Advertisement

पश्चिम बंगालः जलते मालदा पर राजनैतिक रोटियां सेंकने की जुगत

अफीम के गैर कानूनी कारोबार और अपराध के ऊंचे ग्राफ के लिए पहचाना जाने वाला पश्चिम बंगाल का यह शहर विधानसभा चुनाव में जबरदस्त राजनैतिक लड़ाई का केंद्र होगा.

दमयंती दत्ता/सौधृति भबानी
  • कोलकाता,
  • 18 जनवरी 2016,
  • अपडेटेड 6:15 PM IST

लगभग 35 साल से सौक्वया डे सरकार कालियाचक से या फिर उसके पास से होते हुए गुजरते रहे हैं. वेब मैग्जीन द वॉयस ऑफ मालदा के संपादक इस जगह से अच्छी तरह वाकिफ हैं&राष्ट्रीय राजमार्ग 34 पर झूलते आम के पेड़, पगला और फुलहर नदियों पर गीत गाते नाविक, लुंगी और आधी बाजू की “फटुआ” पहनकर घूमते ग्रामीण, लाल मिट्टी के ऐतिहासिक खंडहर, इस परिदृश्य में इधर-उधर बिखरे हुए हैं. कालियाचक किसी भी अन्य सुदूर भारतीय गांव की तरह लगता है. लेकिन डे सरकार की नजर में कालियाचक पाप और दुराचार की धरती पर सक्रिय राजनैतिक टाइम बम है, जो बस विस्फोट के इंतजार में है.

3 जनवरी को यहां जो हुआ उसने राष्ट्र को हैरान करके रख दिया. पैगंबर मोहम्मद के अपमान के विरोध में (जैसा एक महीने पहले पश्चिम बंगाल से बहुत दूर उत्तर प्रदेश में था) हजारों लोग इकट्ठे हुए और बेकाबू हो गए और उन्होंने पुलिस स्टेशन, बीडीओ कार्यालय को आग लगा दी, खलितपुर रेलवे स्टेशन लूट लिया, बसों, ट्रकों और तीन दर्जन से अधिक पुलिस वाहनों को नष्ट कर दिया. सवाल उठ रहे हैं&हिंसा क्यों हुई? क्या यह हिंदू-मुस्लिम दंगा था? क्या यह राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने का संदिग्ध खेल था? क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के वोट बैंक के रूप में मुसलमानों के इस्तेमाल ने राज्य को सांप्रदायिक बारूद के ढेर पर बिठा दिया है? क्या यह अप्रैल में संभावित 2016 के विधानसभा चुनाव के पहले बंगाल में नए राजनैतिक चलन की धमक है?

कालिख की जड़
मालदा गांव के सुरम्य बाहरी परकोटे के भीतर धड़कते कालिख भरे दिल को समझे बिना ये सभी सवाल अनुत्तरित रह जाएंगे. जो लोग पुराने कालियाचक को जानते हैं, उन्होंने इसे पिछले 20 साल में अपनी आंखों के सामने बदलते हुए देखा है. डे सरकार कहते हैं, “यहां पैसे की कोई कमी नहीं है.” मिट्टी से बने खपरैल घर अब गायब हो चुके हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे दशक भर पहले तक यातायात का प्रमुख साधन रहे तांगे सड़कों पर नजर नहीं आते.

जर्जर संकरी सड़कें खाने-पीने का सामान, कपड़े और प्लास्टिक के बर्तन बेचने वाली दुकानों से पटी पड़ी हैं. इनके बीच ही लगभग 26 आलीशान होटल हैं, जिनके रेशमी, मायाबन, मेघदूत और रॉयल पार्क जैसे आकर्षित करने वाले नाम हैं.

यहां के एकमात्र कन्या विद्यालय की लड़कियां हफ्ते में तीन दिन ही क्लास में आती हैं. कालियाचक हाइस्कूल के लड़के जब हुड़दंग करने लगे तो वे पुलिस में हवाई फायरिंग के बाद ही रुके. तीन लाख की आबादी वाले इस इलाके की 89 फीसदी आबादी मुसलमान है. सबसे पहले मुहर्रम का जुलूस कौन निकालेगा इसी बात को लेकर खूनखराबा हो गया. कॉलेज यूनियन अध्यापकों और प्रधानाचार्यों से ही उलझ गए. यही नहीं, चुनाव से पहले हथियार, अफीम और नशीले पदार्थ बनाने वाली सामग्री भारी मात्रा में बरामद की गई.

यहां कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा खास हैः इसकी मिसाल देखते हैं, 15 दिसंबर, 2015 को जब ममता बनर्जी ने मालदा जिले और उसके आसपास के इलाकों के लिए 32 परियोजनाओं का उद्घाटन किया और 42 की नींव रखी तो लगभग 50 वर्ष की उम्र का एक शक्चस मंच पर बहुत ही आत्मविश्वास से टहलता नजर आया. यह 2010 तक सीपीएम का पार्टी सदस्य रह चुका और अब टीएमसी का सदस्य कुख्यात अपराधी असदुल्लाह बिस्वास था. यह कालियाचक के मोस्ट वॉन्टेड की लिस्ट में शामिल है. इसके ऊपर हत्या, डकैती, अपहरण, जबरन वसूली, रिश्वतखोरी, गैंग-वार, नकली नोट, मादक पदार्थों, मनुष्यों, हथियारों और श्रम की अंतरराष्ट्रीय तस्करी के आरोप हैं.

सामान्य पृष्ठभूमि का यह शख्स 1990 के दशक से ही यहां का सर्वाधिक प्रभावशाली भूमिगत नेता है. वह पजेरो एसयूवी में चलता है, चारों ओर से सशस्त्र अंगरक्षकों के बड़े झुंड से घिरा रहता है, और बहुत तड़क-भड़क वाला जीवन जीता है. नेता, प्रशासक और पुलिस उससे डरते हैं. और वह अकेला नहीं है. वहां अन्य लोग भी हैं; तुहुर अली बिस्वास, बोकुल शेख, जाकिर शेख. ये मालदा में आतंक के पर्याय हैं जो अपना राजनैतिक रंग जब और जैसे पसंद आए, वैसे बदल लेते हैं. बांग्लादेश के साथ सीमा से 10 किमी से भी कम दूरी पर होने के नाते-जहां चपईनवाबगंज नकली नोटों और भारत विरोधी आतंकी गतिविधियों का जाना-पहचाना केंद्र है-और बिहार, झारखंड और नेपाल भागने के आसान मार्गों के साथ कालियाचक भारत के अवैध सीमा पार अफीम, हथियारों की तस्करी और जाली नोटों के गिरोहों का अड्डा भी है.

स्वार्थ का खेल
राजनैतिक रूप से कालियाचक पर रोचक खेल खेला जा रहा हैः इसे लेकर अजीब-सी खामोशी पसरी है. राज्य सरकार चुप्पी साधे है, सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस इसे कम महत्व देने की कोशिश कर रही है. छह दिन चुप्पी लगाए रखने के बाद 9 जनवरी को मुख्यमंत्री ने इसे “स्थानीय निवासियों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों के बीच हुई झड़प” कहा है. क्विज मास्टर से तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद बने डेरेक ओ ब्रायन ने कालियाचक हिंसा को “सांप्रदायिक नहीं बल्कि आपराधिक” घटना करार दिया है, जिसे पुलिस ने “चतुराई से संभाला” था.

तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता कहते हैं, “बीजेपी-संघ ने ट्विटर पर हैशटैग ट्रेंड कराकर, साल भर पुरानी तस्वीरें शेयर करके और अपनी सोशल मीडिया सेना की मदद से गैर जिम्मेदाराना ट्वीट पोस्ट करके इसे सांप्रदायिक मुद्दे में बदलने की कोशिश की.”

आश्चर्यजनक रूप से, विपक्षी दल भी राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति के बारे में दबी जुबान में ही निंदा कर रहे हैं. विपक्ष के नेता और सीपीएम के राज्य सचिव सूर्यकांत मिश्र ने इसे राज्य मंक “पूर्ण अराजकता” करार दिया है. दार्जिलिंग से बीजेपी के लोकसभा सदस्य और बीजेपी की पांच सदस्यीय फैक्ट फाइंडिंग टीम के एक सदस्य एस.एस. अहलूवालिया को 12 जनवरी को जिला प्रशासन ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा का हवाला देते हुए कालियाचक का दौरा करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था.

मालदा स्टेशन के वीआइपी लाउंज में इंतजार करते हुए उन्होंने कहा, “हम कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं. हम यहां किसी को भड़काने या उत्तेजित करने के लिए नहीं आए हैं. हमारा उद्देश्य लोगों को सांत्वना देना और उनका यह विश्वास बहाल करना था कि भविष्य में इस तरह का कुछ नहीं होगा.”

चुनावों की गंध फिजाओं में साफ महसूस की जा सकती है. कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध राजनीति विज्ञानी और राजनैतिक प्रेक्षक उदयन बंदोपाध्याय कहते हैं, “विधानसभा चुनाव करीब हैं, इसलिए सभी राजनैतिक दल चुनावी लाभ के लिए कालियाचक हिंसा का उपयोग करने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. उन्हें अब भी विश्वास नहीं है कि इससे उन्हें इस साल के विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यक वोट जीतने के लिए अतिरिक्त फायदा मिलेगा या नहीं.”

जहां ओ ब्रायन बीजेपी के “राज्य विधानसभा चुनाव के 100 दिन पहले सांप्रदायिक दृष्टि से असंवेदनशील बात कहने्य की ओर इशारा करते हैं, जो रणनीति वे चुनाव वाले हरेक राज्य में अपनाते हैं, वहीं अहलूवालिया सवाल करते हैं, “क्या यह बंगाल में मुस्लिम वोट पाने के लिए तृणमूल कांग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति है? क्या यह संकेत है कि अगर वे तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोट डालें, तो वे किसी भी गंभीर अपराध से बच निकल सकते हैं, यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर भी?”

नेतृत्व का अभाव
मालदा में कांग्रेस के गढ़ को बांटने की होड़ है. जैसा डे सरकार बताते हैं, “आजादी के बाद से मालदा कांग्रेस का गढ़ रहा है. पिछले 40 वर्ष के लंबे अंतराल से, जिले के बाकी हिस्सों की तरह कालियाचक सिर्फ एक आदमी की भारी-भरकम शख्सियत और एक आदमी के इख्तियार पर भरोसा करता रहा हैः “बरकत दा” या ए.बी.ए. गनी खान चौधरी.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री, जो 1980 से 2005 में अपनी मृत्यु होने तक मालदा का प्रतिनिधित्व करते रहे, और जिले से कभी कोई चुनाव नहीं हारे. यहां तक कि वाम मोर्चा भी, बंगाल में अपने राज के 32 वर्षों में प्रमोद दासगुप्ता से लेकर बिमान बसु तक और बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर सैलेन सरकार तक वरिष्ठ नेताओं की कोशिशों के बावजूद यहां पैर टिकाने की जगह नहीं पा सका. गनी खान के निधन के बाद उनका परिवार राजनैतिक रूप से बंट गया.

2009 के लोकसभा चुनाव से उनके भाइयों और भतीजी के बीच युद्ध की रेखाएं साफ खिंच गईं और 2015 में उनके भाइयों में से एक ने पार्टी छोड़ दी और तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए. प्रमुख कांग्रेस नेता और इंग्लिशबाजार विधानसभा सीट मालदा से विधायक कृष्णेंदु नारायण चौधरी ने भी पार्टी छोड़ दी और वे 2012 में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए.

राजनैतिक हिस्सेदारी का सवाल

लेकिन ममता बनर्जी के मालदा में अपनी पार्टी के प्रदर्शन के बारे में चिंतित होने के कारण हैं. 2011 के विधानसभा चुनावों के दौरान तृणमूल कांग्रेस ने मालदा की कुल 12 विधानसभा सीटों में से सिर्फ एक मानिकचक पर जीत दर्ज की थी. ममता ने मानिकचक से उम्मीदवार रहे कृष्णेंदु नारायण और साबित्री मित्रा, दोनों को अपनी सरकार में मंत्री बनाया. फिर भी दोनों मंत्रियों में आपसी बातचीत तक नहीं है, इसलिए मालदा में टीएमसी का जनाधार कमजोर बना हुआ है.

कालियाचक को बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम नेताओं के लिए निषिद्ध रखने की कोशिश पर सीपीएम सांसद मोहम्मद सलीम ने 12 जनवरी को सवाल उठाया, “अपनी पार्टी के एक और नेता के साथ मैं कालियाचक जा रहा था. यह पूर्वनियोजित था, लेकिन अचानक एक बड़े पुलिस दल ने हमें कालियाचक से 35 किमी पहले रोक दिया. मैंने उनसे कहा था कि एक सांसद होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि मैं तथ्यों का पता लगाऊं. लोगों से बात करूं. उन्होंने कहा कि वे मुझे अनुमति नहीं दे सकते. मैं प्रशासन से पूछना चाहता हूं कि वे क्या छिपाने की कोशिश कर रहे हैं?”

संयोग से 2013 के पंचायत चुनाव में वाम मोर्चा ने मालदा में अच्छा प्रदर्शन किया है, विशेष रूप से कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ में.
बीजेपी का क्या? यह वह क्षेत्र है, जहां भगवा ब्रिगेड के प्रभाव क्षेत्र के गहरे दायरे रहे हैं. विभाजन के दौरान, हिंदू महासभा ने एक दुर्जेय नेटवर्क स्थापित किया था, विशेष रूप से इसलिए कि मालदा को तीन दिन के लिए पाकिस्तान का क्षेत्र घोषित कर दिया गया था (मालदा 17 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाता है). यहां तक कि बंगाल में वाम शासन के दौरान भी आरएसएस ने स्वयं को भूमिगत ढंग से बामनगोला, हबीबपुर, इंग्लिशबाजार और गाजोले की आदिवासी पट्टियों में संगठित कर लिया था. तपन सिकदर, जो कभी बीजेपी के पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के अध्यक्ष और वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे थे, हबीबपुर के निवासी हैं. डे सरकार बताते हैं कि इतने वर्षों में संघ ने मालदा में 37 शाखाएं खड़ी की हैं, जिनमें 4,000 सक्रिय सदस्य हैं और 25,000 से अधिक समर्थक. राज्य में कहीं और के मुकाबले बीजेपी के प्रतिबद्ध मतदाता यहां ज्यादा हैं, जिसे 2014 के लोकसभा चुनाव में 17 प्रतिशत वोट मिले थे. ऐसे में दिलचस्पी हो सकती है.

नो मैन्स लैंड
कालियाचक भुतहा शहर बन चुका है. लोग घर से बाहर नहीं निकलते. सशस्त्र जवान सड़कों पर गश्त दे रहे हैं. सभी 10 आरोपी पुलिस हिरासत में हैं. “असली अपराधियों” की पहचान के लिए हमले की सीसीटीवी फुटेज की जांच हो रही है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह 18 जनवरी को मालदा जा सकते हैं. राष्ट्रीय जांच एजेंसी मालदा को आतंकवाद के आइएसआइ समर्थित नेटवर्क से संपर्कों के साथ आपराधिक गतिविधियों का ठिकाना घोषित कर चुकी है. उधर, दीदी ने कहा है कि तथ्य तोड़-मरोड़कर पेश किए जा रहे हैः “आप सब के तथ्य सही नहीं हैं. सांप्रदायिक तनाव नहीं था. पुलिस पर हमला नहीं हुआ. राज्य सरकार शामिल नहीं थी. हम बंगाल में यह सब नहीं होने देंगे.” काश ऐसा हो पाता.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement