
भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) के देहरादून स्थित क्षेत्रीय केंद्र ने 13 जून को समय रहते ही चेतावनी दे दी थी. मौसम विभाग की भविष्यवाणी थी, ‘उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों में अगले 48 से 72 घंटों के भीतर भारी या बहुत भारी बारिश हो सकती है.’ दिल्ली या देहरादून में आपदा प्रबंधन का काम करने वाली किसी भी एजेंसी ने इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया. नतीजतन 16 जून की रात उत्तराखंड में जब अचानक बादलों के फटने से विनाश लीला शुरू हुई तो देश के आपदा प्रबंधक सो रहे थे.
इसके पहले भी विनाश की चेतावनियां दी जा चुकी थीं. अक्तूबर, 2012 में उत्तराखंड के आपदा शमन एवं प्रबंधन केंद्र (डीएमएमसी) ने राज्य के कैबिनेट को 48 पन्नों की एक रिपोर्ट भेजी थी. अगस्त, 2012 में आकस्मिक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं के बाद अस्सी गंगा घाटी में जांच्य शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में उत्तरकाशी में अपेक्षाकृत छोटी आपदा की पड़ताल की गई थी. उस आपदा में भारी बारिश और आकस्मिक बाढ़ से वाहनों की आवाजाही वाले और पैदल पार करने वाले पुल बह गए थे, जिससे गंगोत्री घाटी दुनिया के बाकी हिस्सों से कट गई थी. उस तबाही में 85 गांव प्रभावित हुए थे और 500 से ज्यादा लोग ऋषिकेश-गंगोत्री राजमार्ग के विभिन्न हिस्सों में फंस गए थे. 29 लोगों की मौत हो गई थी और करीब 2,000 लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे. इस रिपोर्ट में इस तरह की आपदा को रोकने के उपायों की सिफारिश की गई थी. इसमें वायु सेना के एमआइ-17 हेलीकॉप्टरों से फंसे हुए ग्रामीणों को बचाने की तस्वीरें भी दिखाई गई थीं. रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि भविष्य में इससे भी बड़ी आपदा आ सकती है, लेकिन इस पर किसी तरह का एहतियाती कदम नहीं उठाया गया.
नई दिल्ली में नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) के भव्य दफ्तर में उपाध्यक्ष एम. शशिधर रेड्डी ने मौसम विभाग की 13 जून वाली चेतावनी को सामान्य बुलेटिन मानते हुए खारिज कर दिया. वे आंध्रप्रदेश में कांग्रेस के विधायक हैं और उन्हें एनडीएमए में अपने पद की वजह से कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला हुआ है. इस मृदुभाषी नेता ने कहा, ‘यह किसी भी नियमित रिपोर्ट जैसी ही थी. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि हम तुरंत सक्रिय हो जाते.’
इस अथॉरिटी का गठन 2005 में किया गया था. इसका काम है आपदा की तैयारी में देश को तत्पर करना. उत्तराखंड की आपदा के समय इस एजेंसी की तैयारी इतनी कम थी कि हादसे के नौ दिन बाद इसे हड़बड़ी में हांगकांग से 25 सैटेलाइट फोन मंगाने पड़े. और वह भी तब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो एनडीएमए के चेयरमैन भी हैं, ने इस मामले में दखल दिया. इसका गठन 2004 में आई सूनामी के बाद किया गया था, ताकि भविष्य में आपदा के समय होने वाले नुकसान को कम किया जा सके. उस सूनामी के समय किए गए उपाय संतोषजनक नहीं थे. लेकिन एक असरदार संस्था होने की बजाए इसमें रिटायर हो चुके नौकरशाहों (सदस्य के रूप में) को भर दिया गया, जिन्हें किसी केंद्रीय राज्यमंत्री के बराबर सुविधाएं और भत्ते मिलते हैं. इसे पैसे की कभी किल्लत नहीं हुई. एनडीएमए के पास काफी पैसे हैं. इसके पास 2010 से 2015 के लिए 33,580 करोड़ रुपये का बजट है. 2013-14 में इसे जागरूकता फैलाने के कार्यक्रमों और प्रशासकीय कार्यों के लिए 835 करोड़ रुपये दिए गए- जिसमें कर्मचारियों की मोटी तनख्वाह भी शामिल है. मोटी तनख्वाह के अलावा कर्मचारियों को दिल्ली के लुटियंस जोन में बंगला, ड्राइवर के साथ लाल बत्ती वाली गाड़ी, घरेलू नौकर, मुफ्त बिजली और फोन की सुविधा दी जाती है, लेकिन पैसा निकम्मेपन की भरपाई नहीं कर सकता.
बचाव कार्यों के बारे में सवालों के जवाब देते समय रेड्डी एकदम बेफिक्र लग रहे थे. आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चेन्ना रेड्डी के पुत्र शशिधर रेड्डी एनडीएमए के उपाध्यक्ष हैं और प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ अपनी निकटता साबित करने के लिए तरह-तरह के किस्से खुलकर सुनाते हैं. वे पूर्वी उत्तर प्रदेश में जापानी एन्सेफलाइटिस महामारी से निपटने के लिए चलाए गए ‘बेहद कामयाब कार्यक्रम’ का जिक्र करते हैं. वे बताते हैं, ‘राहुल जी इस बारे में बहुत परेशान थे, इसलिए हमने यह काम हाथ में लिया.’ उनकी मेज पर भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की वह रिपोर्ट पड़ी है जिसमें तैयारी की कमी के लिए एनडीएमए की कड़ी आलोचना की गई है. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, ‘मुझे खुशी है कि सीएजी ने एनडीएमए के कामकाज की समीक्षा की. कम-से-कम इसके बारे में चर्चा तो हो रही है. शायद अब कोई हमारी जरूरतों पर ध्यान देगा.’
एनडीएमए की चाल से ज्यादा गौर करने लायक राज्य सरकार का रुख था. 15 जून को जब भारी वर्षा शुरू हुई, उसी शाम देहरादून में मंत्रिमंडल की बैठक थी. राज्य के एक मंत्री का कहना था, ‘वर्षा का कोई जिक्र नहीं हुआ और मौसम विभाग ने भी कोई चेतावनी नहीं दी थी.’ पहले से कोई तैयारी या योजना नहीं थी. मिसाल के तौर पर लोगों को हरिद्वार और ऋषिकेश में ही आगे जाने से रोका जा सकता था. राज्य के मुख्यमंत्री ने 19 जून को अपनी नाकामी के बचाव में कहा, ‘हमने सभी सरकारी उड़ानें बंद कर दी थीं. पर हम उन एक लाख लोगों की चाल कैसे रोक सकते थे जो वहां पहुंच चुके थे और स्थानीय आबादी का क्या होता जिनकी रोजी- रोटी चार धाम यात्रा से जुड़ी है.’
असली तबाही अगले दो दिन में यानी 16 और 17 जून को हुई पर राज्य सरकार ने सेना और अर्धसैनिक बलों की मदद नहीं ली जो बचाव कार्य चलाने में सबसे अधिक सक्षम हैं. राज्य के एक विधायक का कहना है, ‘सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सशस्त्र सीमा बल, राष्ट्रीय आपदा कार्रवाई बल (एनडीआरएफ), सीमा सड़क संगठन, सब उत्तराखंड में तैनात हैं, पर उनसे कोई मदद नहीं मांगी गई.’ राज्य से सांसद केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने 17 जून की शाम को रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी से बात की, तब कहीं जाकर सेना और दूसरे सैन्य बलों को बचाव कार्य में लगाया गया. वायु सेना ने 18 जून को बचाव का काम शुरू कर दिया, लेकिन जिन अधिकारियों को तैनात किया गया उनके साथ तालमेल के लिए राज्य का कोई प्रतिनिधि नहीं था. राज्य सरकार को देहरादून में हेल्पलाइन सेंटर बनाने में दो दिन लग गए और वह 19 जून को चालू हुआ. 20 जून को केदार घाटी में राहत सामग्री ले जा रहे प्राइवेट हेलिकॉप्टर के गिरने से पहली बार पता चला कि बिना तालमेल के कार्रवाई में कितना जोखिम है. उस खतरनाक इलाके की सही जानकारी के बिना तंग घाटियों में हेलिकॉप्टर दिन में कई उड़ानें भर रहे थे. इस दुर्घटना के बाद ही गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तालमेल में खामी स्वीकार की और पूर्व गृह सचिव तथा एनडीएमए के सदस्य वी.के. दुग्गल को 21 जून को राहत और बचाव कार्य में तालमेल की जिम्मेदारी सौंपी. यह फैसला बहुत देर से हुआ.
अब उत्तराखंड सरकार ध्वस्त इलाकों से फिर संपर्क जोडऩे की जी-तोड़ कोशिश कर रही है. उसे अफसोस होना चाहिए कि उसने डीएमएमसी की रिपोर्ट को गंभीरता से नहीं लिया. राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में डीएमएमसी की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि नदी धाराओं के निकटवर्ती इलाकों में निर्माण कार्य पर कड़ी रोक लगाई जाए. इस संस्था के पूर्व कार्यकारी निदेशक पीयूष रौतेला ने कहा था, ‘इस काम के लिए इलाके का विस्तृत सर्वेक्षण होना चाहिए और खतरे की अधिक आशंका वाले क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए.’ डीएमएमसी का मुखिया राज्य का प्रमुख सचिव होता है. संस्था की सलाह के बावजूद ऐसे क्षेत्रों के बारे में कोई विस्तृत सर्वेक्षण नहीं किया गया.
उत्तराखंड सरकार का रिकॉर्ड बहुत खराब है. आपदाओं से निबटने की तैयारी और सूझबूझ दिखाने में वह बार-बार नाकाम रही है. राज्य सरकार नैनीताल और मसूरी में दो डॉपलर रडार लगाने के लिए मौसम विभाग को जमीन नहीं दे सकी है. केंद्र सरकार ने अमेरिका के वेदर डिटेक्शन सिस्टम्स से 12-12 करोड़ रु. में 12 डॉलपर रडार खरीदे थे, जिनका मकसद आपदाओं के बारे में पहले से चेतावनी देने वाले संकेतकों को मजबूत करना है. इनमें दो डॉपलर रडार 2008 में उत्तराखंड के लिए स्वीकृत किए गए. इनसे बादल के बनने के साथ-साथ इस बारे में भी पक्की सूचना मिलती है कि एक घंटे में कितनी मिलीमीटर बारिश होगी.
उत्तराखंड सरकार तो राज्य में एनडीआरएफ की एक बटालियन तैनात करने के लिए एनडीएमए को जमीन देने में भी आनाकानी करती रही है. इस बल की 10 बटालियन देश में आपदा की आशंका वाले अलग-अलग इलाकों में तैनात हैं. एनडीएमए ने सुझाव दिया था कि एक बटालियन राज्य में भी तैनात की जाए क्योंकि यहां चट्टानें कमजोर होने के कारण चट्टानें गिरने, बाढ़ और भूकंप आने का खतरा रहता है. गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने माना, ‘यह बल बचाव और राहत कार्यों के लिए ही बना है पर इसके सदस्यों को खास किस्म की ट्रेनिंग नहीं मिलती.’
उत्तराखंड की इस त्रासदी के बाद एनडीएमए विशेष ट्रेनिंग संस्थान के लिए मंजूरी लेने की सोच रहा है. इस तरह का एक विशेषज्ञ बल गठित करने का प्रस्ताव लालफीताशाही के जाने-पहचाने के शिकंजे में फंस गया है. 2011 में सिक्किम में भूकंप आने के समय एनडीआरएफ की सबसे नजदीकी बटालियन कोलकाता में थी. उसके एक सदस्य का कहना है, ‘इस बटालियन ने भूकंप आने से सिर्फ दो महीने पहले इस इलाके से परिचित होने का अभ्यास किया था, लेकिन वह बचाव कार्य के लिए उड़ान नहीं भर सकी. उसकी जगह दिल्ली से एक बटालियन भेजी गई.
एनडीएमए को कम-से-कम आपातस्थिति में तो विमान किराए पर लेने का अधिकार होना चाहिए.’ लेकिन जानकार सूत्रों का कहना है कि सवाल सिर्फ विमान किराए पर लेने के अधिकार का नहीं है. एनडीएमए को अपने कर्मचारियों को इस तरह के कामों के लिए संगठित करने में माहिर एक व्यक्ति की भी जरूरत है. कर्मचारियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का फैसला करने वाला भी इस संगठन में कोई नहीं है.
रेड्डी ने साफ तौर पर माना कि एनडीएमए अभी खड़ा हो रहा है, ‘हमें सभी आपदाओं से सबक सीखने हैं. हमारी कोशिश सभी तरह की आपदाओं से निबटने के लिए बेहतर तैयारी करने पर केंद्रित है.’ एनडीएमए भूकंप की स्थिति से निबटने के लिए बेहतर तैयारी के बारे में एक बड़े जागरूकता अभियान की योजना बना रहा है. उसने देशभर में इस बारे में अभ्यासों (मॉक ड्रिल) का आयोजन भी किया है. एनडीएमए के अनुसार, भूकंप के खतरों से निबटने की तैयारी बेहद कमजोर है. मौसम के पूर्वानुमान की तरह भूकंप पूर्वानुमान भी अभी सटीक नहीं है और इसकी तकनीक विकसित हो रही है. भारत ने 2002 से भूकंपीय खतरों के अनुरूप भवन निर्माण के नियम में संशोधन नहीं किया है. गगनचुंबी इमारतों को भूकंप से बचाने के लिए अभी तक कोई नियम नहीं हैं. एनडीएमए 2013-14 में पूर्वोत्तर राज्यों में जागरूकता और जानकारी का स्तर बढ़ाने पर ध्यान देने जा रहा है. शशिधर रेड्डी का कहना है, ‘हिमालय पट्टी में पहले से भूकंप आते रहे हैं. 1905 में कांगड़ा के भूकंप में 20,000 लोग मरे थे. 1897 में शिलांग में भूकंप आया था. भूकंप विज्ञानी चेतावनी दे रहे हैं कि अगले दो से तीन वर्षों में किसी भी समय रिक्टर पैमाने पर आठ से अधिक तीव्रता का बड़ा भूकंप आ सकता है. बादल फटने की इस घटना से हुई तबाही से कहीं बड़ी त्रासदी से बचने के लिए हमें तैयार रहना होगा.’
ये शब्द तब तक खोखले रहेंगे जब तक संस्थाएं और तंत्र कारगर ढंग से काम नहीं करते. विनाशकारी सूनामी के आठ साल बाद ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिनसे पता चले कि भारत की आपदा प्रबंधन प्रणालियों में कोई बदलाव आया है, जबकि ऐसा होना चाहिए था. -साथ में कुमार अंशुमन