्रेंक्यूलाइजर के इस्तेमाल का भी मौका मिला था. मगर कमाल देखिए कि फिर भी तेंदुआ पूरी तरह से बेहोश नहीं हुआ.

लोग अब भी कहीं लाठी-डंडे से लैस, तो कहीं एसएलआर राइफल और एके 47 के साथ जवान उसे तलाश रहे हैं. खबर है कि तेंदुआ अब भी शहर में छिपा हुआ है. पर कहां, किसी को पता नहीं. हां, आखिरी खबर जो मिली है, उसके मुताबिक मंगलवार दोपहर को उसके पंजों के निशान पुठ गांव में देखे गए हैं. इसी खबर के बाद पुलिस-प्रशासन अब पुठ गांव में तेंदुए की खाक छान रही है.

हालांकि मंगलवार को शहर के स्कूल-कॉलेज खुले. लेकिन डर का आलम यह था कि मां-बाप खुद स्कूल के गेट पर खड़े रहे, जब तक कि छुट्टी नहीं हो गई. तेंदुए की दहशत का अंदाजा आप सिर्फ इसी से लगा सकते हैं कि कई जगह लोग कुत्तों को तेंदुआ समझ कर भाग खड़े हुए. ज़ाहिर है जब तक तेंदुआ पकड़ नहीं लिया जाता, मेरठ के लोग चैन की नींद नहीं सो पाएंगे.

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