
उनके जितने भी दावे, खुलासे और आरोप हैं, साथ ही इंडिया टुडे समूह से दो बार बातचीत है, उनसे बस एक बात साबित होती है कि ऊपर दी गई तमाम संज्ञाओं का कुछ अंश उनके भीतर जरूर है. इसीलिए यह सवाल पूछा जाना कहीं बेहतर होगा कि आखिर बेहतर क्या है? ललित (पहला नाम इसलिए ताकि प्रधानमंत्री से उन्हें अलग बरता जा सके, इसलिए नहीं कि हम दोस्त हैं) की निगाह में दोस्त होना या दुश्मन? या और कायदे से पूछें तोः दोनों में कौन-सा ज्यादा बुरा होगा?
उनकी दोनों दोस्तों, सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे से यह सवाल पूछकर देखिए, जिन्हें बीजेपी की आला नेता माना जाता है और भविष्य में बड़े पद की दावेदार भी माना जा रहा था. अब वे बचेंगी या नहीं, इस सवाल से इतर एक बात तो सच है कि ललित के साथ दोस्ती ने उन्हें स्थायी नुक्सान पहुंचाया है. यह सवाल आप ललित के दुश्मनों से भी पूछ सकते हैं, चाहे वे क्रिकेट जगत से हों (अरुण जेटली, राजीव शुक्ला, एन. श्रीनिवासन) या फिर राजनीति से (प्रणब मुखर्जी, उनकी विश्वस्त सहयोगी ओमिता पॉल और यहां तक गांधी परिवार भी). उनके मीडिया के दुश्मनों से भी यह सवाल पूछा जा सकता है, खासकर टाइम्स समूह के विनीत जैन और प्राइम टाइम के जज तथा दंडाधिकारी अर्णब गोस्वामी से. ललित आग उगल रहे हैं और हर कोई झुलसा जा रहा है, अलबत्ता टीवी के परदे पर ही सही. आप इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं कि हर कोई, राजे और स्वराज भी, उन्हें कोस रहा होगा. दोस्तों ने छोड़ दिया, दुश्मन कोस रहे हैं. इसके बावजूद ललित ने 15 दिनों की अपनी शोहरत के दौरान उस एक महत्वाकांक्षा को बेशक साकार कर डाला है जो मेरे ख्याल से उनके दिल के कोने में कहीं सुलग रही थीः यह महत्वाकांक्षा उन क्रिकेटरों से कहीं ज्यादा मशहूर होने की है, जिन्हें उन्होंने आइपीएल शुरू करके इतना धनी बना दिया है.
उन्होंने दोस्तों और दुश्मनों को एक साथ नुक्सान सिर्फ इसलिए नहीं पहुंचाया है क्योंकि वे मूर्ख हैं. आत्मघाती तो वे बिल्कुल नहीं हैं. इसके तीन कारण हैं. पहली बात, वे भारत की सियासत को बिल्कुल नहीं समझते और उसकी परवाह भी नहीं करते. दूसरे, उनके सारे फैसले उनके अहं से पैदा होते हैं. तीसरा और सबसे अहम कारण वह चीज है जिसके बारे में वे कुछ नहीं कर सकते? वह बीसीसीआइ है, जो भारतीय क्रिकेट के शेयरधारकों की एक जेबी कंपनी है. अगर मैं पुरानी धारा का पत्रकार होने की बजाए एक आधुनिक टिप्पणीकार होता तो मैं चाहता कि इस कंपनी पर माफिया का कब्जा हो. ऐसा इसलिए नहीं कि यह संस्था कोई अपराधियों, ठगों या उठाईगीरों का समूह है. इसने वास्तव में भारतीय और विश्व क्रिकेट का काफी भला किया है. मैं तो सिर्फ इसके कहीं ज्यादा कुख्यात संस्करण फीफा से सबक ले रहा हूं, जहां माफिया का राज चलता हैः खासकर ओमेर्ता का प्रकरण हमें याद दिलाता है कि यहां किसी भी बागी को बर्बर तरीके से खत्म कर दिया जाता है. यह कलियुग का एक चक्रव्यूह है. इसे तोड़ पाना मुश्किल है. अगर तोड़ भी दिया तो सुरक्षित निकल आना नामुमकिन है, बशर्ते ललित खुद को इसका अपवाद साबित कर दें.
बीसीसीआइ की सियासत कहीं ज्यादा जटिल है, या कहें आसान है. यह इस पर निर्भर करता है कि आप किस कोण से उसे देख रहे हैं. इसे भारतीय राजनीति का वह गुण इतना जटिल बनाता है जहां सिर्फ धड़ों में बंटी राजनीति ही कारगर होती है. दुनिया की नजरों में एक दूसरे के दुश्मन गिने जाने वाले शरद पवार, नरेंद्र मोदी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अनुराग ठाकुर (धूमल), सी.पी. जोशी, अमित शाह, अरुण जेटली, फारूक अब्दुल्ला, लालू यादव, राजीव शुक्ल, यहां तक कि क्षेत्रीय सियासी खानदानों की तीसरी पीढ़ी के लोग जैसे बोर्ड के मौजूदा उपाध्यक्ष अनिरुद्ध चौधरी (स्वर्गीय बंसीलाल के पोते), ये सब बीसीसीआइ की छतरी तले एक-दूसरे के अनन्य दोस्त बन जाते हैं. मेरे दोस्त तथा द इकोनॉमिस्ट के भारत में पूर्व ब्यूरो प्रमुख जेम्स एस्टिल ने अपनी शानदार पुस्तक द ग्रेट तमाशाः क्रिकेट, करप्शन ऐंड द टर्बुलेंट राइज ऑफ मॉडर्न इंडिया के लोकार्पण पर दिल्ली के ब्रिटिश काउंसिल में अरुण जेटली और राजीव शुक्ला के साथ एक संवाद सत्र संचालित करने के लिए आमंत्रित किया था. श्रोताओं की दिलचस्पी जगाने के लिए मुझे राजनीति से बेहतर मुद्दा नहीं मिला. यह बात 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले की है, इसलिए मैंने कहा कि चुनाव के परिणाम के बारे में कोई फैसला देने की मूर्खता तो मैं नहीं करूंगा लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि अगर एनडीए की जीत हुई तो राजीव शुक्ल ही आइपीएल के प्रमुख होंगे. कांग्रेस जीती तो अरुण जेटली इस पद पर आएंगे. हर कोई इस पर हंसा और शुक्ला या जेटली में से किसी ने भी कोई शिकायती टिप्पणी नहीं की.
क्रिकेट में आ रही राजनैतिक ताकत उसके लिए बहुत लाभकारी रही है. जहां तक पैसे की बात है तो आइपीएल से काफी पहले ही क्रिकेट में पर्याप्त पैसा आना शुरू हो गया था. यह इकलौता खेल है जिसके सामने कोई सरकारी चुनौती नहीं खड़ी हो पाती, चाहे वीजा का मामला हो, मंजूरियों का, स्टेडियमों के लिए भूमि आवंटन का या फिर पुलिसिया इंतजाम का मसला (सिवाए एक बार के जब 2009 में बतौर गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने आइपीएल को दक्षिण अफ्रीका का रास्ता दिखा दिया था क्योंकि वह आम चुनाव के साथ पड़ रहा था). यहां तक कि प्रसारकों के उपकरणों को ढोकर ले जाने के लिए भारतीय वायु सेना के चार्टर्ड विमान या घरेलू वाणिज्यिक उड़ानों की भी व्यवस्था हो जाती है. चाहे उनका समय बदलना पड़े या फिर अतिरिक्त उड़ानें जोडऩी पड़ जाएं. क्रिकेट भारत में एक ऐसा खेल बन गया है जिसमें इस खेल पर कब्जा रखने वाले लोगों ने अपने नाम से स्टेडियम बनवा दिए हैं और वे भी अपने जीते जी (वानखेड़े, डी.वाइ. पाटील, एम.ए. चिदंबरम, सहारा, शरद पवार) जबकि इनमें नेहरू-गांधी परिवार का कोई नहीं है जिन्हें देखने के हम आदी रहे हैं.
सियासतदानों की नजर पड़ने से पहले क्रिकेट का राजकाज चलाने वाले वे रईस और शाही लोग थे जो इस खेल से मुहब्बत करते थे. इनमें राजसिंह डूंगरपुर आखिरी शख्स थे क्योंकि सिंधिया घराने को हम शाही नहीं, राजनैतिक कुनबा मानते हैं. इसके बाद चार्टर्ड एकाउंटेंटों का दौर आया, जिनके बीच बीसीसीआइ पर राज करने वाले आखिरी लोगों में जगमोहन डालमिया और शशांक मनोहर रहे. दोनों अब भी मौजूद हैं और डालमिया को तो पुनर्जीवन भी मिल गया है, क्योंकि उन्होंने उसी शासक तबके के साथ समझौता कर लिया जिसके खिलाफ ललित आज लड़ रहे हैं और जिसने कभी उन्हें बर्बाद कर डाला था और यहां तक कि उनके खिलाफ गबन का आपराधिक मुकदमा भी दर्ज करवा दिया था. कुछेक नौकरशाह भी आए और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इनमें जैल सिंह के पूर्व सहयोगी और पंजाब के आइएएस अफसर आइ.एस. बिंद्रा एक थे.
क्रिकेट की सियासत की इस बदलती हुई तस्वीर में इसके बाद एक और दिलचस्प समूह का प्रवेश हुआ. कुछ मझोले आकार के लेकिन पर्याप्त पैसे वाले कॉर्पोरेट खेल से प्रेम और ग्लैमर की चाह में भीतर घुसे. इनमें सबसे अहम श्रीनिवासन और ललित थे. दोनों को रईसी विरासत में मिली थी लेकिन दोनों ही पुराने किस्म के कारोबारों से जुड़े थे- सीमेंट और सिगरेट. सबसे दिलचस्प बात यह है कि पहले सीए के बीच टकराव हुआ (मनोहर और डालमिया). उसके बाद कारोबारियों में झगड़ा हुआ (ललित और श्रीनिवासन). इस दौरान जो राजनैतिक घटक था, वह बिना हिले-डुले बरकरार रहा और दोनों ही बार जिस पक्ष को उसने समर्थन दिया, उसकी जीत हुई. ललित इसी सचाई को स्वीकार करने से मुंह चुरा रहे हैं कि बीसीसीआइ के भीतर सारे राजनेता एक साथ एक स्वर में खड़े रहते हैं और हमेशा जीतते हैं.
मैं ललित को कितना जानता हूं? ज्यादा नहीं, सिवाए इसके कि मैंने एक बार फिरोजशाह कोटला में कैमरे पर बातचीत की थी, जब वे आइपीएल की पहली कामयाबी से चमक रहे थे. मैंने उनका परिचय भारतीय खेलों के जेरी मैग्वायर (एक अमेरिकी खेल एजेंट जिसका किरदार टॉम क्रूज ने निभाया था) के तौर पर करवाया था, जिस पर वे काफी फिदा हो गए थे. उन्होंने उस बातचीत में विस्तार से बताया था कि कैसे घंटों अपने लैपटॉप पर बैठकर उन्होंने आइपीएल का खाका तैयार किया और इस चमत्कार को साकार कर डाला. क्या मैं उनसे लंदन में मिला हूं? बेशक, वहीं जहां कोई भारतीय अचानक मिल जाता है- ताज समूह के सेंट जेम्स कोर्ट में. वे बिंद्रा के साथ लंच कर रहे थे और मुझे ऐसा लगा कि वहां मुझे पाकर दोनों में से कोई भी बहुत खुश नहीं था.
आइपीएल की कामयाबी और बीसीसीआइ की ताकत उनके सिर चढ़कर बोलने लगी और एक वक्त ऐसा आया जब उन्होंने अपनी चादर से बाहर पैर फैला दिए. उन्होंने इस वैश्विक ताकत की खुराक तभी चख ली थी जब उन्हें पहले आइपीएल में खेलने के लिए ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के साथ सौदा पटाने की खातिर बीसीसीआइ की ओर से भेजा गया था. उनके प्रभाव व क्रिकेटरों और ऑस्ट्रेलियाई बोर्ड (खिलाडिय़ों की फीस का अंश) को उनके दिए पैसों के लोभ ने बाद में ऑस्ट्रेलिया में ही हरभजन सिंह-एंड्रयू सायमंड्स के “मंकीगेट” वाले विवाद को सुलझाने में मदद की.
उनकी आक्रामकता, अकड़ और बीसीसीआइ की ताकत के नग्न प्रदर्शन ने पलड़े को भारत के पक्ष में झुका दिया, जिसमें एक अंपायर (स्टीव बकनर) को निलंबित किया गया जबकि भज्जी सस्ते में छूट गए. ताकत का यही नशा स्वेच्छाचार में बदल गया जब 2009 में वे यूपीए सरकार को ठेंगा दिखाते हुए शरद पवार और राजीव शुक्ल की मिलीभगत से आइपीएल को दक्षिण अफ्रीका में लेकर चले गए. उस आइपीएल का सबसे बड़ा सितारा ललित थे. उनकी इस नई प्रसिद्धि का गवाह मैं दावोस में बना जब मुझसे कई इंच लंबी मिस साउथ अफ्रीका ने मेरे नाम के बिल्ले को देखकर पूछा कि आप भारत से हैं, तो क्या ललित को जानते हैं? यह दक्षिण अफ्रीका में 2009 के आइपीएल के तुरंत बाद की बात है.
इसके बाद ललित का पतन शुरू हो गया और श्रीनिवासन का सितारा चमकने लगा. ललित अपने अंदाज में जितने भड़कीले थे, श्रीनिवासन उतने ही शांत, लेकिन नेताओं से निपटने के मामले में वे कहीं ज्यादा चतुर थे सिवाय एक के- खुद अपने राज्य में जयललिता से. खुद ललित की बिंदास और बेपरवाह शैली ने उनकी और मदद की क्योंकि इसके चलते दोस्त और दुश्मन दोनों ही उनसे जलने लगे थे. पवार जो अब तक उनके दोस्त बने हुए थे, वे भी ललित की मदद नहीं कर पाए.
उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय का मामला चाहे जो हो, लेकिन ललित के खिलाफ आज सारी ताकतें एक हैं. वे मोदी का गुणगान भले कर लें, राजे और स्वराज को शुक्रिया भले कह दें, लेकिन ये सब उनसे दूरी ही बरतेंगे. नरेंद्र मोदी की सरकार ने उन्हें बार-बार भगोड़ा कहा है (जो वे नहीं हैं) और उनके “भागने” में यूपीए सरकार को दोष दिया है. हो सकता है कि सरकार आपराधिक लेन-देन वाले कानूनों के सहारे ब्रिटिश सरकार पर उनका प्रत्यर्पण करने का दबाव डाले. ललित का दुर्भाग्य यह है कि सारी सियासत उनके खिलाफ एकजुट ही रहेगी. एक पुरानी कहावत है कि सिर्फ क्रिकेट और जंग के वक्त भारतीय एक होते हैं. इसका नया संस्करण यह है कि क्रिकेट की सत्ता पर छिड़ी जंग में ही सारे भारतीय राजनेता एक होते हैं.