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ज्यादातर मिसाइल लॉन्चर की पेटेंट अर्जियां पांच साल से लटकीं

पेटेंट में बेइंतिहा देरी ने रक्षा क्षेत्र में ‘मेक इन इंडिया’ पर खड़े किए सवाल. ज्यादातर मिसाइल लॉन्चर की पेटेंट अर्जियां पांच साल से लटकीं. इससे रक्षा वैज्ञानिक हो रहे निराश.

पीयूष बबेले
  • नई दिल्ली,
  • 02 दिसंबर 2014,
  • अपडेटेड 2:00 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी ‘‘मेक इन इंडिया’’ अभियान को रक्षा क्षेत्र से बड़ी चुनौती मिलने वाली है. मोदी चाहते हैं कि दुनियाभर की कंपनियां भारत में आकर भारत के लिए हथियार और साजो-सामान बनाएं और भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान इतने मजबूत हों कि वे दूसरे मुल्कों से आधुनिक तकनीक खरीदने की बजाए बेचने की हैसियत में आ सकें.

पर हकीकत यह है कि देश में रक्षा संबंधी उपकरण और तकनीक बनाने वाली शीर्ष सरकारी संस्था रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) को ही अपनी एक-एक खोज और उपकरण को पेटेंट कराने में 10-10 साल तक लग जा रहे हैं. अपनी खोज पर पेटेंट नहीं मिल पाने की स्थिति में डीआरडीओ अंतरराष्ट्रीय प्रतिरक्षा बाजार से आंख मिलाए तो कैसे?

इंडिया टुडे ने डीआरडीओ की ओर से संवेदनशील मिसाइल प्रणाली के बारे में डाली गई दर्जनों पेटेंट अर्जियों की एक-एक कर पड़ताल की और पाया कि पांच साल पहले डाली गई ज्यादातर अर्जियों पर तो अभी विचार भी शुरू नहीं हुआ है. ये अर्जियां ऐसी मिसाइलों से संबंधित थीं, जिन्हें दुर्गम, समुद्री इलाकों और विपरीत परिस्थितियों में सफलतापूर्वक दागना है. दिलचस्प यह है कि देश का पेटेंट कार्यालय इन अर्जियों को बिल्कुल तवज्जो नहीं दे रहा, पर रूस, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर जैसे देशों से कई अर्जियों को दो साल के अंदर पेटेंट प्रमाणपत्र मिल गया.

विदेश में पास और देश में लटके
मिसाइल लॉन्चर और रोबोटिक्स से जुड़े निर्माण में अव्वल डीआरडीओ की पुणे प्रयोगशाला रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट स्टैब्लिशमेंट (इंजीनियरिंग) ने 2007 में ब्रह्मोस मिसाइल के लिए मोबाइल मिसाइल लॉन्च सिस्टम तैयार किया. इससे जुड़े अलग-अलग पेटेंट हासिल करने के लिए 2009 में अर्जी लगाई गई.

पांच साल में इनमें से किसी भी अर्जी को पेटेंट हासिल नहीं हुआ है. कुछ पर लिखा है कि आवेदन का परीक्षण किया जाना है, तो बाकी पर लिखा है कि आवेदन का परीक्षण चल रहा है. इसी दौरान 2010 में दायर इसी तरह के पेटेंट आवेदनों को दक्षिण अफ्रीका ने मई 2012 में और सिंगापुर ने नवंबर 2012 में पेटेंट जारी कर दिया.

अब देखिएः ब्रह्मोस मिसाइल के लिए ही बनाए जा रहे मोबाइल मिसाइल ऑटोनॉमस लॉन्चर को भारत में पेटेंट का इंतजार है, जबकि रूस सरकार ने इसे पेटेंट जारी कर दिया है. इस लॉन्चर को भारत और रूस के 35 वैज्ञानिकों की टीम ने तीन साल की मेहनत के बाद तैयार किया था. यह लॉन्चर खास तौर पर नौसेना के लिए तैयार किया गया है.

खतरे में मेक इन इंडिया
इंडिया टुडे ने जिन पेटेंट आवेदनों को खंगाला उनमें सबसे पुराना आवेदन 2006 का है. ‘‘इलेक्ट्रिक कनेक्टर मैकेनिज्म’’ के लिए अब तक पेटेंट जारी नहीं किया गया है. पेटेंट हासिल न होने का सीधा मतलब है कि आपकी तकनीक कभी भी चोरी हो सकती है और उसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग का अंदेशा रहता है.

जब दूसरे देशों से हमारी तकनीक को पेटेंट मिल सकता है तो अपने देश में आखिर इतना वक्त क्यों लग रहा? अपने छह पेटेंटों की बाट जोह रहे डीआरडीओ के एक वैज्ञानिक का दर्द है, ‘‘तकनीक की दुनिया बहुत तेजी से बदलती है, ऐसे में आठ-दस साल बाद तो हमारी मेहनत कूड़ा हो जाएगी.’’ इस मुद्दे पर डीआरडीओ खुलकर कुछ बोलने को तैयार ही नहीं.

संस्था के सूचना निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक रवि कुमार गुप्ता का तर्क है कि ‘‘पेटेंट न मिलने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. हमारी सेनाओं को जिन उपकरणों और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना है, उसे इस्तेमाल कर सकती है. पेटेंट का मुख्य मकसद तो यह है कि आपकी तकनीक कोई दूसरा हासिल न कर सके और करे तो आपको रॉयल्टी दे.’’

‘‘मेक इन इंडिया’’ की याद दिलाने पर वे कहते हैं, ‘‘डीआरडीओ प्रौद्योगिकी निर्यात को लेकर अभी तक तो बहुत आक्रामक नहीं रहा है लेकिन मेक इन इंडिया जैसी परियोजनाओं में विभिन्न हिस्सेदारों की भागीदारी होगी, ऐसे में बेहद धीमी पेटेंट प्रक्रिया चुनौती पेश कर सकती है.’’ यानी रक्षा बाजार खुलते ही पेटेंट जरूरी होंगे.

पहले भी उठाया है खामियाजा
इस साल 5 अगस्त को उस वक्त के रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने भारत की 10 प्रमुख रक्षा परियोजनाओं में देरी की जो वजहें राज्यसभा में गिनाईं उनमें स्वदेशी तकनीक हासिल होने में लगने वाले लंबे वक्त को भी एक अहम कारण माना. अपने बयान में उन्होंने कहा कि लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट फेज 2 की डेडलाइन दिसंबर 2008 से बढ़ाकर मार्च 2015 करने की एक वजह यह भी रही कि बड़े देशों ने तकनीक देने से मना कर दिया.

‘‘जमीन से हवा में मार करने वाली लंबी दूरी की मिसाइल’’ की समय सीमा मई 2011 से बढ़ाकर दिसंबर 2015 करने की एक वजह है कि बहुत-सी तकनीकें पहली बार विकसित की गईं. ‘‘नैवल लाइट कॉम्बैट वेहिकल फेज वन्य में चार साल की देरी की वजह अनुमानित से कहीं आधुनिक तकनीक की जरूरत आन पडऩा रही. यह बयान इस तरफ साफ इशारा करता है कि भारत के पास सही समय पर सही तकनीक मौजूद नहीं थी औैर इस क्षेत्र में तेज काम करने की जरूरत है. गुप्ता के मुताबिक, इस समय डीआरडीओ के 500 से ज्यादा पेटेंट अर्जियां लंबित हैं.

पेटेंट दफ्तर में छह साल का बैकलॉग
पेटेंट विभाग के मुंबई दफ्तर के एक वरिष्ठ अधिकारी आगाह करते हैं, ‘‘अगर किसी अर्जी से संबंधित शोधपत्र को प्रकाशित होने में या उसकी जांच शुरू होने में ही कई साल लग जाते हैं और इस बीच कोई दूसरा पक्ष उस तकनीक को बना लेता है, तो पेटेंट दूसरे पक्ष के खाते में भी जा सकता है.’’ इस अधिकारी के शब्दों में, ‘‘पेटेंट विभाग में कम से कम छह साल की पेंडिंग लिस्ट चल रही है और डीआरडीओ या किसी दूसरी संस्था को इसमें कोई वरीयता नहीं है.’’

अगर एक दशक बाद पेटेंट मिल भी जाए और फिर मामला अदालत में चला जाए तो भगवान ही मालिक, क्योंकि भारत में आवेदन करने की तारीख से अगले 20 साल के लिए ही पेटेंट वैध होता है. पेटेंट ऑफिस में  इस समय 1.5 लाख अर्जियां लंबित हैं.

पेटेंट विभाग के कामकाज को तेज करने के लिए पिछली सरकार ने यहां 254 अधिकारियों-कर्मचारियों की भर्ती का प्रस्ताव बनाया था. नई सरकार ने आते ही इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया. फिलहाल दो महीने से यह प्रस्ताव वित्त मंत्रालय की मंजूरी के लिए पड़ा है. हालांकि ये भर्तियां होने का मतलब यह नहीं कि रातोरात पेटेंट विभाग के काम में चक्के लग जाएंगे.

चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों की मौजूदगी में भारतीय वैज्ञानिकों की रक्षा संबंधी खोजों को एक मुहर के इंतजार में सड़ते रहने की रवायत को भारत कब तक ढोता रहेगा?

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