नई दिल्ली लंबे समय से विदेश नीति के मामले में सीढ़ी-दर सीढ़ी बढ़ने का तरीका अपनाती रही है—एक-एक करके और क्रम से. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे बदलने को उत्सुक हैं. वे अधिकतम संभव नतीजा हासिल करना चाहते हैं, किसी भी देश से भारत को जो भी मिल सकता है—वह सब जुटाना चाहते हैं, वे दूसरे राज्य या राष्ट्र प्रमुखों से मिलने के लिए आगे बढ़कर हाथ मिलाने को तैयार हैं, भले ही इसमें अतिरिक्त राजनैतिक जोखिम हो. संक्षेप में, वे भारत की विदेश नीति को अपने विशाल और महत्वाकांक्षी घरेलू एजेंडे के साथ जोड़ देना चाहते हैं.
ऐसा करके मोदी दूसरों की अपेक्षाएं भी बढ़ाते जा रहे हैं, और यह वह दायरा है, जिसमें भारत फिसड्डी साबित होता रहा है. चाहे निवेश का मामला हो या अन्य देशों में, विशेष रूप से पड़ोस में, परियोजनाएं अपने हाथ में लेने का मामला हो, भारत का किया गया काम कही गई बातों से अक्सर काफी कम साबित होता रहा है.
इन ध्रुवों के बीच मोदी सरकार की विदेश नीति कुछ स्पष्ट सिद्धांतों के ईदगिर्द आकार ले रही है. मसलन, घरेलू प्रयासों में प्राण फूंकने के लिए स्वच्छ गंगा, स्मार्ट शहर और अक्षय ऊर्जा जैसी श्रेष्ठ परंपराओं को शुरू करना; दक्षिण एशिया में आर्थिक चुंबक और सुरक्षा के विशुद्ध प्रदाता के रूप में उभरना, जिसका विस्तार हिंद महासागर तक हो; विदेश स्थित प्रभावशाली भारतीय समुदाय को एक मजबूत लॉबी समूह के रूप में संगठित करके दबदबा बढ़ाना; प्रभाव क्षेत्र को एक सांस्कृतिक ढांचे में परिभाषित करना.
पड़ोस और प्रभाव क्षेत्र
उनका दृष्टिकोण अधिकतम संभव हासिल करने का है, जिसकी शुरुआत सार्थक आर्थिक सहयोग में अड़चन डालने वाली राजनैतिक बाधाओं को हटाने के साथ होती है. मसलन, श्रीलंका के नए राष्ट्रपति भारत आए, तो यह स्पष्ट था कि कोलंबो में राजनैतिक स्थिति अभी स्थिर नहीं हुई है, लिहाजा ठोस अर्थों में बहुत कुछ नहीं हो सकेगा. इसके बावजूद, नागरिक परमाणु समझौते का विचार तलाशा गया और उस समझौते पर हस्ताक्षर कर लिए गए, सिर्फ यह संकेत देने के लिए कि कुडनकुलम में भारत द्वारा रिएक्टरों का निर्माण किए जाने के भय से उत्पन्न नकारात्मक भावना से दोनों देश पार पा चुके हैं. इसी प्रकार के विचार ने अमेरिका के साथ परमाणु जवाबदेही की अड़चन का हल निकालने में मदद की थी और इससे दोनों पक्षों को आगे बढ़ने और एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) की सदस्यता जैसे मुद्दों पर ध्यान लगाने का मौका मिला था.
इस्लामाबाद में तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (तापी) के संचालन समूह की बैठक में मंत्रियों के समूह में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सबसे दूर वाले छोर पर बैठे थे, तभी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ उन तक पहुंचे. वे उन्हें एक तरफ ले गए और थोड़ी देर साथ चले, उन्होंने उनसे मोदी के बारे में पूछा और जानना चाहा कि उनकी सरकार कैसी चल रही है.
इस तरह शरीफ ने संकेत दिया कि वे बातचीत शुरू करने के लिए उत्सुक हैं. इस बीच पाकिस्तान सरकार ने लश्कर-ए-तैयबा के कमांडर जकी-उर-रहमान लखवी की संभावित रिहाई को लेकर भारतीय चिंताओं को दूर करने की कोशिश यह तय करके की कि वह जेल में ही बना रहे. भारत में इसे सकारात्मक तौर पर देखा गया और इससे भारत को बातचीत न करने के रुख से थोड़ा नरम पड़ने का मौका मिला.
हालांकि चिंताएं अभी बाकी हैं क्योंकि पाकिस्तान अब भी कश्मीर में अलगाववादी समूहों से बात करने की स्वतंत्रता चाहता है. और इसी कारण मोदी की क्रिकेट कूटनीति महत्वपूर्ण हो जाती है. इस प्रतीकवाद के पीछे पाकिस्तान को एक बार फिर दक्षेस के विमर्श में लाने का एक नया प्रयास छिपा है. असल में, इस समय सभी पड़ोसी देशों में राजनैतिक माहौल भारत के पक्ष में है, विचार यह है कि पाकिस्तान के साथ बात आगे बढ़ाई जाए, और दक्षेस के झंडे तले कामकाज आगे बढ़ने दिया जाए. अगर पाकिस्तान अडि़यल ही बना रहता है तो भारत बांग्लादेश, भूटान और नेपाल के पार ग्रिड कनेक्टिविटी प्रदान करने वाली बीबीआइएन ग्रिड जैसी परियोजनाएं शुरू करके उप-क्षेत्रीय स्तर पर प्रयास तेज कर दे.
सरकार के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि भारत द्विपक्षीय बातचीत शुरू करने के पाकिस्तानी प्रस्तावों पर विचार करने को राजी हो सकता है. शरीफ सरकार का सुझाव था कि कश्मीर और आतंकवाद पर बातचीत अलग से की जाए, और इसे समग्र वार्ता के ढांचे से बाहर रखा जाए. साउथ ब्लॉक इससे सहमत नहीं है लेकिन अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक पाकिस्तान दक्षेस आर्थिक सहयोग एजेंडा पर आगे बढ़ने का इरादा जताता है, तो भारत विचार करने को तैयार हो सकता है.
इसके साथ-साथ, नई दिल्ली ने हिंद महासागर में अपने असर की सीमा भांपने का फैसला किया है. प्रधानमंत्री मार्च में मालदीव, श्रीलंका, मॉरिशस और सेशल्स की यात्रा करेंगे. उनका प्रयास इन देशों को भारतीय सुरक्षा के ढांचे से जोड़ना होगा. यह मालदीव मॉडल का विस्तार होगा, जिससे संयुक्त सैन्य अभ्यास और प्रशिक्षण की संभावना बनेगी.
इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम में भी रूस के साथ पारंपरिक संबंधों को बनाए रखते हुए, नई दिल्ली अब मध्य एशिया में एक बड़े प्रयास की दिशा में काम कर रही है. संभव है कि प्रधानमंत्री स्तर सहित इस क्षेत्र के प्रमुख देशों की उच्च स्तरीय यात्राएं हों. विशेष तौर पर तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान और किर्गिजस्तान की. उन सांस्कृतिक संबंधों का भी पता लगाया जा रहा है, जो इस क्षेत्र में इस्लामिक दौर से भी पहले के युग के हों, इसका इशारा उस युग से है, जिसमें दुर्गम भू-भाग होने के बावजूद व्यापार और पारगमन खूब फला-फूला था.
अगर कोई एक ऐसा क्षेत्र है जिसे लेकर मोदी सरकार की योजनाएं अभी भी निर्माणाधीन हैं, तो वह पश्चिम एशिया है. आइएसआइएस के बढ़ते असर के साथ वहां की पेचीदा सुरक्षा स्थिति को देखते हुए, साउथ ब्लॉक का दृष्टिकोण यह है कि वहां अमेरिका को नेतृत्व करने दिया जाए और ऐसे किसी भी विवादास्पद निर्णय से बचा जाए, जो संतुलन बिगाड़ सकता हो.
यही कारण था कि फिलिस्तीन पर वोट बदलने और इज्राएल के पक्ष में निर्णायक तौर पर झुकने की बीजेपी विचारकों की मांग को अस्थायी तौर पर ठुकरा दिया गया है.
बड़ी शक्तियां और पश्चिम
स्पष्ट रूप से मोदी की योजनाओं के केंद्र में अमेरिका है. अमेरिकी चिंताओं, खासकर आर्थिक किस्म की चिंताओं का निराकरण करने की इच्छा जताकर, सरकार की उम्मीद पूरे विकसित देशों से लाभ उठाने की है—क्योंकि परमाणु जवाबदेही अड़चन से लेकर एफडीआइ की शर्तों को उदार बनाने तक जैसे कई मुद्दे अन्य देशों के लिए भी वैसे ही हैं. इसके अलावा, अमेरिका के साथ करीबी संबंध गहरे स्तर पर खुफिया सूचनाएं साझा करने के लिए भी आवश्यक है, जो आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों के लिए महत्वपूर्ण है.
लेकिन ज्यादा ध्यान प्राथमिकता वाले आर्थिक क्षेत्रों में सर्वोत्तम व्यवसायों को आकर्षित करने पर केंद्रित है. दिल्ली में सभी भारतीय मिशन प्रमुखों की हाल में हुई बैठक के बाद, विदेश मंत्रालय सभी मिशन प्रमुखों के लिए किए जाने वाले कार्यों की सूची तैयार कर रहा है, जो मूल रूप से भारतीय राजदूतों और उच्चायुक्तों को अपने-अपने संबंधित देशों में विशेषज्ञता के उन क्षेत्रों की पहचान सक्रिय ढंग से करने का कार्य सौंपेगी, जो क्षेत्र मोदी के घरेलू एजेंडे के लिए मददगार हो सकते हैं.
यही कारण है कि अप्रैल में मोदी की जर्मनी यात्रा के पहले एक अध्ययन यह पता करने के लिए किया गया है कि कैसे राइन नदी की सफाई का काम गंगा की सफाई के लिए एक मॉडल बन सकता है. ऐसा माना जाता है कि भारत में अंतत: इसी मॉडल पर काम किया जाएगा. एक-दो स्मार्ट सिटी परियोजनाओं को गोद लेने के अलावा सौर छत योजना में साझेदारी के लिए भी जर्मनी को चिन्हित किया गया है. इसी यात्रा के दौरान मोदी जिस दूसरे देश का दौरा करेंगे, वह फ्रांस है, और उसे रक्षा क्षेत्र में 'मेक इन इंडिया' पहल को प्रोत्साहित करने के लिए लक्षित किया जा रहा है.
राजनैतिक स्तर पर विचार यह है कि यूरोपीय संघ (ईयू) की जटिल संरचना से परे जाया जाए और फ्रांस और जर्मनी जैसे यूरोपीय संघ के प्रमुख शक्ति केंद्रों के साथ द्विपक्षीय पहल की जाए—यहां तक कि इस सूची में स्पेन को भी शामिल किया जा रहा है.
पूरब देखो नीति
इस क्षेत्र में चीन की स्थापित श्रेष्ठता और उसके बढ़ते प्रभाव से उत्पन्न होने वाली सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए यहां रणनीतिक सावधानियां सर्वोपरि हो जाती हैं. सूत्रों के अनुसार, मोदी सरकार के तहत बड़ा बदलाव यह आया है कि वह चीन के साथ व्यापार में आने वाली बाधाओं को कम करना चाहती है और उसने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि ऐसा तरीका निकाला जाए, जिससे भारत चीनी निवेश से डरना बंद कर दे. औद्योगिक पार्कों की स्थापना ऐसा ही एक उदाहरण है. हालांकि वह प्रयास अभी जारी है, भारत खुद चीन के पड़ोसियों के साथ अपने संपर्क बढ़ा रहा है. वह वहां दीर्घकालीन आर्थिक सहयोग के लिहाज से स्वयं को एक सौम्य और बेहतर विकल्प के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहा है. इसी कारण भारत में भावी निवेशकों के रूप में दक्षिण कोरिया के साथ-साथ जापान केंद्र बिंदु के रूप में उभर रहा है.
हालांकि, दक्षिण पूर्व एशिया में चुनौती विश्वसनीय विकल्प प्रदान करने की है. भारत ने न तो म्यांमार और थाईलैंड के साथ त्रिपक्षीय राजमार्ग जैसी कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर पर्याप्त तेजी से प्रगति की है; और न ही क्षेत्र के छोटे देशों के साथ रक्षा भागीदारी मजबूत बनाने का कोई इरादा जताया है. इस मोर्चे पर चीन को भड़कने से रोकने के लिए यूपीए सरकार ने एक सशंकित नीति अपना रखी थी.
फिर, इसे आसियान के क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौते की शर्तों—क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) के माध्यम से चीन के आर्थिक समायोजन के साथ संतुलित करना इससे भी बड़ी चुनौती होगी. वाणिज्य मंत्रालय को आशंका है कि इस समझौते के माध्यम से चीन उसके बाजारों में कहीं ज्यादा मुक्त पहुंच प्राप्त कर लेगा, हालांकि अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि बातें उस मोड़ पर पहुंच चुकी हैं, जिसमें भारत समझौता मानने से इनकार करने वाला एकमात्र देश नजर आ सकता है, और उसे शीघ्र ही इस बारे में कोई फैसला लेना होगा.
इसी कारण चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक संबंधों को एक सुदृढ़ सुरक्षा ढांचे से संतुलित करना होगा और यह बेहद नाजुक काम है. समय-सीमा पर काम पूरा करने के अलावा, मोदी सरकार अपनी पूरब में कार्य नीति पर भी पूरा जोर दे रही है.
प्रवासी भारतीयों से संपर्क
रीयूनियन द्वीप हिंद महासागर में सबसे नन्हा और सबसे सुदूरवर्ती फ्रांसीसी भाषी द्वीप है. पेरिस से आठ घंटे से अधिक की दूरी पर. लेकिन यह आज भी फ्रांसीसी संप्रभुता वाला क्षेत्र है. इसकी आबादी का अच्छा-खासा हिस्सा भारतीय मूल का है. यह लगभग भूला जा चुका सांस्कृतिक संपर्क है, जिसका दोहन करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी तैयार हैं. दो महीने बाद जब मोदी फ्रांस का दौरा करेंगे, तो पेरिस में एक भाषण के जरिए इस संपर्क को साधा जाएगा, जिसका सीधा प्रसारण इस सुदूर द्वीप में भी होगा. माना जाता है कि बीजेपी महासचिव राम माधव पहले ही इस काम में लग चुके हैं और इस सीधे प्रसारण की बारीकियों को सुलझा रहे हैं.
मोदी दौर में विदेश नीति राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने का साधारण-सा मामला नहीं है. अब विदेश नीति उस भारतीय पहचान को भी फिर संजो रही है, जिसके आधार पर हितों का निर्माण होता है. यह ऐसी योजना है, जिसमें रीयूनियन द्वीप में रहने वाले कुछ लाख भारतीय मूल के लोगों को भी महत्वपूर्ण राजनैतिक ताकत माना जा रहा है.
लिहाजा, मेडिसन स्क्वायर गार्डन या सिडनी की जोरदार तालियों के पीछे एक सपाट-सा तथ्य निहित है—मोदी के नेतृत्व में भारत की अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या को संगठित किया जा रहा है.
यहां तक आते-आते, बीजेपी के सभी पुराने आप्रवासी भारतीय संगठन, जैसे ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी, बेमानी बना दिए गए हैं. मोदी का दृढ़ विश्वास है कि जब प्रवासी भारतीय जनता उनके साथ उनके चारों ओर एकजुट होगी, तो एक प्रधानमंत्री के तौर पर उनके प्रभामंडल में वृद्धि होगी. यह नजरिया उनके पूर्ववर्तियों से भिन्न है, जो विदेशी नेताओं के साथ मजबूत व्यक्तिगत संबंध बनाने के लिए बहुत मेहनत करते थे. दूसरी ओर मोदी यह राजनैतिक छाप देने के प्रति उत्सुक हैं कि वे न सिर्फ भारत के प्रधानमंत्री हैं, बल्कि सभी भारतीयों की आवाज भी हैं.
यह स्पष्ट राजनैतिक कोशिश है, जिसका नेतृत्व बीजेपी कर रही है, जो विदेशों में स्थित भारतीय मंचों में अपने असर का प्रयोग यह तय करने में कर रही है कि पार्टी के क्रियाकलाप सरकार के साथ कदमताल करें. और जहां आप्रवासी भारतीय समुदाय की बहुत भारी संख्या खोजना मुश्किल होता है, वहां प्रयास होता है कि मैत्री फोरम गठित किए जाएं और उन्हें पार्टी संपर्कों के माध्यम से पुष्ट किया जाए.
इस बीच, विदेश नीति मामलों के पार्टीगत पक्ष का ध्यान अब भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के पुनर्गठन पर केंद्रित है. यानी जहां योग, रामायण और वेदों का प्रभाव और पहुंच है, वहां तक के कार्यक्रमों का निर्माण करने की योजना है.