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जब भी कोई नई सरकार सत्ता में आती है, उम्मीदें सातवें आसमान पर पहुंच जाती हैं कि वह क्या कर सकती है और क्या करेगी. बदलाव की सुखद उम्मीदों के ज्वार में इस बात का भी ख्याल नहीं रखा जाता कि लोकतंत्र में सरकार को कुछ सीमाओं के भीतर रहकर काम करना पड़ता है. संसदीय प्रणाली नियंत्रणों और संतुलनों की मजबूत संस्था है. कई बार यह सुधार की प्रक्रिया को धीमा कर देती है और अब यह भी साबित हो चुका है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के सदन में संख्याबल भी गारंटी नहीं है कि सरकार अपनी इच्छा के मुताबिक काम कर सकेगी.
इससे साफ है कि निचले सदन में विशाल बहुमत होने के बावजूद सुधार की प्रक्रिया में राजनैतिक सर्वानुमति की अहमियत को कम करके नहीं आंका जा सकता—और यह स्वीकार करना होगा कि सुधार की किसी भी प्रक्रिया को प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं तथा राजनैतिक हकीकतों के साथ तालमेल बिठाना ही होगा. यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें सरकार के कामकाज की सार्थक ढंग से पड़ताल की जा सकती है.
पिछले साल मेरा पहला सुझाव यह था कि न्यायिक नियुक्तियोंं के लिए आयोग के गठन का काम ऐसा है जिसे फौरन किया जा सकता है. इस मुद्दे पर अभूतपूर्व राजनैतिक सर्वानुमति कायम थी, इसलिए मौजूदा व्यवस्था का व्यावहारिक विकल्प सुझाने के लिए समिति नियुक्ति करने का रास्ता अपनाने की भी कोई जरूरत नहीं थी. इससे जजों की नियुक्ति की पारदर्शी और सहभागी व्यवस्था कायम हो सकेगी. फिर ऐसी संस्था की स्थापना के लिए संविधान में संशोधन करके कानून भी बना दिया गया था. उस कानून को अब चुनौती दी गई है. जल्दी ही हमें उसके नतीजे के बारे में पता चलेगा. सुप्रीम कोर्ट ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए और यह मानते हुए कि यह इस कदर महत्व का मामला है कि इसमें कोई देरी नहीं की जा सकती, यह तय किया है कि अदालतों के ग्रीष्मावकाश के दौरान पांच जजों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी. मैंने दंड प्रक्रिया संहिता को फिर से बनाने का सुझाव दिया था, ताकि जमानत के मामलों में और पारदर्शिता लाई जा सके तथा साथ ही जन हित (कई बार सिर्फ उत्सुकता) से जुड़े मामलों की आपराधिक जांच-पड़ताल और इसके साथ-साथ आरोपों के आधार पर मीडिया में चलने वाले मुकदमों के दौरान आरोपियों के साथ होने वाले गंभीर पूर्वाग्रह से छुटकारा पाने के लिए पूर्ण गोपनीयता कायम की जा सके.
हाल ही की घटनाओं से जमानत देने से जुड़े कानून में संशोधन करने की जरूरत एक बार फिर सामने आई है. इसमें न्यायिक विवेक के दायरे को कम करने और साफ-साफ मार्गदर्शक सिद्धांत तय करने की जरूरत है, ताकि हर बार जब जमानत नामंजूर या मंजूर की जाती है तब कुटिल निहितार्थों के जरिए संस्था की ईमानदारी पर सवालिया निशान न लगाए जा सकें.
100 दिन में किए जा सकने वाले कार्यों के मेरे सुझावों में से एक अहम उपाय की तरफ सरकार ने ध्यान दिया है—व्यावसायिक अदालतों की स्थापना. ऐसा सुझाव भी विवादास्पद साबित हो रहा है. प्रस्तावित व्यावसायिक अदालतों के साथ मौजूदा व्यवस्था को सहजता से जोडऩे के लिए अदालतों के आर्थिक अधिकार क्षेत्र में बदलाव जरूरी है. हाल ही में इसे लेकर दिल्ली की अदालतों में हड़ताल हो गई. इससे एक बार फिर यह सामने आया कि ऐसे एक उपाय को लागू करने को लेकर भी, जिस पर किसी भी दूसरी व्यवस्था में ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई होती, सरकार को कितने प्रतिस्पर्धी हितों से निबटना और उन्हें संतुष्ट करना पड़ता है. मैं उम्मीद करता हूं कि विवाद से विचलित होकर सरकार इस कोशिश को तिलांजलि नहीं देगी.
मैंने न्याय प्रणाली के तंत्र का पुनर्मूल्यांकन करने से जुड़े तमाम मुद्दों की पड़ताल के लिए गैर-न्यायिक विशेषज्ञों की समिति बनाने का सुझाव दिया था. यह मानकर चलना चाहिए कि सरकार इस काम को हाथ में ले, उससे पहले राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग—और न्याय प्रदान करने में कार्यपालिका की भूमिका—को लेकर मौजूदा विवाद का हल जरूरी होगा. जमीन और सरकारी अभिलेखों के कंप्यूटरीकरण का काम शुरू कर दिया गया है और साथ ही अदालतों को डिजिटल बनाने के उपाय भी.
मौजूदा कमियां
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में नेशनल टैक्स ट्रिब्यूनल की स्थापना के कानून को रद्द कर दिया, लेकिन प्रस्तावित नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल से जुड़े कानून को कायम रखा है. इससे अब किस्म-किस्म के विनियामक ट्रिब्यूनलों या पंचाटों के पुनरीक्षण और पुनर्मूल्यांकन का रास्ता साफ हो गया है. यह ऐसा मामला है, जिसे मेरी राय में सरकार को फौरन हाथ में लेना चाहिए.
भारत की विनियामक प्रक्रियाएं तमाम निवेशकों के लिए दु:स्वप्न की तरह हैं. व्यावसायिक परियोजना में बड़ा निवेश अब रईस प्रमोटरों से नहीं, बल्कि सांस्थाानिक वित्त और फंड मैनेजरों से आ रहा है. पूंजी के समृद्ध स्रोत निश्चित समय-सीमाओं की मांग करते हैं. लिहाजा समय का तकाजा है कि अपने कार्यक्षेत्र के जानकार ट्रिब्यूनलों की स्थापना की जाए. मौजूदा ट्रिब्यूनल बेशक कर्मियों, धन और संसाधनों के भीषण अभाव से जूझ रहे हैं, लेकिन उनमें अपने कार्यक्षेत्र की जानकारी से लैस कर्मियों का भी अभाव है.
मध्यस्थता के जरिए व्यावसायिक विवादों का निबटारा गहरी चिंता का क्षेत्र बना हुआ है. मध्यस्थता विवादों के निबटारे का सबसे पसंदीदा तरीका इसलिए है, क्योंकि इसमें विवादों के समाधान की त्वरित प्रणाली की मौजूदा प्रक्रिया की औपचारिकताओं से छुटकारा मिल जाता है. भारतीय अदालतों में मध्यस्थों का पूर्वानुमान लगाने की और पंचाट के फैसलों को दी गई चुनौतियों को प्रथम अपील मानने की पुरानी मानसिकता अब भी बनी हुई है. ऐसी खबर थी कि सरकार मध्यस्थता की प्रक्रिया को बिगाडऩे वाली समस्याओं से निबटने के लिए अध्यादेश लाने पर विचार कर रही है—हम सांस रोककर इसका इंतजार कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने बेहद तारीफ के लायक फैसले में दोषारोपण करने वाली किसी भी टिप्पणी को आपराधिक ठहराने वाली आइटी कानून की धारा 66ए को रद्द कर दिया है. हालांकि इससे अब एक गंभीर कमी पैदा हो गई है—सोशल मीडिया में बड़े पैमाने पर फैली और प्रतिष्ठाओं को चकनाचूर करने तथा ठेस पहुंचाने वाली झूठी बातों के खिलाफ कोई प्रभावी उपाय नहीं है. अंत में एक बात आयकर विभाग के बारे में. मैं 'टैक्स टेररिज्म' या कर आतंकवाद जैसी अभिव्यक्तियोंं से सहमत नहीं हूं. कानून के मुताबिक अपना फर्ज अदा करने वाले सिविल सेवक आतंकवादी नहीं हैं. मगर साथ ही आयकर विभाग की संस्कृति को बदलना होगा और ऐसा करने के लिए ईमानदार अफसरों को भी इतना ताकतवर बनाना होगा कि वे सही काम इस तरह कर सकें जिससे उनकी ईमानदारी पर सवालिया निशान नहीं लगाया जा सके.
मैंने लोकपाल जैसी संस्था का सुझाव दिया था, जो कर विभाग की ज्यादतियों की शिकायतों की जांच कर सके. भारत सरीखे देश की हुकूमत चलाना ऐसी यात्रा है, जिसकी रफ्तार के बारे में इच्छा तो की जा सकती है लेकिन जरूरी नहीं कि वह इच्छा हमेशा पूरी ही हो. लोकतंत्र के वाहन की अपनी सीमाएं हैं. बाहरी विपत्तियां, चाहे वे आर्थिक तूफान हों, राजनैतिक भूचाल या प्राकृतिक आपदाएं हों, प्राथमिकताओं को अक्सर बार-बार बदल देती हैं. यात्रा की राह को अपने माफिक बनाना पड़ता है और रास्ते में आने वाली रुकावटों को उनके घटने के मुताबिक ठीक-ठीक नहीं नापा जा सकता. सही काम करने के सरकार के इरादों की विश्वसनीयता ही एकमात्र कसौटी हो सकती है. इस कसौटी पर परखें, तो मोदी सरकार के कामकाज की सराहना ही की जा सकती है.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं)