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अक्सर हम लोगों को देखकर उनके बारे में एक छवि बना बैठते हैं और जरूरी नहीं होता कि हर बार यह सही ही हो. ऐसी ही एक छवि मैंने बना ली थी, अपने हिंदी टीचर सुदेश पचौरी के बारे में.
यह बात उस समय की है जब मैंने 2004 में जाकिर हुसैन कॉलेज में ग्रेजुएशन में दाखिल लिया था. मेरा एडमिशन स्पोर्ट्स कोटे से हिंदी ऑनर्स में हुआ था, लिहाजा मुझे यही लगता कि हिंदी पढ़ना भी महज गिल्ली डंडे का खेल हैं.
इसी सोच में जीते हुए मैं स्पोर्ट्स प्रैक्टिस करता और कभी भी हिंदी की क्लास में नहीं जाता था. अगर वक्त मिल भी जाता तो मैं कैंटीन में बैठकर दोस्ती यारी निभाता रहता था.
एक दिन कैंटीन में मेरे हिंदी टीचर सुदेश पचौरी पहुंच गए और उन्होंने मुझसे पूछा 'श्रीमान आप हिंदी ऑनर्स के स्टूडेंट हैं ?' मेरा जवाब हां था. इतने में दूसरा सवाल भी आ पड़ा, 'कितनी क्लासेज अब तक आपने अटेंड की हैं? इस पर मैंने बड़ी ही आसानी से कह दिया कि मैं स्पोर्ट्स कोटे से आया हूं तो मेरा काफी वक्त खेल के मैदान में गुजरता है और उसके बाद क्लास अटेंड करना मुश्किल है.
ये सुनकर वे चुपचाप चले गए लेकिन दूसरे दिन उन्होंने हिंदी का टेस्ट लेने की बात कही जो सबको देना था. मुझे खबर तो मिल गई थी और मैं बिना किसी डर के पहुंच भी गया क्योंकि अब तक मेरे अंदर स्पोर्ट्स कोटे से एडमिशन होने की खुमारी चढ़ी थी.
आखिरकार टेस्ट हुआ और नतीजों की घोषणा भी हुई. पूरी क्लास में मेरे सिवा सभी पास थे. सही वाक्य में कहूं तो मैं अकेला स्टूडेंट था जो फेल हुआ था. इस पर भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि स्पोर्ट्स पर्सन को पढ़ना जरूरी नहीं होता मैं इस खुशवहमी में जी रहा था.
टाइम बीता और फाइनल एग्जाम का वक्त करीब आने लगा. मेरे अंदर की बेफिक्री अभी भी बरकरार थी. एक दिन मेरे टीचर ने मुझे फिर बुलाया और बोला कि तुम्हारी अटेंडेंस तो क्लास में है नहीं, इस लिहाज में तुम एग्जाम में नहीं बैठ सकते हो. मेरी अकल और अकड़ दोनों ही कम नहीं हुई थीं. तो मैंने बोल दिया कि स्पोर्ट्स कोटे वालों को अटेंडेंस से क्या फर्क. वे तो आसानी से मिल जाएगी. इसके बाद मैं स्पोर्ट्स के टीचर से मिला लेकिन उन्होंने यह कहते हुए अपने हाथ खड़े कर दिए कि 40 फीसदी हाजिरी तो मैं दिखा सकता हूं लेकिन 20 फीसदी के लिए तुम्हें हिंदी क्लास में जाना होगा. आखिरकार हारकार मैं अपनी हिंदी क्लास में पहुंच ही गया.
पहला दिन और आज तो सुदेश जी भी पूरी तैयारी से थे. मेरी ढंग से क्लास लगी और ऐसा दो दिन तक चला. इसके बाद मैंने टीचर से बात करने की सोची, सच कहूं तो यहां भी मैं यही सोचकर मिलने गया था कि बातचीत से कोई रास्ता निकाल लूंगा. लेकिन वहां जाकर जो हुआ वो मेरी सोच से परे था.
सुदेश जी मुझसे बहुत सरल तरीके से मिले. मैंने हिंदी को लेकर अपनी बात रखी. तब उन्होंने कहा कि तुम्हारी परेशानी यह है कि तुम हिंदी को बहुत ही आसान समझते हो, जबकि ऐसा नहीं है. भाषा की इज्जत करना सीखो.
काफी देर मैं उनके पास बैठा रहा उन्होंने मुझे अपने बारे में बताया और हिंदी के बारे में भी. उसके बाद मेरे अंदर एक बदलाव था. मैं रोजाना क्लास में जाता और फाइनल एग्जाम में टेस्ट में फेल होने वाले स्टूडेंट ने भी 50 फीसदी नंबर पा लिए. यह बात मैंने उन्हें बताई, जिस पर उन्हें खुशी से ज्यादा गर्व था.
आज इस बात को कई साल बीत गए लेकिन उन्होंने हिंदी को लेकर दिल में इज्जत दिन पर दिन बढ़ती गई. यही नहीं मेरा यह नजरिया भी बदल गया कि इंसान की पहचान उसका पहनावा नहीं, असल में उसकी सोच होती है.
- रमन मिश्रा
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