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पुरस्‍कार के साथ उपेक्षा भी देखी है मनोज वाजपेयी ने

मनोज बाजपेयी ने सब कुछ देखा है, पुरस्कार और रातोंरात की शोहरत से लेकर उपेक्षा और हताशा तक. उन्हें उम्मीद है कि गैंग्स ऑफ वासेपुर की कामयाबी उन्हें नए मुकाम दिलाएगी.

मनोज वाजपेयी मनोज वाजपेयी
पूजा बजाज
  • मुंबई,
  • 29 जुलाई 2012,
  • अपडेटेड 9:09 AM IST

उपनगरीय मुंबई के अपने चार बेडरूम वाले फ्लैट में बैठे 43 वर्षीय अभिनेता मनोज बाजपेयी के चेहरे पर गैंग्स ऑफ वासेपुर में निभाई गई सरदार खान की भूमिका के लिए मिलने वाली तारीफों की चमक साफ नजर आती है. 1994 में शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन के बाद गैंग्स ऑफ वासेपुर इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में डायरेक्टर्स फोर्टनाइट के तहत दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फिल्म है.

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वे कहते हैं, ''अगर इसके बाद भी अच्छे ऑफर नहीं आते हैं तो मैं यही कंगा कि कुछ नहीं बदला.'' उन्हें समझ आ गया है कि तारीफों को सिर पर बैठाने की जरूरत नहीं है. सत्या (1998) और राजनीति (2010) जैसी फिल्मों के साथ कामयाबी पहले भी उनके कदम चूम चुकी है. ''मैं जिस तरह की एक्टिंग करता हूं, उसके लिए कभी रोल रहे ही नहीं. मेरी जिंदगी की यही कहानी है.'' उनकी आंखों में कोई गिला-शिकवा नहीं है, और उनकी निगाहें बालकनी में पत्नी और पूर्व अभिनेत्री शबाना रजा के साथ खेल रही अपनी डेढ़ वर्षीया बेटी आवा नायला का पीछा करती रहती हैं.

इस बयान के आधार पर उन्हें निराशावादी कहना आसान है लेकिन इंडस्ट्री में 18 साल बिताने और दो राष्ट्रीय पुरस्कारों के बाद कामयाबी या नाकामी मनोज के लिए कोई अजनबी चीज नहीं रह गई है. 2003 में पिंजर में राशिद की भूमिका के लिए मिले दूसरे राष्ट्रीय पुरस्कार के बाद एक दौर आया था जब वे नाराज हो जाया करते थे और विलेन के घिसे-पिटे रोल करने से इनकार कर देने के बाद 10 महीनों तक बेकार बैठे रहे थे. वे कहते हैं, ''पुरस्कार किसी काम के नहीं होते. वे मेरे घर की सजावट का एक हिस्सा भर हैं.''

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उनके लिए रोल से समझैता करना कभी कोई विकल्प नहीं रहा. वासेपुर के निर्देशक अनुराग कश्यप कहते हैं, ''किसी रोल के लिए डायलॉग का अभ्यास करते हुए वे अकसर खुद को सबसे काट लेते और किसी देखने वाले को वे पागल जैसे लगते. मनोज को एक असंयमी शख्स की भूमिका निभानी थी जबकि वे ऐसे नहीं हैं. हमें पुराने मनोज को सामने नहीं लाना था, और हमने उनके सिर को गंजा करना तय किया.'' मनोज ने अनुराग की मेकअप टीम के साथ एक दिन बिताया. उन्होंने उनके चेहरे के साथ कुछ प्रयोग किए तथा दुबला और भूखा दिखने के लिए उन्होंने छह किलो वजन घटाया.

बेतिया के ख्रिस्त राजा हाइस्कूल से पास होने के समय बाजपेयी 17 साल के थे. बिहार-नेपाल सीमा पर नरकटियागंज के पास स्थित अपने गांव बेलवा को छोड़कर, जहां उनके पिता एक किसान थे, वे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के एक्टिंग कोर्स में दाखिला लेने की उम्मीद में दिल्ली चले आए. हिंदी पत्रिका रविवार में प्रकाशित अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के एक इंटरव्यू से उन्हें इस स्कूल की बाबत पता चला था.

दिल्ली में वे 300 रु. प्रति माह में गुजारा करते थे जिसमें से 150 रु. उन्हें अपने पिता से मिलते थे और बाकी 150 रु. वे नुक्कड़ नाटकों में अभिनय के जरिए कमाते थे. इस मामूली रकम से बमुश्किल दोस्तों के साथ भाड़े पर लिए गए कमरे और मासिक बस पास के 12 रु. का खर्च चल पाता था. इसके अलावा वे कपड़े, जूते और छोले-भटूरे के लंच के लिए भी दोस्तों पर निर्भर थे.

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लगातार चार साल तक एनएसडी ने उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया और दूसरे प्रयास के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज से इतिहास की पढ़ाई करते हुए बैरी जॉन से ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी. दिल्ली में नाटकों में अभिनय में वे इतना रम गए कि अकसर लंबे-लंबे अंतरालों तक उनका घर जाना भी नहीं हो पाता था. वे बताते हैं ''एक बार जब मैं तीन साल बाद घर पहुंचा तो मेरी मां ने रोना शुरू कर दिया. और मैंने सोचा कि ये क्यों रो रही हैं, अब तो मैं आ गया हूं?''

1993 में मुंबई जाने के बाद बाजपेयी का निराशा से आमना-सामना हुआ. एक बड़े शहर में दुखी और खोए हुए उन्हें अपनी पहली पत्नी से तलाक की पीड़ा से भी गुजरना पड़ा. वे लंबे इंतजार के लिए तैयार होकर आए और जब अपने गांव  लौटने ही वाले थे कि 1994 में उन्हें बैंडिट क्वीन और मान सिंह के रूप में उम्मीद की किरण मिल गई.

टीवी सीरीज स्वाभिमान (1995) और महेश भट्ट की दस्तक (1996) जैसी फिल्मों ने उन्हें पांच साल तक जिलाए रखा जब तक कि दौड़ (1997) में परेश रावल के गुर्गे की भूमिका निभाने के लिए उनकी मुलाकात राम गोपाल वर्मा से नहीं हो गई. वर्मा बैंडिट क्वीन  से उन्हें पहचानते थे जिस कारण उन्हें सत्या जैसी फिल्म मिली, जिसमें भीखू म्हात्रे के रोल के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.

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उसके बाद से शूल (1999) और पिंजर की अहम कामयाबी के बीच ऐसी भी फिल्में रही हैं जो ज्‍यादा नहीं चलीं लेकिन जिन पर बाजपेयी को नाज है-कौन (1999), अक्स (2001) और 1971 (2007). कुछ और भी फिल्में हैं जिन्हें उन्होंने हताशा में किया-ऐसी फिल्में जिनका अब जिक्र करने में भी उन्हें शर्म आती है-जागो (2004), बेवफा (2005) और मनी है तो हनी है (2008) जैसे भूल जाने लायक काम. 2007 में अपने गांव की एक यात्रा के दौरान जीप की सवारी करते समय उनका कंधा चोटिल हो गया जिसके कारण अगले तीन साल में ज्‍यादातर समय डाक्टरों के यहां आने-जाने में ही बीता.

''मेरे कंधे जवाब दे गए थे. मैं अपना हाथ भी नहीं उठा सकता था. यह बात तोड़ देने वाली थी कि मैं एक्टिंग नहीं कर पा रहा था.'' उनके कंधे में एक नई हड्डी बढ़ रही थी, और कई डॉक्टर सर्जरी की सलाह दे रहे थे, वहीं कई अन्य उसके खिलाफ थे. ''जब मैं जीप में बैठा तब मैं ठीक था. जब मैं बाहर निकला तो मेरे कंधे नहीं रह गए थे. मुझे ऐसी कोई चीज याद नहीं जिसने उसको नुकसान पहुंचाया हो.''

इस ब्रेक के दौरान अपने गुस्से पर काबू पाने के लिए वे ध्यान करने लगे. ''जब मैं छोटा था तो मैं बहुत नाराज हो जाया करता था, लेकिन तब मुझे एहसास हुआ कि मैं किसी ऐसी चीज पर अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रहा था जो मेरे बस से बाहर थी. मैं अपने लिए रोल नहीं लिख सकता.'' फिर प्रकाश झ ने उन्हें राजनीति  के लिए बुलाया. दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया था पर लोगों ने इसे पसंद किया और दुर्योधन सरीखे चरित्र वीरेंद्र प्रताप ने उन्हें फिर से सुर्खियों में ला दिया.

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इसके तुरंत बाद वासेपुर की पटकथा पढ़ते हुए 'जिगरी' दोस्त कश्यप के साथ रेड वाइन के नशे में वे सबकुछ दिमाग से निकाल देने के लिए राजी हो गए. कश्यप कहते हैं, ''वासेपुर में, एक नए तरीके और नए दृष्टिकोण के साथ, एक नए अभिनेता का जन्म हुआ है. मेरे ख्याल से एक्टर मनोज बाजपेयी के लिए यह नई शुरुआत हो सकती है.'' 

अपने इस नए अवतार में उन्होंने अपने साथ अपने चरित्रों को घर ले आना बंद कर दिया है. मेल-जोल के शुरुआती दिनों में उनकी पत्नी शबाना को, जिनसे उनकी मुलाकात 2000 में एक फिल्मी पार्टी में हुई थी, लगता था कि वे हर महीने एक नए व्यक्ति से मिल रही हैं.

वे कहते हैं, ''अब मैं पूरे दिन काम करने के बाद भी एकदम खाली होकर घर लौटता हूं.'' इस बात से आश्वस्त कि सही समय पर अच्छे रोल मिलेंगे. वे एक संगीतमय मंचन के लिए शोध करने में व्यस्त हैं जो रंगमंच पर उनकी वापसी होगी. वे कहते हैं, ''इसे करने के लिए मैं बेताब हूं.'' मगर इस प्रोजेक्ट के बारे में कुछ और जाहिर करने के लिए तैयार नहीं होते.

अपने खाली समय में उन्हें यात्राएं करना पसंद है, स्कैंडेनेविया उनका पसंदीदा ठिकाना है, उन्हें खूब पढ़ना, हर तरह की फिल्में देखना और अपनी बेटी के साथ खेलना पसंद है. मनोज को और अधिक पैसे मिलना अच्छा लगेगा ताकि वे लंदन में एक  घर खरीद सकें, मारुति स्विफ्ट को वे अपने रागरंग की एक चीज मानते हैं, क्योंकि टोयोटा लैंड क्रूजर प्राडो को, जिसके वे मालिक हैं, चलाने में उन्हें डर लगता है.

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जल्द ही वे नायला को अपने गांव की पहली यात्रा पर ले जाने की योजना बना रहे हैं. जहां दोस्तों और परिवार के लोग उसे देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं. बदल चुके मनोज अब इतना ही कहते हैं, ''अगर कोई अच्छा रोल मिलता है तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगा, यदि नहीं, तो भी ठीक.''

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