
आठ नवंबर 2014 का वह वाकया शायद ही देश भुला सकता है. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के पेंडारी में 137 महिलाओं की नसबंदी हुई थी. लेकिन अगले दिन ही 13 महिलाओं की मौत हुई और 50 से ज्यादा बीमार हो गईं. राजनैतिक बवाल मचा तो जांच रिपोर्ट में महिलाओं को दी गई दवा सिप्रोसिन में चूहे मारने की दवा का अंश मिलने की बात कही गई. लेकिन दिलचस्प पहलू था कि पोस्टमार्टम और कल्चर रिपोर्ट में कहीं भी जहर की बात सामने नहीं आई. इसलिए संभावना जताई गई कि मौत की वजह संक्रमण थी क्योंकि मशीन को संक्रमणमुक्त नहीं किया गया था. दरअसल इन मौतों की वजह भारत में स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने को लेकर सरकारों में इच्छाशक्ति का अभाव है. स्वास्थ्य विभाग से जुड़े एक डॊक्टर कहते हैं, “बिलासपुर जैसा कांड इसलिए हुआ कि वहां समुचित साधन नहीं थे और डॊक्टर को उम्मीद नहीं थी कि इतनी बड़ी संख्या में लोग पहुंचेंगे.”
ऐसे में सवाल उठता है कि सुविधाओं के अभाव में विविधताओं से भरा भारत यूनिवर्सल हैल्थ केयर यानी सबको स्वास्थ्य की समुचित सुविधा का लक्ष्य कैसे हासिल करेगा? भारत में आज भी जन्म लेने वाले 1,000 बच्चों में से 43 अपना पांचवां तो 37 अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाते. प्रसव के दौरान जच्चाओं की होने वाली मौत की तस्वीर भी भयावह है. सालाना 45,000 महिलाओं की मौत बच्चों को जन्म देते वक्त हो जाती है जो दुनिया का 17 फीसदी है. यानी मातृत्व मृत्यु दर में कमी के बावजूद आज भी हर घंटे पांच माताओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है. हालांकि इस स्थिति को खत्म करने और वैश्विक प्रतिबद्धता के तहत सबको सहज, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने की दिशा में भारत सरकार धीरे-धीरे कदम उठा रही है. लेकिन तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत स्वास्थ्य मानकों में अपने से कमतर देशों के मुकाबले भी पिछड़ा हुआ है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 2005-06 (एनएफएचएस-3) में भारत की कुल प्रजनन दर 2.7 फीसदी थी जो एनएफएचएस-4 (2015-16) के सर्वेक्षण में घटकर 2.2 पर आ गई है. दूसरी ओर बांग्लादेश, भूटान, ब्राजील, चीन, कुवैत, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, तुर्की और अमेरिका वगैरह में यह दर भारत के मुकाबले कम है. (विस्तृत आंकड़ों के लिए देखें ग्राफिक) हालांकि भारत की स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है. एनएफएचएस-3 में 18 साल से कम उम्र में लड़कियों की शादी यानी बाल विवाह की दर 47.4 फीसदी थी जो एनएफएचएस-4 यानी 2015-16 में तेजी से घटकर 26.8 फीसदी पर आ गई है. नाबालिग लड़कियों में प्रजनन दर भी 16 फीसदी से घटकर 7.9 फीसदी पर आ गई है. भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है जहां समाज की दकियानूसी सोच के चलते परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता का अभाव है. इसे कई बार राजनैतिक चश्मे से देखा जाता है, इसलिए कई बार जनसंख्या नियंत्रण की कोशिशों को एक समुदाय विशेष के प्रति जोड़कर देखा जाता है. लेकिन मुस्लिम देशों के आंकड़ों को सामने रख भारत सरकार एक अलग पहल शुरु करने जा रही है, जिसे मिशन परिवार विकास का नाम दिया गया है. हालांकि इस दर पर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल इंडिया टुडे से कहती हैं, “दुनिया की 18 फीसदी आबादी भारत में रहती है और इतनी बड़ी आबादी हमारे लिए बड़ी चुनौती है. इसलिए जागरूकता के माध्यम से हम 2045 तक बढ़ती आबादी दर को स्थिर करने के लक्ष्य को जरुर हासिल कर लेंगे.” वे कहती हैं, “जनसंख्या वृद्धि में भी काफी गिरावट आई है और जहां तक प्रजनन दर का सवाल है तो हमारा लक्ष्य इसे 2.1 तक लाना है. इस लक्ष्य को देश के 36 राज्यों-संघ शासित राज्यों में से 24 में तो 2.1 का लक्ष्य हासिल कर चुके हैं और आने वाले समय में बांकी राज्यों में भी इसे पूरा कर लिया जाएगा. इसके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय सघन अभियान शुरु कर रहा है.”
क्यों जरूरी परिवार नियोजन?
परिवार नियोजन को लेकर केंद्र सरकार सावधान है. मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि संजय गांधी के समय परिवार नियोजन की पहल को लेकर जो गलत अवधारणा बनी थी उससे अभी तक न तो सरकार उबर पाई है और न ही समाज. इसलिए सरकार इसे कानूनी तौर पर लागू करने की बजाए जागरूकता अभियान के रुप में आगे बढ़ा रही है. भारत अपने पड़ोसी देश चीन से सबक लेते हुए जनसंख्या नियंत्रण को लक्ष्य के रूप में नहीं लेना चाहता. चीन में एक बच्चे की सरकारी नीति की वजह से वहां युवा आबादी कम होती गई और बुजुर्गों की संख्या बढ़ गई. जिसके बाद चीन को अपनी नीति को लचीला बनाने को मजबूर होना पड़ा. लेकिन भारत अपनी सामाजिक-भौगोलिक विविधताओं को मद्देनजर रखते हुए जागरूकता अभियान के जरिए बढ़ती आबादी दर को 2045 तक स्थिर बनाना चाहता है. इसके तहत केंद्र सरकार की रणनीति ऐसा ढांचा खड़ा करने की है जहां एक परिवार में दो अभिभावक की जगह दो बच्चे ले सकें.
प्रजनन दर पिछले दस साल में 2.7 फीसदी से घटकर 2.2 फीसदी तक आने की वजह अनचाहा गर्भधारण में भारी कमी है. भारत की मुश्किल अनचाहा गर्भ से ही है. स्वास्थ्य मंत्रालय का मानना है कि अगर आपसी सहमति से योजना बनाकर गर्भधारण होता है तो स्वाभाविक ढंग से प्रजनन दर में कमी आएगी और आने वाले समय में भारत अपने 2.1 फीसदी के लक्ष्य तक पहुंच जाएगा. सरकार की रणनीति है कि लोग अपने सामर्थ्य के हिसाब से जितने बच्चे पैदा करना चाहें करें, लेकिन अनचाहा गर्भ न हो क्योंकि इससे जच्चा-बच्चा दोनों की सेहत पर बुरा असर होता है. मंत्रालय यह मानता है कि लोगों में जानकारी, साधन-सुविधाओं और परिवार नियोजन के लिए जरुरी सामान के अभाव की वजह से भारत में प्रजनन दर दुनिया के कई कमतर देशों से भी खराब स्थिति में है. शहरों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर ज्यादा है क्योंकि सुविधाओं की पहुंच वहां शहरों की तरह नहीं है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में परिवार नियोजन डिविजन के डिप्टी कमिश्नर डॊ. एस.के. सिकदर इंडिया टुडे से कहते हैं, “अगर हमें सार्वभौमिक स्वास्थ्य (यूएचसी) की दिशा में बढ़ना है तो अंतिम छोर तक के लोगों के पास पहुंचना होगा. सुविधाओं के अभाव में 40-45 हजार प्रसूता महिलाओं, शिशुओं की मौत हो जाती है इसलिए सुरक्षित परिवार नियोजन की सुविधा देनी होगी. इसी के लिए सरकार मिशन परिवार विकास को गति दे रही है.” हालांकि इस मामले में लखनऊ के डॊ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर डॊ. रजनी बाला कहती हैं, “परिवार नियोजन का कदम सराहनीय है. लेकिन स्वास्थ्य की अन्य योजनाओं के साथ इसे जोड़कर ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए. यह आश्चर्यजनक है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के 57 जिलों में प्रजनन दर इतनी ज्यादा है. ” वे कहती हैं, “परिवार नियोजन जन्म दर को थामने या गर्भनिरोधन का साधन मात्र नहीं है, बल्कि इससे परिवार का समुचित आर्थिक स्तर बेहतर होता है और खास तौर से जच्चा-बच्चा दोनों की सेहत अच्छी रहती है.”
मिशन परिवार विकास कार्यक्रम की औपचारिक लांचिंग तो पिछले साल ही हो गई थी, लेकिन जमीन पर इसकी शुरुआत इस साल जनसंख्या दिवस से होने जा रही है. सरकार ने देश के सात राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ और असम के 146 ऐसे जिलों की पहचान की है जहां प्रजनन दर सबसे ज्यादा है. इनमें से 23 जिलों में 4 से ज्यादा तो 46 जिलों में 3.9 और 76 जिलों में 3.5 तक है. उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में तो प्रजनन दर पांच से ज्यादा है. पहले के जमाने में गांवों में यह धारणा थी कि बच्चे मर जाएंगे इसलिए 4-6 पैदा करो. लेकिन विकास की बढ़ती रफ्तार और जीवन शैली में बदलाव से धारणाएं बदली हैं. हांलांकि जानकारी और सुविधाओं के अभाव में अभी भी आबादी दर स्थिर नहीं है. लेकिन अब नरेंद्र मोदी सरकार परिवार नियोजन की दिशा में कदम आगे बढ़ा रही है. जनसंख्या नियंत्रण दिवस 11 जुलाई से रेडियो पर “हम दो” नाम से 52 एपिसोड का साप्ताहिक कार्यक्रम शुरु हो रहा है. इसका समय रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात रेडियो कार्यक्रम से पहले रखा गया है. इसमें थोड़ा गंवई पुट के साथ परिवार नियोजन की कहानी, गाने, विशेषज्ञों की सलाह, सफल दंपतियों से बातचीत और फोन कॊल से संपर्क होगा. इसका फोकस खास तौर से हिंदी पट्टी के क्षेत्र होंगे क्योंकि मंत्रालय का मानना है कि दक्षिण भारत में ऐसी स्थिति नहीं है.
मिशन परिवार विकास के लिए पहले अमिताभ बच्चन ब्रांड एंबेसडर थे, लेकिन अब भाजपा नेता और भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता रवि किशन को ब्रांड एंबेसडर बनाया गया है. सरकार ने इस कार्यक्रम के तहत कई योजनाएं बनाई हैं. (देखें ग्राफिक) सभी 146 जिलों में परिवार नियोजन का बजट अन्य जिलों के मुकाबले 25-30 फीसदी बढ़ाया गया है. सरकार की ओर से नसबंदी कार्यक्रम हर जगह साल में दो बार आयोजित होता है, लेकिन इन जिलों में अब ऐसे चार आयोजन होंगे. नई पहल नाम से 15-49 आयु वर्ग के लक्ष्य दंपतियों की काउंसलिंग शुरु की गई है जिसमें आशा वर्कर को नव दंपतियों के साथ बैठक करना है. मंत्रालय का मानना है कि एक गांव में एक आशा वर्कर के इलाके में अगर 1,000 परिवार हैं तो वहां अमूमन 170-175 शादियां होती हैं. आशा (एएनएम) को पता होता है कि कब कहां शादी और बच्चे होने हैं. एएनएम को इसके लिए प्रति जोड़ा काउंसलिंग पर अतिरिक्त 150 रुपए की राशि तय की गई है. काउंसलिंग के साथ राज्य सरकारों की ओर से तैयार परिवार नियोजन किट (कंडोम, आइ-पिल्स, दो बच्चों में तीन साल का अंतराल रखने के फायदे की जानकारी आदि जरुरी समान) भी दिया जाएगा. बेंगलुरू के केंपेगौड़ा इंस्टीटयूट ऒफ मेडिकल साइंसेज की डॊ. प्रियंका कुमारी कहती हैं, “सरकारी अभियान भर से काम नहीं चलेगा, लोगों के मन-मस्तिष्क में यह बात बिठानी होगी कि बच्चों के जन्म के बीच में अंतराल नहीं रखने से कितना नुक्सान होता है. अगर मां की कोख तैयार नहीं है या मां खुद एक बच्चे के बाद दूसरे बच्चे के लिए तैयार नहीं है तो निश्चित तौर पर होने वाले बच्चे के साथ-साथ मां की सेहत पर भी खराब असर होगा. इसलिए वैज्ञानिक तौर पर कहा गया है कि दो बच्चों के बीच में तीन से पांच साल का अंतराल होना चाहिए.” प्रियंका आगे कहती हैं, “गर्भनिरोधक दो बच्चों में अंतराल के लिए जरुरी है इससे शिशु और बाल मृत्यु दर में कमी लाई जा सकती है.” उनके मुताबिक शिशु मृत्य दर में विकासशील देश विकसित देशों से आगे हैं और गर्भनिरोधक के माध्यम से अनचाहा गर्भ और जन्म दर को कम किया जा सकता है.
केंद्र सरकार को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार की ओर से 2012-13 में एक अनोखा आइडिया दिया गया था जिसे इस साल से लागू किया जा रहा है. आइडिया था कि परिवार में सास एक अहम फैक्टर होती है जिसकी वजह से शादी के पहले साल में ही गर्भधारण को बहुएं मजबूर हो जाती हैं. सास-बहू के बीच बैरियर को तोड़ने के लिए सास-बहू सम्मेलन शुरु किया गया है ताकि एएनएम की मौजूदगी में वे परिवार नियोजन के फायदे को समझकर उस पर अमल कर सकें. इसके अलावा दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से हिचकने वाले डॊक्टरों को नौकरी के अलावा अतिरिक्त भत्ता देकर गांव में भेजने के लिए सारथी योजना बनाई गई है जहां डॊक्टर महीने में 20 दिन सुबह जाकर शाम को वापस लौट सकते हैं.
प्रसव पश्चात ही अगर बच्चों में अंतराल रखने के लिए कॊपर टी जैसे साधन को लगा दिया जाए तो प्रोग्राम को सफल बनाया जा सकता है. इसके लिए दंपतियों की काउंसलिंग कर फायदे समझाए जाते हैं और इसमें सरकार को सफलता भी मिली है. 2014 से 2017 तक तीन साल में 35 लाख गर्भनिरोधक यंत्र लगाए जा चुके हैं. ज्यादा प्रजनन दर वाले 146 जिलों में नए गर्भनिरोधकों के अलावा इंजेक्शन वाले गर्भ निरोधक भी ज्यादा दिए जाएंगे. सरकार का मानना है कि कई बार पति बच्चा चाहता है, लेकिन पत्नी तैयार नहीं होती. अगर महिला मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार नहीं है तो उसका खराब असर पड़ना स्वाभाविक है. इंजेक्शन वाले गर्भ निरोधक को पत्नियां अपने पति को बताए बिना भी लगवा सकती हैं जिसका असर तीन महीने रहता है.
निश्चित तौर से भारत के संदर्भ में अगर यूनिवर्सल हैल्थ केयर यानी सबको सहज, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करानी है तो परिवार नियोजन के जरिए जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य के लिए जरुरी मानकों को ध्यान में रखना होगा. वरना जानकारी और सुविधा के अभाव में बिलासपुर जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति की संभावना को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता.