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आज भले ही कई लेखक सोच- समझकर लिखते हैं पर एक मंटो ऐसे लेखक थे जिनका लिखा हुआ नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. सआदत अली हसन मंटो आधुनिक उर्दू के ऐसे सबसे बड़े कलमनिगार जिन्होंने अपनी कलम से ऐसी रचनाएं लिख डालीं, जिसे आज तक याद किया जाता है. प्रसिद्ध कहानीकार सआदत अली हसन मंटो का जन्म 1912 में 11 मई को हुआ था.
जानते है उनके जीवन से जु़ड़ी बातें
1. मंटो का जन्म पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था. उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे.
2. उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे. मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे.
3. मंटो का विवाह सफिया से हुआ था. जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई.
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4. 24 साल की उम्र में उर्दू में छोटी कहानियों पहला संस्करण आतिश पारे छपा.
5. 3 बार हिंदुस्तान और बंटवारे के बाद 3 बार पाकिस्तान में अश्लील साहित्य के आरोप लगे, लेकिन दोषी साबित नहीं हुए.
6. पाकिस्तान ने उन्हें निशान-ए-इम्तियाज से नवाजा और उनकी याद में डाक टिकट जारी किया.
मंटो की शिक्षा
अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल से मंटो ने एंट्रेंस तक की पढाई की. फिर 1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाखिला लिया. जलियांवाला बाग का नरसंहार 1919 में हो चुका था. जब मंटो महज 7 साल के थे. इतनी छोटी उम्र में भी उनके मन में ये घटना गहरी छाप छो़ड़ गई थी.
मंटो की सदाबाहर रचनाएं
क्रांतिकारी दिमाग और अतिसंवेदनशील हृदय ने उन्हें मंटो बना दिया.मंटो की पहली कहानी 'तमाशा' थी जो जालियांवाला बाग की घटना से निकल कर आई थी. एक 7 साल के बच्चे की नजर से देखा गया जलियांवाला नरसंहार का जिक्र मंटो ने 'तमाशा' में किया.
मंटो के खास लेख
- मैं क्या लिखता हूं?
- मैं अफसाना क्यों कर लिखता हूं?
कॉस्ट्यूम डिजाइन में इनका कोई तोड़ नहीं, दिलाया देश को पहला OSCAR
मंटो की कहानियां
टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, कम्युनिज़्म, तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, काली शलवार है.
'तमाशा' के बाद अगली रचना
जहां मंटो लिखना चाहते थे, वहीं वे आगे की पढ़ाई भी करना चाहते थे. साल 1934 में मंटो ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. मंटो के लिए सपने जैसा था. यहीं पर मंटो की मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई. जिनसे मिलने के बाद उनके मन की रचना को और हवा मिली. फिर क्या मंटो ने कहानियां लिखना शुरू कर दिया. 'तमाशा' के बाद कहानी 'इनकिलाब पसंद' (1935) नाम से लिखी, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई.
उनका कार्यक्षेत्र
1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था 'आतिशपारे'. अलीगढ़ में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये. वहां से वह लाहौर चले गये, जहां उन्होंने कुछ दिन 'पारस' नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए 'मुसव्विर' नामक साप्ताहिक का संपादन किया.
जनवरी 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो(AIR) में काम करना शुरू किया. वह दिल्ली में सिर्फ 17 महीने रहे. वहीं मंटों के रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए जिसमें 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें'. उसके बाद वह 1942 में लाहौर को अलविदा कहकर बंबई पहुंच गये. जनवरी, 1948 तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन और फिल्मों के लिए लिखना शुरू किया.
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छोड़ जाती है इकझोर देने वाली सच्चाई
आज भले ही मंटो हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी कहानियां और उनके किस्से आज भी हमारे बीच मौजूद है. उनकी लिखी हुई कहानियां को पूरी तरह से समझ पाना बेहद मुश्किल है. दरअसल मंटो की कहानियां अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं बल्कि वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयां छोड़ जाती हैं.
मंटो की कहानियों पर बनी फिल्में
- काली सलवार
- मिर्जा- गालिब
- शिकारी
- बदनाम
- अपनी नगरियां
मंटो की भूमिका में नजर आएंगे नवाजुद्दीन
मेकर नंदिता दास की आने वाली फिल्म 'मंटो' में बॉलीवुड अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी मंटो की भूमिका में नजर आएंगे.
मृत्यु
मंटो के 19 साल के साहित्यिक जीवन से 230 कहानियां, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख लिखे. 18 जनवरी, 1955 को सआदत हसन मंटो ने दुनिया को अलविदा कह कर सदा के लिए कहानियों की दुनिया में अमर हो गए.