Advertisement

सरकार के पास नहीं हैं कामगारों के आंकड़े, श्रम कानून सुधार में ये है सबसे बड़ी बाधा

2017 में जब देश में बेरोजगारी पर बहस जारी थी, तब नीति आयोग ने टिप्पणी की थी कि यह बहस हवा में हो रही है क्योंकि जो अनुमान मौजूद हैं वे या तो पुराने पड़ चुके हैं या फिर ऐसे सर्वे पर आधारित हैं जिनमें खामियां हैं.

कर्मचारी कर्मचारी
समीर चटर्जी
  • नई दिल्ली,
  • 15 जुलाई 2019,
  • अपडेटेड 7:58 PM IST

आखिर सरकार कामगारों के हालत कैसे सुधारेगी? आखिर असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को अपने काम का सही मेहताना कैसे मिलेगा? कामगारों की रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी होंगी? ये कुछ ऐसे जलते सवाल हैं जो सरकारों को हमेशा कटघरे में खड़ी करती हैं.

दरअसल, भारत में असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बारे में अब तक कोई सटीक अनुमान और आंकड़े हैं ही नहीं, जबकि माना जाता है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या कुल कामगारों का 85% है. इसके अलावा इस श्रमशक्ति के बारे में तमाम ऐसे संवेदनशील सिद्धांत हैं जिनकी समान व्याख्याएं की जानी बाकी हैं, जैसे साफ तौर पर आज भी हम ये नहीं जानते कि सरकारी नियम के मुताबिक  कामगार कौन हैं? उनकी तनख्वाह, संगठित क्षेत्र, असंगठित क्षेत्र, लघु उद्यम, मीडियम उद्यम आदि की परिभाषाएं तय नहीं हैं. इसकी वजह से श्रम सुधार के तहत  वस्तुस्थिति का पता लगाना, नीतियां और योजनाएं बनाना मुश्किल काम है.

Advertisement

2017 में जब देश में बेरोजगारी पर बहस जारी थी, तब नीति आयोग ने टिप्पणी की थी कि यह बहस 'हवा में हो रही है' क्योंकि जो अनुमान मौजूद हैं वे या तो पुराने पड़ चुके हैं या फिर ऐसे सर्वे पर आधारित हैं जिनमें खामियां हैं. इसकी वजह से पूरे देश में रोजगार की असली तस्वीर का पता नहीं लगाया जा सकता.

तब से अब तक स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं आया है लेकिन बहस बेरोजगारी की जगह श्रम कानूनों में सुधार पर आ पहुंची है.

चौंकाने वाली परिभाषाएं

नीति आयोग के एक टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट कहती है कि प्रासंगिक और सटीक आंकड़े इसलिए मौजूद नहीं हैं क्योंकि कामगारों के लिए इस्तेमाल होने परिभाषाओं में समानता नहीं है.

उदाहरण के तौर पर भारत में संगठित (formal) कामगारों के लिए परिभाषा तय नहीं है इसलिए कई परिभाषाएं इस्तेमाल होती हैं. जो सबसे सामान्य परिभाषा है वह फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के तहत रजिस्टर उद्यमों में काम कर रहे लोगों पर लागू होती हैं कि वे संगठित (formal) कामगार हैं. हालांकि, एनएसएसओ अपने सर्वे में इन्हें फॉरमल की जगह ऑर्गेनाइज्ड लिखता है. इस परिभाषा के तहत सेवा क्षेत्र में काम करने वाले सभी कामगार असंगठित (informal’ or ‘unorganised) कामगार कहलाएंगे.

Advertisement

इससे अलग, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय कामगारों के वर्गीकरण के लिए दूसरी परिभाषा इस्तेमाल करता है. ऐसे उद्यम जिसमें 10 या ज्यादा वर्कर हों और सभी सरकार कर्मचारियों को मंत्रालय संगठित (formal) कामगार मानता है. इस परिभाषा में 'फॉर्मल' के साथ 'आर्गेनाइज्ड' शब्द का भी इस्तेमाल है. एक अन्य परिभाषा में ऐसे कामगारों को 'फॉर्मल' कहा गया है जो कॉन्टैक्ट पर हों, भले ही उद्यम का आकार कैसा भी हो. यह परिभाषा 'फॉर्मल' और 'ऑर्गेनाइज्ड' के बीच अंतर स्पष्ट करती है, लेकिन भारतीय संदर्भ में यह विरोधाभासी है.

रिपोर्ट कहती है कि यह सारी परिभाषाएं “बड़ी बाधक हैं और इन्होंने तमाम स्थायी नौकरियां करने वाले कामगारों को गणना से बाहर कर देती हैं, क्योंकि वे किसी बड़े उद्यम में काम नहीं कर रहे हैं ​या फिर उनके पास लिखित अनुबंध नहीं हैं.” तमाम विकल्पों पर विचार करने के बाद टास्क फोर्स ने यह निष्कर्ष निकाला कि संगठित क्षेत्र के कामगारों से जुड़े आंकड़ों के लिए एक नई और व्यावहारिक परिभाषा की जरूरत है.

नई संहिता में भी खामियां हैं

सरकार 44 केंद्रीय कानूनों को चार संहिताओं में समेटने की कोशिश कर रही है. ये चार संहिताएं होंगी— मेहनताना संबंधी, उद्योग मामले, सामाजिक सुरक्षा और पेशेवर सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की परिस्थितियां. हालांकि, समस्या फिर भी बनी हुई है.

Advertisement

उदाहरण के लिए, इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड ऑफ 2017 में 'अनऑर्गेनाइज्ड' कामगार का मतलब है घरेलू कामगार, स्वरोजगार करने वाला या अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर में मेहनताने पर काम करने वाला.

इसमें उसे भी शामिल किया गया है जो ऑर्गेनाइज्ड सेक्टर में काम तो करता है लेकिन अनऑर्गेनाइज्ड वर्कर्स सोशल सिक्योरिटी एक्ट ऑफ 2008 में लिखित छह कानूनों के दायरे से बाहर है. लेकिन सोशल सिक्योरिटी कोड ऑफ 2018 में 'अनऑर्गेनाइज्ड' की परिभाषा में कहा गया है कि (a) ऐसा कामगार (चाहे वह घरेलू कामगार हो, अपना काम करता हो, मालिक होने के साथ कामगार हो, या तनख्वाहशुदा कामगार हो) जो अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर में काम करता हो (b) ऐसा व्यक्ति जो किसी ऐसी जगह काम करता हो जहां कोई लिखित अनुबंध न हो.

नई संहिताओं में भी 'वर्कर' यानी कामगारों को लेकर यही स्थिति है. इनमें कई परिभाषाएं दी गई हैं, अलग-अलग शब्दों का लच्छेदार इस्तेमाल है.

आरएसएस से जुड़े कामगारों के संगठन भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष सीके साजीनारायण कहते हैं कि चारों संहिताओं में इस्तेमाल सभी व्याख्याओं के एक तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है ताकि इनमें सरलता और एकरूपता लाई जा सके. उनके मुताबिक, वह हर आदमी कामगार है जो किसी को भी अपना श्रम उपलब्ध कराता है. लेकिन ​जटिलता इस हद तक है कि अकेले सोशल सिक्योरिटी कोड ऑफ 2018 में 144 परिभाषाएं हैं.

Advertisement

इसके सकारात्मक पक्ष के बारे में साजीनारायण कहते हैं कि तमाम ऐसे असंगठित कामगार हैं जो घरेलू नौकर, होम डिलीवरी ब्वॉय, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए छोटे स्तर पर उत्पादन कार्यों में जुटे लोग, कॉन्ट्रैक्ट वर्कर आदि को भी नई संहिता में शामिल किया जा रहा है. असली चुनौती यह है कि उन्हें भी औपचारिक व्यवस्था के तहत ले आया जाए और उन्हें भी कानूनी सुरक्षा मिले.

 राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग में चेयरमैन रह चुके पीसी मोहनन कहते हैं कि परिभाषाओं की जटिलता इसलिए है क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था यूरोपीय देशों से अलग विकसित हुई है. यहां ज्यादातर लोग स्वरोजगार में लगे हैं (जैसे खेती करना, बर्तन बनाना, लकड़ी के सामान बनाना आदि) जिसे आम तौर पर फेमिली बिजनेस कहा जाता है. 1930 और 1940 की जनगणना में इसे दर्ज किया गया था. 'ऑर्गेनाइज्ड' शब्द सबसे पहले उनके लिए आया जिन कामगारों को कानूनी रूप से सुरक्षा मिली हुई थी. बाद में सरकारी और संगठित क्षेत्र के लिए 'फॉरमल' शब्द चलन में आया. 'इनफॉर्मल' शब्द उनके लिए इस्तेमाल होने लगा जो कृषि और विभिन्न सेवाओं में काम करते हैं.

मोहनन के मुताबिक, यहां तक कि अब भी 'वर्क' और 'वर्कर' को भारतीय संदर्भ में परिभाषित करना बहुत कठिन है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने हाल में परिभाषा दी है कि ऐसी कोई भी गतिविधि ​जो जीडीपी की गणना में योगदान देती हो, वह 'आर्थिक गतिविधि' मानी जाएगी और ऐसा करने वाला 'वर्कर' माना जाएगा.

Advertisement

वैज्ञानिक तरीके से आंकड़े जुटाना

स्थिति सुधारने के लिए सिर्फ इतना ही काफी नहीं होगा कि अलग ​अलग सिद्धांतों और शब्दों की परिभाषणाएं तय कर दी जाएं. बल्कि बदलाव तब आएगा जब यह ​सुनिश्चित किया जाए कि बड़े पैमाने पर लाभार्थियों को नई संहिता के तहत सुरक्षा मिले. साजीनारायण का कहना है कि आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया को वैज्ञानिक और व्यापक बनाना होगा ताकि जिनकी कामगारों में गिनती तक नहीं होती, उनको भी इसका लाभ मिले. इसके लिए एक नये तंत्र की जरूरत है जो यह सुनिश्चित करे कि सभी कामगारों को इसका लाभ मिले.

सीआईआई नेशनल कमेटी आन इं​डस्ट्रियल रिलेशन के चेयरमैन एमएस उन्नीकृष्णन कहते हैं कि मौजूदा आंकड़े कतई अपर्याप्त हैं. यहां तक कि वे फॉर्मल सेक्टर के लिए भी अपर्याप्त हैं. उदाहरण के लिए जितने कामगार ईपीएफओ से बाहर हैं, कोई नहीं जानता की उनकी संख्या कितनी है. असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए न तो कोई औपचारिक रोस्टर है न ही कोई डेटा प्रकाशित हुआ है. एक बार जब आंकड़े एकत्र हो जाएंगे तो उसके बाद नये लेबर कोड की प्रमुख चुनौती होगी कि इसे ठीक तरह से लागू किया जाए.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement