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खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ी और उनकी आत्महत्या की गिनती भी

देश में 86 लाख किसानों की संख्या कम हो गई और विरोधाभासी रूप से खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ गई. साफ है कि किसान, मजदूर बन गए. इसके साथ यह आंकड़ा भी देखिए, जिसे एनसीआरबी ने लंबे अंतराल के बाद जारी किया है कि देश में किसानों की तुलना में खेतिहर मजदूर अधिक आत्महत्या करने लगे हैं

फोटो सौजन्यः इंडिया टुडे फोटो सौजन्यः इंडिया टुडे
मंजीत ठाकुर
  • नई दिल्ली,
  • 08 जनवरी 2020,
  • अपडेटेड 2:28 PM IST

देश में तमाम किस्म की उथल-पुथल और विरोध प्रदर्शनों के बीच एक आंकड़ा आया और आकर चला गया. अधिक लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने लंबे समय बाद देश भर में 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के लिहाज से देश भर में कतिपय कारणों से कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में बढ़ोतरी हुई है.

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8 नवंबर को वर्ष 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में कृषि क्षेत्र (किसान और खेतिहर मजदूर) में कुल 11,379 आत्महत्याएं हुईं. इस आंकड़े को विस्तारित करें तो हर महीने करीब 948 और रोजाना करीबन 31 आत्महत्याएं देश भर में हुईं. 

एनसीआरबी के मुताबिक, देश में 2015 के मुकाबले किसानों की आत्महत्याओं में 11 फीसद की कमी आई है.

गौरतलब है कि साल 2016 में देश भर में कुल 6,270 किसानों ने आत्महत्या की है. साल 2015 में यह आंकड़ा 8,007 था. दूसरी तरफ खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की गिनती में बढ़ोतरी हुई है. इस बीच, एक आंकड़ा यह भी है कि देश में किसानों की संख्या (अंदाजन 86 लाख) में कमी आई है तो कृषि मजदूरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है.

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इस समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है और किसानों की मौत का आंकड़ा सिर्फ एक संख्या ही नहीं है. ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में सार्वजनिक नीति पढ़ाने वाले स्वागतो सरकार लिखते हैं, "भारत में जमींदारो किसानों के एक राजनैतिक वर्ग का उदय इसके पीछे एक बड़ा कारण है. जिन्होंने राज्य सब्सिडी और मुफ्त वस्तुओं पर कब्जा करने और सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठाने वाला एक विस्तृत तंत्र विकसित किया है." जाहिर है, सरकारी नीतियों का फायदा किसानों के निचले और जरूरतमंद तबके तक नहीं पहुंच पाता है. 

आंकड़े यह बताते हैं कि देश में शीर्ष 10 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 54 फीसद का मालिकाना हक है जबकि नीचे की 50 फीसद भूमि 3 फीसद (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 399) से कम है. आधी आबादी के इसी निचले वर्ग का भविष्य अनिश्चित है और उन्हें मौत के कुएं की तरफ धकेल रहा है. 

नेशनल सैंपल सर्वे 2014 बताता है कि एक औसत किसान परिवार अपनी सालाना आमदनी का सिर्फ आधा हिस्सा ही खेती से कमाता है. इसके अलावा खेती में सुधार  और आमदनी बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बैंकों के पीछे हटने  इन किसानों को साहूकारों के सामने ला खड़ा किया है. सिंचाई की कमी, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी की उर्वरता में कमी और फसलों की कीमतों में अस्थिरता (मिसाल के लिए टमाटर, आलू और प्याज) जैसी समस्याओं ने किसानों की स्थिति डांवाडोल कर दी है. 

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2011 की जनगणना बताती है कि देश में कृषि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे विघटन की ओर जा रही है. किसानों की संख्या में आई गिरावट और खेतिहर मजदूरो की संख्या में बढ़ोतरी साफ संकेत है कि किसान अब मजदूर बन रहे हैं. 

खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा 2015 में 4,595 था जो  2016 में बढ़कर 5,109 हो गया. एक लाख की आबादी पर आत्महत्या की राष्ट्रीय दर 10.3 है. 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह दर राष्ट्रीय स्तर से अधिक है. सिक्किम में यह सर्वाधिक 40.5 है.

एनसीआरबी के अनुसार, 2016 में देशभर में कुल 1,31,008 लोगों ने आत्महत्या की. इसमें कृषि क्षेत्र में की गई आत्महत्या 8.7 फीसद है. 2015 की तरह 2016 में भी महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की कुल आत्महत्या में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 32.2 फीसद है. इसके बाद कर्नाटक (18.3 फीसद), मध्य प्रदेश (11.3 फीसद), आंध्र प्रदेश (7.1 फीसद) और छत्तीसगढ़ (6 फीसद) सर्वाधिक आत्महत्या वाले राज्यों में शामिल हैं.

आत्महत्या करने वाले 6,270 किसानों में 275 महिलाएं हैं. वहीं कृषि श्रमिकों में 633 महिलाओं ने आत्महत्या की. रिपोर्ट के अनुसार, बिहार, बंगाल और नगालैंड जैसे राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की. 

संकट में पड़ा किसान, कर्ज में फंसा किसान, जमीन खो रहा किसान मजदूर बनकर आत्महत्या कर रहा है. यह मर्ज इतना बड़ा है कि सरकार आंकड़े जारी करने में देरी कर रही है और इसकी दवा सिर्फ और सिर्फ साहसिक और तत्काल सुधार हैं लोकलुभावन बजटीय प्रावधान नहीं.

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(मंजीत ठाकुर इंडिया टुडे के विशेष संवाददाता हैं)

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