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मैत्रीपाल सुधारों का वादा अभी पूरा नहीं कर पाए तो महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री बनने की जुगत में

राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना सुधारों का वादा अभी पूरा नहीं कर पाए हैं. ऐसे में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे संसदीय चुनावों के जरिए प्रधानमंत्री बनने की जुगत में

अपने निवास पर 1 जुलाई को समर्थकों को संबोधित करते महिंदा राजपक्षे अपने निवास पर 1 जुलाई को समर्थकों को संबोधित करते महिंदा राजपक्षे
नामिनी विजेदास
  • कोलंबो,
  • 20 जुलाई 2015,
  • अपडेटेड 4:20 PM IST

जनवरी में महिंदा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति पद पर लगातार तीसरी बार जीत दर्ज करने की मुहिम में हारे तो सत्ता सौंपने को तैयार हो गए और चुपचाप अपने सरकारी आवास को खाली कर दिया. हफ्ते भर बाद उन्होंने यूनाइटेड पीपल्स फ्रीडम एलायंस (यूपीएफए) और उसके सबसे बड़े सहयोगी दल श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) का नेतृत्व अपने उत्तराधिकारी मैत्रीपाल सिरिसेना को सौंप दिया.

लेकिन 13 जुलाई को यह भ्रम टूट गया कि 69 वर्षीय राजपक्षे हार के बाद राजनीति को बड़े अदब के साथ अलविदा कह देंगे. उन्होंने आगामी आम चुनावों में यूपीएफए की ओर से लडऩे का पर्चा दाखिल कर दिया है. श्रीलंका के इतिहास में पहली बार ऐसा होगा कि कोई पूर्व राष्ट्रपति संसद में प्रवेश करने का इच्छुक हो.
करीब 51.28 फीसदी वोट हासिल करके सत्ता में आए राष्ट्रपति सिरिसेना अपने धुर विरोधी की उम्मीदवारी पर जमकर बरसे. 14 जुलाई को टीवी पर अपने संबोधन में उन्होंने कहा, “महिंदा राजपक्षे 8 जनवरी को हारे थे और फिर हारेंगे.” उन्होंने 17 अगस्त के चुनावों के लिए यूपीएफए के पक्ष में प्रचार न करने का भी ऐलान किया.
उनके इस अचानक फट पडऩे की वजहें सात महीने से चल रहे आंतरिक संघर्ष में हैं. नवंबर, 2014 में चुपचाप काम करने वाले सिंहली 64 वर्षीय सिरिसेना सरकार से अलग हो गए और राष्ट्रपति पद के लिए मध्यावधि चुनावों में ताकतवर राजपक्षे को चुनौती देने उतर गए. 2009 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) के सफाए के बाद राजपक्षे तानाशाह बन गए और हर तरह के विरोध को कुचलने लगे.

सिरिसेना को मुख्य विपक्षी दल यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) और 40 से अधिक दूसरे राजनैतिक समूहों का समर्थन हासिल है. अल्पसंख्यक तमिल और मुसलमानों ने उनके पक्ष में पलड़ा झुका दिया था. पर राजपक्षे ने चुनावी नतीजों को चुनौती नहीं दी. वे दक्षिणी तट पर अपने गांव तंगाली लौट गए. चुनाव नतीजों की रात सैन्य तख्तापलट की कोशिश की अफवाहों की अभी पुष्टि नहीं हुई है.

लेकिन राजपक्षे से मिली राहत थोड़े समय ही रही. हाल में राष्ट्रपति सिरिसेना ने कबूला कि पूर्व राष्ट्रपति की दखलअंदाजी से उन्हें महत्वपूर्ण सुधारों पर अमल करने में काफी परेशानी झेलनी पड़ रही है. उन्होंने कहा, “महिंदा राजपक्षे ने पार्टी की अध्यक्षता मुझे सौंप तो दी लेकिन कुछ ही समय बाद वे नमूदार हुए और मेरी टांग खिंचाई शुरू कर दी.” टकराव इस कदर बढ़ गया कि संसदीय कामकाज अवरुद्ध होने लगा. सिरिसेना सरकार की गठजोड़ की अजीबोगरीब स्थितियों से समस्या और पेचीदा हो गई. विपक्ष के साथ चुनावी समझौते के तहत उन्होंने यूएनपी नेता राणिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बना दिया. उन्होंने कुल 225 सांसदों वाले सदन में महज 47 सांसदों की अंतरिम सरकार बनाई.

इस कमजोर-सी सरकार को वादों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त सौ दिनों में पूरी करनी थी. सिरिसेना को इसमें कुछ शुरुआती कामयाबी मिली. संसद में बहुमत रखने वाले यूपीएफए ने उस लोकलुभावन बजट को पास होने दिया जिसमें कीमतों में कटौती और सार्वजनिक उपक्रमों में वेतन बढ़ोतरी की गई.

लेकिन परदे के पीछे से राजपक्षे की दखलअंदाजी की वजह से अगले सुधारों की राह में रुकावटें खड़ी हो गईं. राष्ट्रपति के कार्यकारी अधिकारों में कटौती से संबंधित संवैधानिक संशोधन को यूपीएफए का समर्थन हासिल करने के लिए ढीला किया गया. वह तो अप्रैल में अनिवार्य दो-तिहाई बहुमत से पास हो गया लेकिन उसी महीने घरेलू कर्ज की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव पास नहीं हो सका. इन्हीं समीकरणों की वजह से प्रस्तावित चुनाव सुधार भी लटक गए. भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए सूचना का अधिकार विधेयक और राष्ट्रीय ऑडिट विधेयक लाने का वादा किया गया था लेकिन उसे संसद में पेश ही नहीं किया जा सका. सरकार राजपक्षे और उनकी खास मंडली के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाने में भी नाकाम रही.

सिरिसेना महीनों तक राजपक्षे को सत्ता में लाने की यूपीएफए की मुहिम की काट में ही लगे रहे. उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में राजपक्षे के विश्वासपात्रों को इस उम्मीद में लिया कि वे उनका समर्थन हासिल कर सकेंगे, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ.

फिर, विक्रमसिंघे के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने की संभावना को देखते हुए राष्ट्रपति ने 26 जून को संसद भंग कर दी और मध्यावधि चुनावों का ऐलान कर दिया. उसके कुछ ही दिनों बाद यूपीएफए ने ऐलान किया कि राजपक्षे चुनाव लड़ेंगे.

राजपक्षे ने उत्तर-पश्चिम में कुरुनेगला जिले की एक सीट को चुना है. वे पहली बार दक्षिण में अपनी परंपरागत सीट हंबनटोटा से नहीं लड़ रहे. इसकी सियासी वजह है. कुरुनेगला में सिंहली बौद्धों की बहुलता है और यहां फौजी परिवारों की भारी आबादी है. वे वोटरों में लोकप्रिय भी हैं और वहां से भारी अंतर से जीत सकते हैं.
हालांकि राजपक्षे के लिए सरकार बनाना इस पर निर्भर करेगा कि यूपीएफए के दूसरे उम्मीदवार कितनी बड़ी संख्या में जीत कर आते हैं. उनकी मूल रणनीति एलटीटीई का हौवा खड़ा करने की होगी, लेकिन यह बात उछालकर भावनाएं भड़काने की कोशिश भी होगी कि सिरिसेना के तहत यूएनपी तमिलों के लिए अलग स्वायत्त क्षेत्र बनाने जा रही है. भारत समेत विदेशी सरकारों पर आरोप लगाया जाएगा कि वे राजपक्षे को हराने की मुहिम में जुटे हैं.

यूएनपी इन चुनावों में एक नए गठजोड़ यूनाइटेड नेशनल फ्रंट फॉर गुड गवर्नेंस (यूएनएफजीजी) के साथ उतर रही है. इसमें 12 जुलाई को शामिल दलों में सिंहल नेशनलिस्ट जातिका हेला उरुमाया (जेएचयू) भी है, जो राजपक्षे के चुनाव में उतरने के बाद यूपीएफए से अलग हो गई है. बौद्ध संन्यासियों के अपने सदस्य होने का दावा करने वाली यह पार्टी पहली बार दक्षिणपंथी यूएनपी से जुड़ी है. जेएचयू ने एएनएफजीजी के दूसरे सहयोगी श्रीलंका मुस्लिम कांग्रेस से अपने लंबे समय से मतभेदों को भी पहली बार भुला दिया है.

विक्रमसिंघे एक बार फिर राजपक्षे के राज में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और दमन के मुद्दे ही उठाएंगे. लेकिन उनकी सरकार के पिछले छह महीनों के लचर प्रदर्शन से मतदाताओं का भरोसा डिग सकता है. फिर, प्रधानमंत्री खुद विवादों से घिर गए हैं. उन पर आरोप है कि उन्होंने केंद्रीय बैंक के गवर्नर का ब्रांड नीलामी के गड़बड़झाले में बचाव किया. गवर्नर ने कथित तौर पर अपने करीबी रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाने के लिए ऐसा किया.

राजपक्षे के लिए प्रधानमंत्री का पद अहम है. चार दशक तक सियासत की मुख्यधारा में रहे तथा बतौर राष्ट्रपति कार्यकारी अधिकारों का निरंकुश इस्तेमाल कर चुके राजपक्षे के लिए सामान्य सांसद बने रहना अपमानजनक हो सकता है. हालांकि उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा राष्ट्रपति खुद हैं जिनका राजनैतिक अनुभव उनसे उन्नीस नहीं है.

सिरिसेना ने 14 जुलाई को कहा, “अगर यूपीएफए चुनाव जीत जाता है तब भी महिंदा राजपक्षे के अलावा एसएलएफपी और सहयोगी दलों में कई वरिष्ठ नेता हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है.” हालांकि राष्ट्रपति का अपने ही पार्टी काडरों में उतना समर्थन नहीं है क्योंकि उन्हें विपक्षी यूएनपी की सरकार बनाने वाला माना जाता है.
कई महीनों की अनिश्चितता के बाद लड़ाई की लकीरें खिंच गई हैं. संसद 1 सितंबर को बैठनी है. इस बीच, चुनाव नतीजों के आने तक दोनों तरफ से जोड़तोड़ और खरीद-फरोक्चत के दौर चलेंगे क्योंकि दोनों ही खेमों के लिए सरकार बनाना अहम है. फिलहाल यही लगता है कि राष्ट्रपति सिरिसेना के प्रचार से बाहर रहने के कारण नतीजे किसी भी ओर झुक सकते हैं.

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