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सीवर में मरने का अभिशाप

यही सरकार स्वच्छता अभियान के तहत शौचालयों के निर्माण के लिए 2 लाख करोड़ रुपए आवंटित करती है. इनमें से अधिकतर शौचालय गड्ढे या सेप्टिक टैंक वाले होते हैं—5 करोड़ शौचालय का मतलब 5 करोड़ गड्ढे. इन्हें कौन साफ करेगा?

बेजवाड़ा विल्सन बेजवाड़ा विल्सन
मंजीत ठाकुर/संध्या द्विवेदी
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  • 24 सितंबर 2018,
  • अपडेटेड 6:19 PM IST

भारत में हर पांचवें दिन एक सफाई कर्मचारी काल का ग्रास बनता है. और राज्यों से लेकर केंद्र में सरकार के अधीन नगरपालिकाएं, या प्रशासन, या निर्वाचित प्रतिनिधि अपेक्षित कदम उठाने की जिम्मेदारी एक दूसरे पर डाल कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं. हाथ से मैला साफ करने वाला वह दुर्भाग्यशाली इनसान तब सुर्खियों में आता है जब सीवर में दम घुटने या हादसे में उसकी मौत हो जाती है. पर किसी अधिकारी की जबान से यह नहीं निकलता कि ''यह हमारी समस्या है; हम इसका समाधान करेंगे.''

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नए प्रौद्योगिकीय साधन स्वागतयोग्य हैं. कितना अच्छा हो कि ये अमानवीय काम सफाई कर्मचारियों की बजाए मशीनें करने लगें. पर प्रौद्योगिकी समाधान समस्या का हल नहीं है क्योंकि बुनियादी तौर पर यह प्रौद्योगिकी की नहीं बल्कि एक सामाजिक समस्या है और इसके बाद प्रशासनिक. सफाईकर्मी वाल्मीकि जैसी जातियों से हैं जो सदियों से हाथ से मैला ढोते आ रहे हैं और छुआछूत का शिकार रहे हैं. इस जाति में जन्म लेना अभिशाप के समान है. यह जन्मजात जाति अन्याय के खिलाफ खड़े होने की आपकी क्षमता को पंगु कर देती है.

उसकी बेडिय़ां इतनी मजबूत होती हैं कि इस काम से पीछा छुड़ाने के बाद भी पैरों को जकड़े रहती हैं. वे भेदभाव से बचने के लिए अपनी पत्नियों से भी पहचान छिपाते हैं. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अपनी जाति की पहचान छिपाने की जरूरत में कैसी बेबसी होगी जो अंतरंग रिश्तों में सच का सामना नहीं कर सकती? कौन-सी तकनीक, कौन-सा ऐप, कौन सा विज्ञापन अभियान इसे ठीक कर सकता है?

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1993 और 2013 में पारित कानूनों के तहत हाथ से मैला साफ करना प्रतिबंधित है. फिर उसे लागू क्यों नहीं किया गया? सुप्रीम कोर्ट ने सीवर की सफाई में मरने वाले हर एक कर्मचारी के परिवार को 10 लाख रु. के मुआवजे का आदेश दिया है. फिर भी सिर्फ 2 प्रतिशत ही इसका लाभ उठा सके हैं. हमारी रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10-15 साल में सीवर की सफाई करने के दौरान करीब 1,870 सफाईकर्मियों की मौत हुई. कई मामले तो सामने भी नहीं आए.

अपनी किताब कर्मयोग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाथ से मैला साफ करने को एक 'आध्यात्मिक अनुभव' माना है. मेरा उनसे निवेदन है कि वे हाथ से मैला साफ करने वाले किसी व्यक्ति से व्यक्तिगत रूप से पूछें कि क्या दूसरों के मल साफ करने के दौरान उसे पलभर के लिए भी आध्यात्मिक अनुभव होता है, या रोजाना काम पर निकलना क्या उसके लिए तीर्थयात्रा जैसा है? दरअसल, इनके पास कोई और चारा भी नहीं, क्योंकि इन जातियों में जन्मे लोगों के लिए कोई वैकल्पिक रोजगार मौजूद नहीं है.

इस तरह का 'आध्यात्मिक' रंगरोगन कर सरकार इन लोगों के पुनर्वास के लिए धन आवंटित करने में कोताही करती है. अगर कोई छोटा कोष आवंटित होता भी है तो वह सरकारी विभागों की बंदरबांट और समितियों और सर्वेक्षणों के नाम पर उड़ा दिया जाता है. बेशक, सर्वेक्षण कर रहे सरकारी कर्मचारियों को तो रोजगार मिल जाता है, लेकिन उन्हें ही नहीं मिलता जिनके नाम पर कोष जारी होता है.

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यही सरकार स्वच्छता अभियान के तहत शौचालयों के निर्माण के लिए 2 लाख करोड़ रुपए आवंटित करती है. इनमें से अधिकतर शौचालय गड्ढे या सेप्टिक टैंक वाले होते हैं—5 करोड़ शौचालय का मतलब 5 करोड़ गड्ढे. इन्हें कौन साफ करेगा? वाल्मीकि लोग, और कौन? मीडिया की सुर्खियों में जगमग दिख रहा स्वच्छ भारत अभियान ऐसी तस्वीर पेश करता है मानो सभी भारतीय साफ-सफाई की इस नई लहर में मिल-जुलकर हाथ बंटा रहे हैं.

लेकिन जरा मरने वाले सफाई कर्मचारियों की जाति के बारे पिछला ब्योरा मालूम करें. सरकारी टास्क फोर्स के हाल के अनुमान के अनुसार, देश में हाथ से मैला साफ करने वालों की संक्चया 53,000 है. लेकिन यह अनुमान 640 जिलों में से सिर्फ 121 जिलों के सर्वेक्षण पर आधारित है. इसमें कुछ गलत है. हमारा अनुमान है कि उनकी संख्या करीब 1,50,000 है.

सरकार के बाद इसकी जिम्मेदारी समाज की है. हमें जातिगत भेदभाव, उसकी जड़ें कितनी गहरी या विस्तृत हैं, उसे खंगालने की जरूरत है. न तो समाज हमारा दुश्मन है, न राज्य. हम सरकार की नीतियों और परंपरा के वेश में सामाजिक भेदभाव का विरोध करते हैं. आज स्थितियां बदल गई हैं. समाज में कड़वाहट फैली है. पहले जब हमने ड्राई लैट्रिन के खिलाफ अभियान चलाया तो जिन लोगों ने असुविधाएं झेलीं, उन्होंने भी हमारे खिलाफ गुस्सा नहीं दिखाया था, बल्कि हमें समझा कि हम क्या और क्यों कर रहे हैं. हम चाय पीते हुए अपने मतभेदों पर चर्चा कर सकते थे. लेकिन आज हालात वैसे नहीं.

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वास्तविक आध्यात्मिक अनुभव तभी जीवंत होगा जब हाथ से मैला ढोने का चलन समाप्त होगा. उन बेबस परिवारों को सम्मानित रोजगार दिलाने की पहल होनी चाहिए जो जिंदा रहने के लिए इस काम को करने के लिए मजबूर हैं.

(सोपान जोशी के साथ बातचीत पर आधारित)

बेजवाड़ा विल्सन सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं . उन्हें  2016 में मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया.

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