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बरेली शहर में घुसते ही जब संकरी गली बिहारीपुर ढाल से होकर दरगाह आला हजरत और खानकाह-ए-नियाजिया की ओर बढ़ेंगे तो सामाजिक भाईचारे की अलग तस्वीर दिखेगी. दोनों दरगाह के अनुयायियों के विचारों में फर्क जरूर दिखेगा, लेकिन दरगाह के आसपास हिंदू-मुसलमानों के आपस में सटे हुए घर इस्लामिक अध्यात्मवाद के केंद्र बरेली शरीफ की महत्ता को और बढ़ाते हैं. यहां की गतिविधियां देश की मौजूदा सियासी आंच को बखूबी महसूस कर रही हैं.
खानकाह-ए-नियाजिया दरगाह के प्रबंधक शब्बू मियां कहते हैं, ''ऐसा पहली बार हो रहा है कि यहां नौजवान देश की सियासत और नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी के विषय पर बौद्धिक बहस कर रहे हैं.” लेकिन मौजूदा राजनैतिक परिस्थितियों पर किसी पार्टी या नेता के विरोध या समर्थन को लेकर कोई अंध राय नहीं, बल्कि युवा और धर्मगुरु बाकायदा इसके लिए दलील भी दे रहे हैं.
बदले हुए मोदी मुसलमान समुदाय के बीच आशंकाओं से भरी चर्चा का विषय बन रहे हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री पद का दावेदार प्रोजेक्ट करने की हलचल और उनके बारे में जमीयत उलमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी के विचार (देखें इंटरव्यू: ''हालात बदल रहे हैं, जमाना बदल रहा है”) से समाज पूरी तरह इत्तेफाक रखता नहीं दिख रहा.
उधर, यहां से करीब 300 किमी दूर देवबंद के दारुल उलूम में मगरिब (सूर्यास्त के बाद) की अजान होती है और शागिर्द-उस्ताद, सब आलीशान मस्जिद की ओर बढऩे लगते हैं. सियासत और दुनियावी मामलों से दूर सुन्नी इस्लाम के इस गढ़ में देश-दुनिया के करीब 7,000 छात्र दीनी तालीम हासिल करते हैं. इत्तेफाक से मौलाना महमूद मदनी का घर उसी मस्जिद के सामने है और उनके पूर्वजों ने इस इदारे को चलाने में बहुत अहम किरदार निभाया है.
शागिर्द और उलेमा सियासी मामलों पर बोलने से कतराते हैं, लेकिन कैंपस में ही स्थित मदनी आई हॉस्पिटल के प्रभारी इसरार अहमद कहते हैं, ''महमूद भाई ने ऐसा कतई नहीं कहा कि मुस्लिम मोदी को सपोर्ट करते हैं. गुजरात के कुछ हलकों में मुसलमान उन्हें सपोर्ट करते होंगे क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है. गुजरात कांग्रेस का रवैया बीजेपी से कम नहीं है.” वे किसी भी तरह मोदी की तारीफ सुनने को तैयार नहीं हैं.
जुलाई 2011 में दारुल उलूम के वाइस चांसलर गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को अपने पद से सिर्फ इसलिए हाथ धोना पड़ा कि उन्होंने उत्तर भारत के मुसलमानों पर टिप्पणी के साथ ही गुजरात में मुसलमानों की स्थिति बेहतर बताई, हालांकि बाद में उन्होंने यह कहकर बीजेपी को नाराज कर दिया, ''मैंने कभी मोदी की तारीफ नहीं की. जालिम की तारीफ जुर्म है.” जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष और महमूद मदनी के चाचा मौलाना सैयद अरशद मदनी कहते हैं, ''मोदी मुसलमानों का ही कातिल नहीं, बल्कि इंसानियत का कातिल है. जो नजरिया हिंदुस्तान को जम्îरियत से हटाकर हिंदू स्टेट की ओर ले जाना चाहता है, मोदी उसका मुद्दई है.”
दारुल उलूम से सटे देवबंद की सबसे बड़ी रशीदिया मस्जिद में 22 फरवरी को नमाज अदा कर लौटते 20 वर्षीय मो. अमीरुल इस्लाम जो कोलकाता से यहां पढऩे आया है, दोस्तों की मनाही के बावजूद खुलकर बात करने को तैयार है. अमीरुल कहता है, ''हम तो इंसाफपसंद को और जिस पर एतमाद होगा, उसी को वोट देंगे.”
हालांकि एक अन्य युवा मोदी की विकास की छवि के बारे में टिप्पणी करता है, ''नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली.” लेकिन मौजूदा सियासी हलचल पर दारुल उलूम वक्फ से जुड़े इस्लामिक लेखक मौलाना अब्दुल्ला जावेद की राय थोड़ी जुदा है. वे कहते हैं, ''अभी बिसात बिछी नहीं है, मोहरे फिट नहीं हुए हैं, इसलिए लोकतंत्र का तकाजा है कि अभी इंतजार करना चाहिए.” जावेद यह भी कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि मुसलमान कांग्रेस से बहुत खुश हैं. यूपी और बिहार में कांग्रेस मुसलमानों की नाराजगी का खामियाजा भुगत रही है. उनके मुताबिक, पार्टी कोई भी हो, उसका हुकूमत का चेहरा अलग और सत्ता से बाहर का चेहरा अलग होता है.
लेकिन देवबंद और सहारनपुर का मुस्लिम व्यवसायी मोदी के प्रति उतना ही नरम दिखता है, जितना गुजरात का मतदाता. सहारनपुर में पुश्तैनी वुडकार्विंग व्यवसाय से जुड़े व्यापारी असलम सैफी तो मोदी पर लगने वाले दंगों के आरोप को ही खारिज करते हैं.
वे कहते हैं, ''गुजरात दंगा कुछ दंगाइयों की वजह से हुआ, मोदी की भूमिका होती और उनकी ऐसी सोच होती तो गुजरात में 2002 के बाद फिर दंगे हो सकते थे. अगर आज यूपी में कोई दंगा हो जाए तो क्या हम मुलायम सिंह को दोषी मान लेंगे. अब वक्त बदल रहा है, गुजरात के मुसलमानों ने मोदी को स्वीकार किया है.” हालांकि वे मानते हैं कि अभी मुसलमानों की सोच पूरी तरह मोदी के प्रति नहीं बदली है.
देवबंद से मात्र 35 किमी की दूरी पर स्थित जिला मुख्यालय सहारनपुर में डेढ़ सौ साल पुराने मदरसा मजाहिरुल उलूम के आंगन में शहर के विभिन्न हलकों के मशîर-मारूफ लोग सियासी पार्टियों और मुसलमानों के हालात पर गुफ्तगू कर रहे हैं. उनकी गुफ्तगू में आतंकवाद, अफजल गुरु, मोदी, बीजेपी, आरएसएस, इंसाफ, संविधान जैसे शब्द बार-बार आते हैं. उत्तर प्रदेश पुलिस के एक पूर्व पुलिस इंस्पेक्टर कहते हैं, ''सभी पार्टियों ने मायूस किया है.” तो क्या अब 'विकास पुरुष’ मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को आजमा सकते हैं? इस पर सबकी स्पष्ट राय है, ''नहीं.
मोदी को कतई नहीं.’’ लेकिन गुजरात में तो कुछ मुसलमानों ने मोदी को वोट-सपोर्ट दिया है? ''वहां के लोगों ने मोदी से डर कर वोट दिया है. उनके सामने कोई विकल्प नहीं है.” हाशिमपुरा, मलियाना, भागलपुर, मुरादाबाद, नेल्ली जैसे दंगे कांग्रेस के राज में हुए और किसी को सजा तक नहीं हुई, लेकिन मोदी के राज में कुछ दोषियों को सजा हो गई है? ''सजा दिलाने का काम सुप्रीम कोर्ट ने किया है. जहां सियासी रहनुमाओं ने हमें धोखा दिया, वहीं मुल्क की ऊपरी अदालतों ने संविधान और इंसाफ में हमारा विश्वास बहाल रखा है.”
लेकिन विकास के पैमाने पर लगातार पिछड़ रहे इस समुदाय के ज्यादातर लोगों का सियासी दलों से मोह टूटने लगा है. लखनऊ में शिया धर्म गुरु और इमाम-ए-जुमा मौलाना कल्बे जव्वाद कहते हैं, ''आजादी के बाद से अभी तक किसी भी पार्टी ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और दूसरे राजनैतिक दलों से मुसलमानों का भरोसा उठ चुका है.” मेरठ के सामाजिक कार्यकर्ता परवेज जमील का कहना है, ''देश में सबसे ज्यादा दंगे कांग्रेस के शासन में ही हुए और दोषियों को सजा दिलाने के लिए उसने खास कुछ नहीं किया. अब से करीब 26 साल पहले राज्य में कांग्रेसी मुख्यमंत्री और केंद्र में कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, तब बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को पीएसी के जवानों ने मार दिया और इस मामले में आज तक गवाही भी पूरी नहीं हो पाई है.”
समावेशी विकास का दम भरने वाली कांग्रेस के दावों की पोल सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में खुल चुकी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल पर बनी जस्टिस रजिंदर सच्चर कमेटी ने पाया कि शिक्षा, नौकरी से लेकर बैंक से कर्ज पाने तक हर मामले में मुसलमान देश का सबसे पिछड़े हुए समुदाय है.
कुछ लोगों का मानना है कि कांग्रेस मुसलमानों को सियासत के हाशिए पर पहुंचा देना चाहती है. युवक कांग्रेस के एक पदाधिकारी कहते हैं, ''राहुल गांधी की कोर टीम में एक भी मुसलमान नहीं है. उनको युवा नेताओं की जरूरत है लेकिन सियासत महंगा शगल है. ब्लॉक स्तर से लेकर विधानसभा स्तर तक चुनाव लडऩे के लिए मोटा पैसा चाहिए. अगर आपके पास पैसा नहीं है तो आप सिर्फ कोटे के भरोसे बैठे रहिए, नेताओं के रहमो-करम पर नेता बनेंगे तो आपका क्या आधार होगा?”
समुदाय के लोगों का मानना है कि सियासी पार्टियों ने उन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल किया है. सवाल यह है कि अगर सारी पार्टियों ने मायूस किया है और मुस्लिम पार्टियां कामयाब नहीं हैं तो समुदाय के पास कौन-सा विकल्प बचता है?
कभी राजीव गांधी के करीबी रहे सेंट्रल हज कमेटी के पूर्व चेयरमैन और फिलहाल न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लि. के निदेशक मंडल के सदस्य सलामतुल्लाह कहते हैं, ''मुसलमान क्षेत्रीय पार्टियों को बढ़ावा दे सकते हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में उनके पास विकल्प हैं. अब आंध्र प्रदेश में भी विकल्प उभर रहा है.” मदनी की आलोचना करते हुए वे कहते हैं, ''वे मुसलमानों के कातिलों का कैंपेन करते रहे हैं, पहले बुश का किया, अब मोदी का कर रहे हैं. एक बार भी लोकसभा चुनाव नहीं जीत पाए. राज्यसभा का वादा हो गया होगा.”
दारुल उलूम के एक वरिष्ठ प्रोफेसर कहते हैं, ''वस्तानवी की विदाई के साथ ही यहां से विकास की सोच चली गई. हमें तो सिर्फ धार्मिक शिक्षा तक सीमित रख दिया गया है.” राजनैतिक मसलों पर बात रखने का हक यहां की मजलिस-ए-शूरा ने यूनिवर्सिटी से जुड़े किसी व्यक्ति को नहीं दे रखा है. अधिकांश छात्र और प्रोफेसर कबूलते हैं कि मोदी को लेकर चर्चा होती है लेकिन समुदाय से जुड़े बड़े नेता जो तय करेंगे, आखिर में वही होगा. प्रोग्रेसिव सोच के लिए पहचाने जाने वाले इस प्रोफेसर का मानना है, ''आपसी लड़ाई से तरक्की नहीं हो सकती. यह दूरी घटनी चाहिए. अगर बीजेपी धार्मिक चोला उतार फेंक सही मायने में एक राजनैतिक पार्टी बने तो मुस्लिम समाज उस विकल्प पर विचार जरूर करेगा.”
वे जोर देकर कहते हैं, ''आज नहीं तो कल, करना तो पड़ेगा. मुसलमानों को भी सोच बदलनी पड़ेगी. हालांकि मोदी के विकास के प्रति उनका नजरिया सुरक्षा से जुड़ा है.” उनका मानना है कि जब तक सुरक्षा और अवाम को सुकून न हो तब तक विकास के मायने नहीं है और मोदी के सामने यही एक बड़ी चुनौती है.
इमारत शरिया के प्रमुख मौलाना निजामुद्दीन हालांकि राजनैतिक मुद्दों पर बातचीत से इनकार करते हैं, लेकिन वे यह स्वीकार करते हैं कि घोटालों और महंगाई पर रोक लगाने में नाकामी के बावजूद ''कांग्रेस से नाउम्मीदी नहीं है.” मौलाना अरशद मदनी का कहना है, ''कांग्रेस का नेतृत्व सेकुलर है. यह दीगर बात है कि उसमें नीचे के ओहदों पर कुछ लोग सिर्फ नाम के कांग्रेसी हैं.” वे बताते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व उनकी बातें सुनता है.
साथ ही वे यह भी कहते हैं, ''ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मुसलमानों की हालत बिल्कुल ही खराब होती जा रही है. हां, यह कह सकते हैं कि मुल्क में बाकी समुदायों ने जितनी तेजी से विकास किया है, उसके मुकाबले मुसलमान पिछड़ गए हैं.” बरेली के नवीर-ए-आला हजरत मोहम्मद उस्मान रजा खान राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में खुद को कांग्रेस के प्रति नरम बताते हैं, ''कोई विकल्प नहीं होने की वजह से कांग्रेस को ही चुनेंगे, क्योंकि तीसरे मोर्चे का अस्तित्व नहीं रहा.”
मदनी के मोदी पर दिए बयान के विरोध से जाहिर है कि ज्यादातर मुसलमानों को पल भर के लिए बीजेपी पसंद हो, पर मोदी नहीं. भोपाल में दारुल उलूम ताजुल मसाजिद में काम करने वाले नबील हसन का कहना है, ''मोदी ने जो किया, वह इंसान के दिल से इतनी जल्दी जाने वाला नहीं है. हमें बीजेपी मंजूर हो सकती है, लेकिन मोदी तो कतई मंजूर नहीं हैं.” गुजरात से बाहर का मुसलमान मोदी को माफ करने के लिए तैयार नहीं है.
मध्य प्रदेश में मुसलमानों के मसले और दूसरे मसले उठाने वाले संयुक्त संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष शम्सुल हसन कहते हैं, ''दोनों पार्टियों ने कौम को बांटने का काम किया है. मुसलमानों की मौजूदा हालत के लिए बीजेपी और कांग्रेस बराबर दोषी हैं.” हालांकि कुछ मुस्लिम नेताओं का मानना है कि खुद बीजेपी के नेता मोदी को आगे नहीं बढऩे देंगे. उन सबकी दलीलें अलग हैं. बरेली शब्बू मियां की दलील है, ''अगर मोदी सिर्फ विकास के एजेंडे पर आगे बढ़ें तो पार्टी के लोग उन्हें वापस मूल विचारधारा की ओर वापस लाने की कोशिश करेंगे.” मजहबी किस्म के लोगों को उम्मीद है कि हिंदुस्तान की जनता ऐसा नहीं होने देगी.
सहारनपुर के मजाहिरुल उलूम के सचिव मौलाना शाहिद कहते हैं, ''जो लोग अपनी फिरकावाराना जेहनियत से इस मुल्क में रहने वालों में टकराव पैदा करेंगे, उन्हें इस मुल्क का सच्चा हिंदू और सच्चा मुसलमान कभी अपना एतमाद और एतबार नहीं दे सकता, चाहे वह कितना बड़ा आदमी हो.”
इंडियन मुस्लिम रिजर्वेशन ऐंड एजुकेशनल मिशन के अध्यक्ष हाजी नसीमुद्दीन कहते हैं, ''हमें एजुकेशन, रिजर्वेशन और प्रोटेक्शन चाहिए. जो पार्टी हमें ये तीनों मुहैया कराएगी, समुदाय उसी का समर्थन करेगा.” सहारनपुर के नायब शहर काजी नदीम अख्तर कहते हैं, ''इंसान की बुनियादी जरूरत—रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हो जाए तो वह आगे की बात सोच सकता है. पहले इन जरूरतों को पूरी करने के बारे में सोचा जाना चाहिए.” वे बताते हैं कि उनके जिले को मुस्लिम कंसंट्रेशन डिस्ट्रिक्ट में से एक माना गया है, लेकिन इसके नाम पर आने वाले फंड को मुस्लिम बÞल इलाकों में खर्च नहीं किया जाता. गौरतलब है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के छह साल बाद मुसलमानों की स्थिति पर अर्थशास्त्री अबु सालेह शरीफ की रिपोर्ट में जिले की जगह ब्लॉक स्तर पर फंड आवंटित करने की सिफारिश की गई है.
मोदी बीजेपी में ध्रुवीकरण के कारक हैं और उनका नाम आते ही मुसलमान ध्रुवीकृत हो जाते हैं. खुद बीजेपी और आरएसएस के अंदर उनके नाम को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई है. लेकिन कुछ लोग उनके विकास से प्रभावित हैं.
पटना में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के छात्र आकिब मन्नान का कहना है, ''देश निजी पसंद-नापसंद से ऊपर है. देश को मोदी जैसा नेता चाहिए. इस तरह की सोच रखने वाला मैं अपने समुदाय में अकेला नहीं हूं.” भोपाल में दारुल उलूम ताजुल मसाजिद के नायब प्रिंसिपल हसन अली खान नदवी को बीजेपी से कोई परहेज नहीं है. वे कहते हैं, ''मोदी ने एक तरह से अपने गुनाह का प्रायश्चित कर लिया है और अगर कोई प्रायश्चित कर ले तो उसे माफ किया जा सकता है.”
मुस्लिम मूड से यही पता चला है कि 2014 में मुसलमान वोट उसी तरह बंटकर पड़ेगा जिस तरह हिंदू वोट बंटकर गिरता है. भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी बात है कि ऐसा हो रहा है.
—साथ में लखनऊ से आशीष मिश्र, पटना से अमिताभ श्रीवास्तव और भोपाल से शुरैह नियाजी