
करीब ढाई-तीन बजे के बाद फोन करना, अभी बात नहीं कर पाऊंगा. संकल्प पत्र जारी होने वाला है, सब उसी में व्यस्त हैं," दिल्ली में बैठी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सोशल मीडिया टीम के एक वरिष्ठ सदस्य ने 8 अप्रैल को यह कहकर फोन तपाक से काट दिया. इससे समझा जा सकता है कि भाजपा की आइटी सेल घोषणापत्र जारी होते ही उससे जुड़े कंटेंट (वीडियो, टेक्स्ट, ग्राफिक्स) सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स (व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक) पर डालने के लिए पूरी तरह अलर्ट थी.
उधर, कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम को 7 अप्रैल की शाम को ही अलर्ट कर दिया गया था कि अगले दिन भाजपा के घोषणापत्र की खामियों और अपनी पार्टी के घोषणापत्र से उसकी तुलना से जुड़े कंटेंट को सोशल प्लेटफॉर्स्म पर शेयर और प्रमोट करना है. दिल्ली में सोशल मीडिया टीम की बैठक में ट्विटर पर ट्रेंड कराया जाने वाला हैशटैग भी तय कर लिया गया, पर लीक होने के डर से ज्यादा लोगों को बताया नहीं गया था.
घोषणापत्र जारी होने से पहले दोनों ओर हैशटैग तय थे, टीमें और बूथ स्तर तक कार्यकर्ता तैनात थे. 2019 लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का संकल्प पत्र जारी होने के कुछ ही मिनटों में #BJPSankalpPatr2019 और #BJPJumlaManifesto जैसे हैशटैग के साथ हजारों ट्वीट चहचहाने लगे. फेसबुक और व्हाट्सऐप पर भी पोस्ट शेयर की जाने लगीं. जाहिर है, इस बार लोकसभा चुनाव में एक बड़ा मोर्चा सोशल मीडिया बन गया है.
यह मोर्चा कितना बड़ा है, इसका अंदाजा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में हो रहे खर्च से ही लग जाता है. मोगे मीडिया के चेयरमैन संदीप गोयल का आकलन है, ''2019 में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कंटेंट को वायरल करने या ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए करीब 1,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है.'' इसमें राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की ओर से सरकारी खर्च पर किया गया विज्ञापन शामिल नहीं है.
यह सारा खर्च राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों का है. सोशल मीडिया के बाजार में अभी भी फेसबुक के पास सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. संदीप कहते हैं, ''80 फीसद खर्च फेसबुक, 10 फीसद गूगल और बाकी 10 फीसद में अन्य प्लेटफॉर्म शामिल होंगे. सभी पार्टियों की ओर से चुनाव प्रचार पर कुल 5,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है.'' उनके मुताबिक, इसमें सोशल मीडिया पर करीब 20 फीसद खर्च होने जा रहा है. विज्ञापन के मामले में फेसबुक अन्य कंपनियों की तुलना में काफी आगे है.
हालांकि 2014 की सूरत इससे अलग थी. उस समय देश में केवल भाजपा ऐसी पार्टी थी, जिसने देशभर में चुनाव के प्रचार के लिए सोशल मीडिया का प्रमुखता से इस्तेमाल किया था. लेकिन 2019 आते-आते न केवल अन्य राष्ट्रीय बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी सोशल मीडिया के महत्व को समझकर अपनी रणनीति और संसाधनों के साथ मैदान में हैं.
2019 में क्या अलग?
2014 में इंटरनेट तक कुल 25 करोड़ लोगों की ही पहुंच थी, जबकि इस समय इसके यूजर्स की संक्चया करीब 56 करोड़ है. डिजिटल मीडिया एक्सपर्ट तन्मय शंकर कहते हैं, ''देश के हर गांव में बिजली, सड़क, अस्पताल या स्कूल भले न पहुंचा हो पर इंटरनेट व स्मार्टफोन जरूर पहुंच गया है. व्हाट्सऐप लगभग हर फोन में इंस्टॉल है.'' इस बार 8.4 करोड़ नए वोटर जुड़े हैं, जिनमें करीब 1.5 करोड़ 18-19 साल के हैं. सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल यूथ ही करते हैं. इस बार चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका पिछली बार के मुकाबले कहीं ज्यादा है. पर साथ-साथ सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल मसलन, फेक न्यूज, भड़काऊ सामग्री और इससे चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश जैसी चिंताएं भी उभरी हैं.
सिलिकॉन वैली की आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कंपनी एम्प्लीफाइ डॉट एआइ (Amplify.ai) के इंडिया हेड कार्तिक वालिया बताते हैं फेक न्यूज और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के गलत इस्तेमाल की शिकायतों के चलते कंपनियों ने अपने नियमों में बदलाव किया है.'' मसलन, फेसबुक फर्जी पेजों की पहचान कर उन्हें डिलीट कर रहा है और उसने कंटेंट की रीच (यूजर्स तक पहुंच) को घटा दिया है. व्हाट्सऐप ने एक बार में मैसेज फॉरवर्ड करने की संख्या को अधिकतम 5 कर दिया है. कार्तिक कहते हैं, ''ऐसे में हालात 2014 से बहुत अलग हैं. उस वक्त किसी पार्टी या नेता का मैसेज बड़ी संख्या तक पहुंच जाता था.
अब 'वन टू ऑल की जगह वन टू वन्य की रणनीति ज्यादा कारगर है और सभी का फोकस इसी पर है.'' ज्यादातर पार्टियां अब ई-मेल, व्हाट्सऐप ग्रुप, मोबाइल ऐप्लिकेशन, फेसबुक मैसेंजर के जरिए अपने फॉलोअर्स से सीधे संपर्क स्थापित करने जैसे प्रयास कर रही हैं, ताकि सीधे मतदाता से जुड़ा जा सके. इसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अहम भूमिका निभा रही है. इसकी मदद से लाखों यूजर्स तक कोई मैसेज भेजकर संपर्क स्थापित किया जा सकता है.
भाजपा अब भी सबसे आगे
सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफॉर्म पर भाजपा की पहुंच अन्य राजनैतिक पार्टियों से ज्यादा है. भाजपा के आइटी सेल से जुड़े एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, ''सोशल मीडिया पर पहुंच के मामले में भाजपा की तुलना किसी भी अन्य सियासी दल से नहीं की जा सकती. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता भी सोशल मीडिया पर अन्य नेताओं की तुलना में कहीं ज्यादा है. यह भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है.'' फिलहाल, ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फॉलोअर्स 4 करोड़ 60 लाख से ज्यादा हैं, जबकि मई 2015 में ट्विटर पर आए राहुल गांधी के फॉलोअर्स 91 लाख ही हैं.
भाजपा की दूसरी बड़ी ताकत कैडर आधारित पार्टी होना है, जो किसी डिजिटल अभियान को सफल बनाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. भाजपा का कोई भी संदेश व्यवस्थित तरीके से 10-15 मिनट में बूथ स्तर से जुड़े कैडर के पास पहुंच जाता है. लोकसभा चुनाव के लिए बनाई गई भाजपा की आइटी और सोशल मीडिया कैंपेन कमेटी के सदस्य खेमचंद शर्मा कहते हैं, ''सोशल मीडिया पर भाजपा की पहुंच का ही असर है कि 'मैं भी चौकीदार' अभियान को दुनियाभर में 60 करोड़ से ज्यादा इंप्रेशन मिले.'' इस अभियान के तहत प्रधानमंत्री की देखादेखी 20 लाख से ज्यादा भारतीयों ने अपने ट्विटर हैंडल पर नाम के आगे चौकीदार शब्द जोड़ लिया.
इस थीम के पोस्टर, गाने और विज्ञापन बनने लगे. दो दिन तक श्मैं भी चौकीदार्य हैशटैग ट्विटर पर ग्लोबली ट्रेंड करता रहा. खेमचंद कहते हैं, ''सोशल मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म पर कई तरह के अंकुश लगाए जा रहे हैं. ऐसे में भाजपा का नमो ऐप्लिकेशन कारगर साबित होगा. यह सीधे मतदाता से वन टू वन जुडऩे में कारगर है. अब तक यह मोबाइल ऐप्लिकेशन 1 करोड़ से ज्यादा डाउनलोड हो चुका है.'' इस ऐप के जरिए यूजर्स भाजपा के 2019 के चुनाव अभियान से जुड़ी हर जानकारी पा सकते हैं. प्रधानमंत्री की रैलियों, मन की बात, नमो टीवी सरकार की उपलब्धियों पर तैयार हुए कंटेंट आदि यूजर की पहुंच से महज एक क्लिक दूर होंगे. भाजपा ने हर जिले में नमो ऐप इंचार्ज बनाए हैं, जिनका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को इससे जोडऩा है.
कांग्रेस की भी मजबूत धमक
2014 में सोशल मीडिया पर कहीं नहीं दिख रही कांग्रेस ने पिछले चार वर्षों में अपनी पहुंच बढ़ाई है. इंडियन यूथ कांग्रेस के नेशनल सोशल मीडिया इंचार्ज वैभव वालिया बताते हैं, ''पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस एक बड़े अवसर से चूक गई थी. पर पिछले चार वर्षों में कांग्रेस, यूथ कांग्रेस, महिला कांग्रेस समेत सभी इकाइयों ने न केवल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है बल्कि पहुंच भी बढ़ाई है.'' इसके अलावा कांग्रेस के सभी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से जोड़ा गया है.
सोशल मीडिया पर कांग्रेस की बढ़ती स्वीकार्यता का जिक्र करते हुए वालिया यह भी दावा करते हैं कि ''हाल ही में सोशल मीडिया पर हमारे अभियान 'मैं भी बेरोजगार' का असर था कि भाजपा को अपने अभियान 'मैं भी चौकीदार' को बदलना पड़ा.'' कांग्रेस की आइटी और सोशल मीडिया टीम अब संगठन का आकार ले चुकी है. पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय के अलावा, प्रदेश, जोन, लोकसभा, विधानसभा, सेक्टर (20 बूथ) और बूथ के स्तर पर टीम तैनात की गई हैं. जरूरत के मुताबिक, कुछ पेशेवर लोग (वीडियो एडिटर, रिसर्चर) सैलरी पर रखे गए हैं, बाकी बड़ी संख्या में कांग्रेस के कार्यकर्ता सक्रिय हैं. कांग्रेस की सभी इकाइयां पहुंच बढ़ाने के लिए एक दूसरे के कैंपेन को सपोर्ट करती हैं.
वालिया बताते हैं, ''सुपर 272 नाम से एक टीम तैयार की गई है, जो उन 272 लोकसभा सीटों के प्रत्याशियों के साथ काम करेगी जहां कांग्रेस को अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है.'' सोशल मीडिया टीम के ये लोग प्रत्याशी के साथ काम करेंगे. मसलन, प्रत्याशी की रैली, भाषण को सोशल मीडिया के जरिये लोगों तक पहुंचाना, मतदाताओं के व्हाट्सऐप ग्रुप बनाना, उनसे जुडऩा, स्थानीय मुद्दों पर जानकारी जुटाकर प्रत्याशी की मदद करना. वालिया कहते हैं, ''चुनाव में सोशल मीडिया का इस्तेमाल रोजगार, किसानों की कर्जमाफी, महिला सशक्तिकरण जैसे मुख्य मुद्दों पर कांग्रेस और भाजपा सरकारों में हुए काम की तुलना, कांग्रेस की विचारधारा और नीतियों को जनता तक पहुंचाना और विरोधियों की ओर से फैलाई जा रही फेक न्यूज से लडऩे में किया जाएगा.''
ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की संयोजक (कम्युनिकेशन) प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, ''जब जनता से जुड़े असल मुद्दे मुख्य संचार माध्यमों में बहस का केंद्र नहीं बनते, तब सोशल मीडिया मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने का कारगर जरिया है.'' घर-घर कांग्रेस मोबाइल ऐप्लिकेशन, शक्ति कार्यक्रम, फेसबुक लाइव के जरिए जनता से जुड़कर कांग्रेस लोगों तक बात पहुंचा रही है.
क्षेत्रीय दलों का भी दिखा दम
क्षेत्रीय दल भी सोशल मीडिया पर अपनी पहुंच बढ़ा रहे हैं और चुनाव प्रचार में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी (आप) के सोशल मीडिया और आइटी स्ट्रैटजिस्ट अंकित लाल कहते हैं, ''हमारी ताकत बिना किसी पेड कैंपेन के ऑर्गेनिक तरीके से खुद को बढ़ाना है. हम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल जनता तक तथ्यों को पहुंचाने के लिए करते हैं. किसी तरह के फेक न्यूज को अपने प्लेटफॉर्म से प्रसारित नहीं होने देते. हाल में ही फेसबुक ने गलत कंटेंट को चलाने पर कांग्रेस-भाजपा समर्थक कई पेजों को डिलीट किया पर आप का इसमें कहीं कोई नाम नहीं था.''
गूगल पर प्रचार के लिए खर्च करने के मामले में एन. चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी अव्वल है. गूगल की ऐड ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट के मुताबिक, (इस साल 19 फरवरी से) 11 अप्रैल तक पार्टी तीन निजी कंपनियों के जरिए करीब 6 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च कर चुकी है. वहीं, भाजपा 1.2 करोड़ रु. खर्च करके दूसरे स्थान पर है. फेसबुक पर खर्च करने के मामले में भाजपा पहले पायदान पर है जबकि दूसरे स्थान पर जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाइएसआर कांग्रेस है.
फेसबुक ने फरवरी में राजनैतिक विज्ञापनों पर खर्च की निगरानी के लिए 'ऐड लाइब्रेरी' टूल बनाया है. इस टूल की रिपोर्ट के मुताबिक, फरवरी से पिछले हफ्ते तक सभी राजनैतिक दलों ने फेसबुक पर 12 करोड़ रुपए से ज्यादा (12,18,45,456 रु.) खर्च किए हैं. सबसे ज्यादा खर्च करीब 2.2 करोड़ रुपए 'भारत के मन की बात' नामक पेज पर किया गया है. इसके अलावा 'नेशन विद नमो' पर 1.2 करोड़ रुपए और 'माइ फर्स्ट वोट फॉर नमो' पर करीब 1 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. हालांकि ये सभी भाजपा के आधिकारिक पेज नहीं हैं, लेकिन इन पर चलाया जा रहा कंटेंट आपस में शेयर किया जाता है.
फेसबुक पर किए गए कुल खर्च में 45 फीसद हिस्सा (करीब 5 करोड़) भाजपा या इसे सपोर्ट करने वाले पेजों पर किया गया है. यहां खर्च करने के मामले में दूसरे स्थान पर 'इंडियन पॉलिटिकल ऐक्शन कमिटी' है, जो वाइएसआर कांग्रेस के लिए विज्ञापन चलाती है. जगनमोहन रेड्डी गूगल पर खर्च करने के मामले में भी पीछे नहीं हैं. वे गूगल पर अब तक कुल 1 करोड़ रुपए खर्च कर चुके हैं.
निष्पक्ष चुनाव बड़ी चुनौती
सोशल मीडिया के असर को समझाने के लिए सेफोलॉजिस्ट योगेंद्र यादव एक रोचक उदाहरण देते हैं, ''दिनभर ट्विटर पर ट्रेंड होने वाला हैशटैग शाम को टीवी चैनलों की प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बन जाता है.'' किसी मुद्दे पर तुरंत प्रतिक्रिया के लिए ट्विटर बेहतर माध्यम बन गया है. बड़े मुद्दों पर नेता ट्वीट करके अपना पक्ष रखते हैं. लेकिन इसका एक स्याह पक्ष भी है. पॉलिटिकल फैक्ट चेकिंग वेबसाइट के संस्थापक और संपादक प्रतीक सिन्हा कहते हैं, ''सियासी दल अपने आधिकारिक एकाउंट और पेज को साफ-सुधरा रखते हैं पर फैन और समर्थकों के पेज को पैसा देकर प्रोपगैंडा और फेक न्यूज चलाते हैं.''
आधिकारिक पेज न होने के कारण न तो उन पर होने वाला खर्च किसी दल या प्रत्याशी के खाते में जुड़ता है और न ही इनके ब्लॉक या डिलीट होने से उन पर कोई आरोप लगते हैं. प्रतीक कहते हैं, ''हजारों की संख्या में ऐसे पेज और अकाउंट चलाए जा रहे हैं, जिन पर फेक न्यूज प्रसारित होती हैं और यह निश्चित तौर मतदाताओं को प्रभावित करती हैं.'' वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि गांव की संरचना शहरों जैसी नहीं हैं.
वहां लोग समूह में बैठते और बात करते हैं. ऐसे में अगर किसी के व्हाट्सऐप पर कोई फेक न्यूज का मैसेज आता है जिस पर लिखा होता है कि मीडिया आपको यह सचाई नहीं बताएगा तो क्यों नहीं उस समूह के कुछ लोग उसे मानेंगे? ऐसे में फेक न्यूज और सोशल मीडिया की जवाबदेही सुनिश्चित करना जरूरी है. फेक न्यूज प्रोपगैंडा फैलाने के लिए विभिन्न निजी कंपनियों की भी मदद ली जाती है जो बॉट और फेक अकाउंट के जरिए कंटेंट वायरल करते हैं.
जाहिर है, एक ओर चुनाव आयोग देश भर में पेट्रोल पंप और एयर इंडिया के टिकट से प्रधानमंत्री की तस्वीरों को हटवाने तथा पोस्टर पर प्रिंटर का नाम होने पर सक्चती करने में व्यस्त है तो दूसरी ओर ट्विटर-फेसबुक पर सैकड़ों समर्थक बड़ी-बड़ी फोटो लगाकर प्रचार कर रहे हैं. अमेरिका, ब्राजील और केन्या के अनुभव बताते हैं कि बेकाबू सोशल मीडिया किस तरह चुनावों को प्रभावित कर सकता है. इन प्लेटफॉर्म ने स्वेच्छा से बंदिशें भले लगाई हों पर ऐसा कोई ठोस तंत्र स्थापित नहीं हो सका है जो मुतमइन कर सके कि सोशल मीडिया पर फेक कंटेट प्रसारित नहीं होगा और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करने वाले यूजर्स का डेटा चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किए जाने से रोका जा सकेगा.
चुनाव आयोग ने खड़े किए हाथ
इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आइएएमएआइ) ने चुनाव आयोग के निवेदन पर आम चुनाव 2019 के लिए स्वैच्छिक आचार संहिता सौंपी है, जिसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई गई है. मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने स्वैच्छिक आचार संहिता को अच्छी शुरुआत बताया. पर सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं, ''चुनाव आयोग जिस स्वैच्छिक आचार संहिता के भरोसे चुनाव कराने जा रहा है, इसका कोई कानूनी आधार नहीं है.'' आइएएमएआइ ने जो तीन पेज का दस्तावेज चुनाव आयोग को सौंपा है, उस पर न तो किसी के हस्ताक्षर हैं और न ही इससे यह स्पष्ट होता है कि किन कंपनियों ने इस आचार संहिता पर सहमति जताई है.
चुनाव आयोग ने इस पर सहमति जताई है या नहीं, स्वैच्छिक आचार संहिता के इस दस्तावेज पर संस्था का पता तक नहीं दिया गया है. गुप्ता कहते हैं, ''2013 में चुनाव आयोग ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, जो बाध्यकारी थे. जरूरत उन्हें सख्ती से लागू करने के लिए व्यवस्थित तंत्र बनाने की थी. फिर 2019 में स्वैच्छिक आचार संहिता की जरूरत क्यों पड़ी?'' हैरानी की बात यह है कि फेसबुक और ट्विटर भारत के चुनाव अभियान में अहम भूमिका निभा रहे हैं, पर उनका कोई शिकायत अधिकारी भारत में मौजूद नहीं है.
यानी किसी जिले में अगर चुनाव अधिकारी के पास कोई शिकायत आती है तो वह किससे शिकायत करे, इसकी कोई व्यवस्था नहीं है? सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म यह दावा करते हैं कि किसी आपत्तिजनक कंटेंट पर अगर कोई शिकायत आती है तो उसे सेंट्रलाइज्ड प्रोसेस से 3 घंटे के अंदर हटा देंगे. यहां दो बड़ी समस्याएं हैं, पहली कि तय सीमा पर कंटेंट न हटने पर जवाबदेही किसकी है और दूसरी, रिपोर्ट करने से पहले और उसके 3 घंटे बाद तक उस सामग्री की पहुंच तो काफी हो चुकी होगी तो उस पर नियंत्रण की क्या व्यवस्था है?
सी-वोटर के एक दैनिक सर्वे का जिक्र करते हुए सेफोलॉजिस्ट यशवंत देशमुख कहते हैं, ''देश के कई हिस्सों में टेलीविजन के बाद सोशल मीडिया मतदाताओं के लिए दूसरा लोकप्रिय माध्यम हो गया है. लिहाजा, सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले कंटेंट की निगरानी जरूरी है. निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए यूजर्स के डेटा से छेड़छाड़ न हो इसके लिए स्वैच्छिक आचार संहिता की नहीं बल्कि बाध्यकारी सख्त कानून की जरूरत है.''
जाहिर है, 90 करोड़ मतदाताओं वाले इस लोकतंत्र में अब चुनाव प्रचार झंडा, पोस्टर, बैनर तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि मोबाइल के रास्ते यह सीधे मतदाता के दिल और दिमाग पर असर डाल रहा है. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की चुनौती से निपटने के लिए चुनाव आयोग को 21वीं सदी के तौर-तरीके सीखने पड़ेंगे और इंटरनेट तथा सोशल मीडिया पर भी ध्यान देना पड़ेगा.ठ्ठ
बड़े सवालसोशल मीडिया पर चुनाव आयोग की ओर से 2013 में जारी किए गए नियमों को सक्चती से लागू करने के बजाए 2019 में स्वैच्छिक आचार संहिता जैसी छूट क्यों दे दी गई?
चुनाव के दौरान आपत्तिजनक साम्रगी को तय समय में प्लेटफॉर्म से हटाने के लिए क्या सोशल मीडिया कंपनियां भारत में कोई खास टीम या व्यवस्था तैयार करेंगी?
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव के दौरान लाखों शिकायतों के लिए सेंट्रलाइज्ड सिस्टम पर निर्भरता कितनी उचित है?
निष्पक्ष चुनाव की चुनौतियांकिसी उम्मीदवार या पार्टी की सोशल मीडिया टीम का खर्च या कोई सपोर्टर एकाउंट बना कर किए जाने वाले खर्च को उम्मीदवार के खर्च में जोडऩे की कोई व्यवस्था नहीं
फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म का भारत में कोई शिकायत अधिकारी नहीं. सेंट्रलाइज्ड सिस्टम से तय समय में समाधान नहीं मिला तो कौन जिम्मेदार?
ट्विटर और फेसबुक की तरह नामांकन फॉर्म में व्हाट्सऐप ग्रुप का कोई खुलासा क्यों नहीं? आखिरी 48 घंटों के साइलेंस पीरियड में चुनाव प्रचार कैसे रोकेंगे?
विदेशी सर्वर में सुरक्षित हो रहे यूजर्स के डेटा का विश्लेषण न हो, जो चुनाव को प्रभावित कर सके. इसकी जिम्मेदारी किसकी है?
नेताओं की मूर्तियां, हाथी, कमल का फूल आदि प्रतीकों को ढका जाता है, तो फिर मंत्रालयों के ट्विटर एकाउंट और वेबसाइट्स से मंत्रियों की फोटो क्यों नहीं हटाई जाती?
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की ओर से उठाए गए कदम
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कोई राजनैतिक विज्ञापन चलाने से पहले उनका प्री-सर्टिफिकेशन जरूरी
आपत्तिजनक कंटेंट या कंटेंट स्टैंडर्ड के मुताबिक न होने पर 3 घंटे में प्लेटफॉर्म से हटाया जाएगा
फेक न्यूज पर सख्ती के लिए फेसबुक ने फैक्ट चेकिंग टूल्स बनाए. साथ ही पब्लिशर्स के साथ मिलकर प्रोग्राम चलाए
आपत्तिजनक कंटेंट प्रसारित करने वाले पेजों को फेसबुक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से डिलीट कर रहा है
आम चुनाव से पहले व्हाट्सऐप ने भारत में फैक्ट चेकिंग सर्विस 'चेक पॉइंट टिपलाइन' शुरू की
भ्रामक जानकारी या अफवाह को फैलने से रोकने के लिए व्हाट्सऐप ने मैसेज फॉरवर्ड की अधिकतम सीमा पांच तय की
बल्क मैसेज और ऑटोमेटेड मैसेज भेजने वाले नंबरों को व्हाट्सऐप ने ब्लॉक किया
फेसबुक ने शेयर यू वोटेड और कैंडिडेट कनेक्ट जैसे फीचर खास तौर से चुनावों के लिए लॉन्च लिए
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