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मॉल बेहाल

दिल्ली-एनसीआर में पिछले पांच-सात साल के दौरान धड़ाधड़ अस्तित्व में आए शॉपिंग मॉल्स की रौनक अब कम हो रही है. चुनिंदा मॉल्स को छोड़कर आखिर बाकी खरीदारों के लिए क्यों तरस रहे हैं?

खरीदार का इंतजार गाजियाबाद के इंदिरापुरम में 6 नवंबर को शाम 4 बजे एक मॉल के बाहर का दृश्य खरीदार का इंतजार गाजियाबाद के इंदिरापुरम में 6 नवंबर को शाम 4 बजे एक मॉल के बाहर का दृश्य
मनीष दीक्षित
  • नई दिल्ली,
  • 14 नवंबर 2017,
  • अपडेटेड 4:05 PM IST

महेंद्रगढ़ (हरियाणा) की 28 वर्षीया रेनु परिवार की दो अन्य महिलाओं के साथ पिछले साल भर से फरीदाबाद के मैनहटन मॉल के सामने दुकान चलाती हैं. सुनने में शायद अजीब लगे लेकिन अंडे, चाय और खाने-पीने की दूसरी चीजों की इतनी बिक्री हो जाती है, जिससे जिंदगी चल सके. लेकिन मॉल की दुकानों का सन्नाटा कुछ और कहानी बयां करता है. यहां दिन में बस उल्लू नहीं बोलते हैं. शाम को पांच बजे भी ऐसी भांय-भांय और अंधेरा तारी रहता है कि दूसरी मंजिल से ऊपर कदम बढ़ाने की आप हिम्मत नहीं जुटा पाते. अभी पिछले हफ्ते की ही बात है. एक शख्स ने ''गार्ड-गार्ड" की गुहार लगाई तो आवाज किसी वीरान हवेली की तरह देर तक भीतर गूंजती रही. एस्केलेटर थे लेकिन उन पर चलने वाला कोई नहीं. कुछेक दुकानें थीं जो खरीदारों के बिना सूनी लग रही थीं. दूसरी और तीसरी मंजिल की लाइटें भी बंद थीं.

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फरीदाबाद ही क्यों, अब तो गाजियाबाद, गुडग़ांव, नोएडा, यहां तक कि राजधानी दिल्ली में भी वीरान मॉलों के ऐसे नजारे आम होते जा रहे हैं. खरीदारों के अभाव में गाजियाबाद में मोहननगर का एमएमएक्स बंद हो चुका है. दिल्ली-एनसीआर के ऐसे दर्जनों मॉल में अब अगर कुछ दिखता है तो बस सन्नाटा. ग्राहकों की बेरुखी के बाद वहां के दुकानदारों ने या तो अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया है, या समेटने की सोच रहे हैं.

क्या वजह है कि ढोल-ढमाके के बीच खासे उत्साह के साथ शुरू हुए इन मॉलों में दिन में ही चमगादड़ लटकने की नौबत बन रही है? असल में इसकी वजहें कई हैं. सबसे बड़ी तो यही समझ में आती है कि राज्यों में मॉल खोलने की कोई ढंग की और समन्वित नीति नहीं है. एक ही जगह पर ताबड़तोड़ मॉल खोलने की मंजूरी दे दी जाती है. रिटेलर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के सीईओ कुमार राजगोपालन के मुताबिक, ''गुडग़ांव और गाजियाबाद जैसे शहरों में एक ही जगह पर सिलसिलेवार मॉल खुलते गए. सरकारों ने मॉल को उद्योग के नजरिए से देखा ही नहीं है." वे बताते हैं कि सिर्फ महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में रिटेल से संबंधित नीति बनी है.

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फरीदाबाद में बाटा चैक मेट्रो स्टेशन के ठीक बगल में 148 दुकानों वाले एल्डेको स्टेशन-1 मॉल का नजारा फूड ज्वाइंट, मल्टीप्लेक्स और रितु वियर की वजह से थोड़ा अलग है. लेकिन यहां भी पहली-दूसरी मंजिल की ज्यादातर दुकानों में फर्मों के दफ्तर हैं जो रविवार को बंद रहते हैं. ऐसे में सप्ताहांत में यहां की ऊपरी मंजिलें आसपास के गांवों से आने वाले प्रेमी जोड़ों को खासी रास आती हैं. मॉल के मैनेजर अमर बताते हैं कि उनकी कंपनी ने सभी दुकानें पहले ही बेच दी हैं. अब सिर्फ मेंटेनेंस का काम वे देख रहे हैं. मॉल की आधी दुकानों में किराएदार हैं और वे ही मेंटेनेंस चार्ज दे रहे हैं. यहां साफ-सफाई, रौशनी और एस्केलेटर जैसी सुविधाओं का खर्च निकालना भी एक चुनौती है. अमर का अनुभव बताता है कि ''फरीदाबाद में मॉल न चल पाने की बड़ी वजह खराब कानून-व्यवस्था है. आए दिन लोग मॉल में लड़ पड़ते हैं. हैसियत वाले खरीदार गुडग़ांव-दिल्ली चले जाते हैं. पिछले साल 8 नवंबर यानी नोटबंदी से पहले हालात थोड़े बेहतर थे. उसके बाद मॉल-दुकानें खाली होने का जो सिलसिला चला तो अब तक राहत नहीं मिली.

फरीदाबादके सेक्टर 12 में पांच मॉल बन चुके हैं, दो और बनने वाले हैं. मॉल के कारोबारियों का दर्द यह है कि सरकार सेक्टरों में मार्केट बनाती जाती है और अवैध रूप से रिहाइशी इलाकों में दुकान चलाने वालों पर स्थानीय निकाय सख्ती नहीं करते. राजगोपालन का आकलन है कि ''दिल्ली-एनसीआर में उतने कस्टमर नहीं जितने मॉल खुल गए हैं. मॉल्स में नयापन लाना बहुत जरूरी है. जो भी मॉल प्रोफेशनली मैनेज होता है वहां कस्टमर आते हैं." रियल एस्टेट इन्वेस्टमेंट बिजनेस से जुड़ी कंपनी जेएलएल के रियल एस्टेट रिसर्च हेड आशुतोष लिमये इसका यूं विश्लेषण करते हैं, ''2002 में मॉल खोलने की लहर चली तो डेवलपर्स को इस कारोबार का अंदाजा न था, सो रिहाइशी प्रोजेक्ट की तरह दुकानें बेच दीं, जिससे मॉल की भीतरी व्यवस्था गड़बड़ा गई. मॉल चलने के बुनियादी पहलुओं की अनदेखी हुई." (देखें बॉक्सः नाकामी की वजहें)

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वैसे मॉल्स की लोकेशन और डिजाइन-लेआउट भी उसके चलने/न चलने की वजह बताई जाती है. लेकिन गाजियाबाद के इंदिरापुरम में इरोज मॉल पर यह सिद्धांत लागू होता नहीं दिखता. घनी आबादी वाले इलाके में यह इतालवी डिजाइन पर बना है. लेकिन यहां सामने के फूड आउटलेट और सबसे ऊपर मल्टीप्लेक्स को छोड़ दिया जाए तो दुकानें ढूंढऩी पड़ती हैं. बीसेक दिन पहले यहां 4,000 वर्ग फुट में पहली मंजिल पर खेल के सामान का स्टोर खोलने वाले विजय को उम्मीद है कि डेढ़ लाख रु. महीना किराए वाले इस स्टोर को जल्द ही कामयाबी मिल जाएगी. यह किराया इरोज मॉल से एक किलोमीटर दूर हैबिटाट सेंटर के मुकाबले एक चौथाई है. लेकिन विजय की इरोज में ही लेडीज अपैरल की शॉप ''क्रिस्टी" चलाने वाले सुधीर से शायद बात नहीं हुई, जो महीने भर में दुकान बंद करने वाले हैं. सुधीर बताते हैं, ''महीने भर में यही कोई चार-पांच लाख रु. की सेल होती है. ऐसे में 30,000 रु. किराया और मेंटेनेंस देने के बाद मामूली-सा मुनाफा हाथ आता है." हाल ही एक फूड आउटलेट भी बंद हुआ है. पर मॉल मैनेजर परमजीत मार्केट की चौतरफा सुस्ती को इसकी वजह बताते हैः ''हर साल हमारी ग्रोथ हुई है. शॉप ओनर्स और ब्रांड के बीच रेट की सौदेबाजी से दुकानें खाली हैं. 30 फीसदी जगह भर चुकी है. शुरुआत में ही डेवलपर ने यहां दुकानें बेच दी थीं. अब दुकान मालिक उन्हें किराए पर दे रहे हैं.

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यही हाल दिल्ली में रोहिणी का है, जहां सेक्टर 10 और उसके आसपास के इलाकों में आधा दर्जन मॉल हैं. वहां खरीदारों की कमी के चलते डायग्नोस्टिक सेंटर तक को किराए पर दुकानें दे दी गई हैं. लीगल फर्में खुल गई हैं. पास के सिटी सेंटर मॉल के डेवलपर्स ने ज्यादातर दुकानें बेच दी हैं. मैनेजर अमित अग्रवाल कहते हैं, ''मेंटेनेंस चार्ज बढ़ाने पर ब्रांड छोडऩे की धमकी देते हैं. मेंटेनेंस बहुत महंगा है." गुडग़ांव में एमजी रोड पर एंबिएंस जैसे कुछ मॉल में तो अच्छी भीड़ दिखती है लेकिन कुछ दूसरे मॉल्स में शॉपिंग की जगह दफ्तरों या बैंकों को किराए पर स्पेस दिया गया है. मॉल का स्वरूप बदलने का सबसे बड़ा नमूना दिल्ली-नोएडा बॉर्डर पर स्टार सिटी और गैलेरिया मॉल हैं. स्टार सिटी में शराब की तीन दुकानें और चार रेस्टो बार खुल गए हैं जबकि एकदम सटे गैलेरिया में एक दर्जन शराब की दुकानें और कई रेस्टोबार हैं. स्टार सिटी के जीएम संजीव कहते हैं, ''मालिकों ने दुकाने किराए पर दी हैं. हम किसी को मना नहीं कर सकते. बॉर्डर के कारण दुकानें ज्यादा हैं क्योंकि यहां शराब यूपी से सस्ती है. यहां एक दुकान सिर्फ महिलाओं के लिए है, जहां बेचती भी महिलाएं ही हैं."

देश का सबसे बड़ा शॉपिंग मॉल नोएडा का डीएलएफ मॉल ऑफ इंडिया कंज्यूमर फीडबैक और शॉपिंग पर काफी रिसर्च के बाद बनाया गया है. यहां की प्लानिंग साइंटिफिक है और कोई भी दुकान बेची नहीं गई है. ब्रांड सेलेक्शन में सावधानी बरती गई है. डीएलएफ की वीपी और मॉल हेड पुष्पा बेक्टर कहती हैं, ''यहां देश के सबसे बढिय़ा ब्रांड हैं. हमारा कस्टमर फोकस बहुत ज्यादा है. बड़ों से बच्चों तक के लिए लगातार कार्यक्रम होते हैं. डीएलएफ की दुकानें रेवेन्यू शेयरिंग पर आधरित हैं. मॉल बिजनेस में लगातार इन्वेस्टमेंट करना होता है. दुकानें बेचने से मॉल पर कंट्रोल और दिलचस्पी दोनों खत्म हो जाती है."

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ब्रांड और मॉल मैनेजमेंट अक्सर खरीदारों की कमी के पीछे ई-कॉमर्स को वजह बताते हैं. लेकिन राजगोपालन कहते हैं देश में 650 अरब डॉलर के रिटेल बिजनेस में ई-कॉमर्स की हिस्सेदारी 2 फीसदी है. मॉल चलाना नहीं आता तो ई-कॉमर्स को दोष देना गलत है. मॉल सोशल लोकेशन है. मॉल रिटेनमेंट (रिटेल-एंटरटेनमेंट) बिजनेस है. खाना और अन्य मनोरंजन के साधन सिर्फ मॉल में मौजूद हैं. हां, यह जरूर है कि मॉल का दरवाजा अब स्मार्टफोन पर भी खुलता है. लेकिन सन्नाटे वाले मॉल्स में ऐसे दरवाजों से गुजरना भी किसी को गवारा नहीं.

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