
अगर कूटनीति शतरंज का खेल होती, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेशक सफेद मोहरों से खेल रहे होते. सत्ता में आने के पिछले डेढ़ साल में उन्होंने कूटनीति का एक मौलिक, ऊर्जस्वी, हमलावर और अति-सक्रिय संस्करण विकसित किया है जिसमें एक दूरदर्शी नेता, एक सेल्समैन और एक रंगकर्मी का थोड़ा-थोड़ा अक्स दिखाई देता है लेकिन कुल मिलाकर वह होता बहुत जानदार है. ऐसा करने की प्रक्रिया में मोदी ने भारत के बारे में अंतरराष्ट्रीय आख्यान ही बदल डाला है&जो कभी एक लडख़ड़ाता हुआ देश था, आज उभरती हुई वैश्विक ताकत में तब्दील हो चुका है.
पिछले 27 सितंबर को सैन होजे में जब उन्होंने आप्रवासी भारतीयों से खचाखच भरे स्टेडियम को संबोधित किया, तो यह एक रंगमंच से कम नहीं जान पड़ता था. भारी स्वागत और शोर-शराबे के बीच मोदी जब मंच पर नमूदार हुए, उससे पहले देसी नर्तकों की एक टोली बॉलीवुड के गीतों से लोगों का मनोरंजन करती रही. उस क्षेत्र के दर्जन भर अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य उनके अभिनंदन में कतार लगाए खड़े थे, जिसमें हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्ज की माइनॉरिटी नेता नैंसी पेलोसी भी थीं. मोदी ने अपने परंपरागत देसी किस्सों और भाषण की अंतरंग शैली से इस भीड़ में जल्द ही उन्माद-सा भर दिया.
यह उन्माद जब अपने चरम पर पहुंचा, तब मोदी ने साधारण शब्दों में इस दुनिया के बारे में अपनी समझदारी लोगों के सामने रखी. उन्होंने कहा कि हर कोई इस बात से सहमत है कि इक्कीसवीं सदी एशिया की है, लेकिन देर से ही सही, अब यह कहा जा रहा है कि यह सदी भारत की होगी. फिर उन्होंने पूछा कि ऐसा क्यों होगा? और भीड़ चिल्ला उठी, “मोदी, मोदी.” वे हंसे और उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, नहीं. मोदी के कारण नहीं. यह बदलाव आपके कारण आया है&वे अरबों लोग जो अब मान रहे हैं कि भारत को और ज्यादा पीछे नहीं रहना चाहिए. यह वक्त आ गया है कि भारत दुनिया का नेतृत्व करे.”
मोदी दरअसल एक संतुलनकारी ताकत के रूप में भारत की भूमिका को “नेतृत्वकारी ताकत” में तब्दील कर देना चाहते हैं. वे मानते हैं कि ऐसा देश जहां मानवता का छठा हिस्सा निवास करता है और जो जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है, उसे उसका सही मुकाम हासिल हो. मोदी इस बात को भी समझते हैं कि अमेरिका अब अवसान की ओर है जबकि चीन लडख़ड़ा रहा है, ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत के पास दुनिया का नेतृत्व करने का अच्छा मौका है, बशर्ते वह अपने पत्ते सही ढंग से चले.
इसी दर्जे की तलाश का एक हिस्सा है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की स्थायी सदस्यता, जिसके लिए मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह प्रस्ताव 2005 से लटका पड़ा है. यूएनएससी कूटनीतिक ताकतों का एक समूह है जिसमें फिलहाल सिर्फ पांच स्थायी सदस्य हैं जिनके पास वीटो के अधिकार हैं&अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन. न्यूयॉर्क में मोदी जितने भी राष्ट्राध्यक्षों से मिले, उनमें एक शख्स जिससे उनकी मुलाकात खासी जिज्ञासा का विषय बन गई, वे थे राल्फ गोंजाल्विस, सेंट विन्सेंट और ग्रेनेडाइंस नाम के छोटे-से कैरीबियाई द्वीप के राष्ट्रपति, जिसकी आबादी दिल्ली से सौ गुना कम है. मोदी पर फब्तियां कसी गईं कि बड़े देशों में उनसे कुछ ही मिलने के इच्छुक हैं, इसलिए वे छोटे-छोटे द्वीपों के राष्ट्राध्यक्षों से मिल रहे हैं.
इसके पीछे भी मोदी का एक उद्देश्य था. सुरक्षा परिषद में भारत का प्रवेश रोकने के चीन और पाकिस्तान के प्रयासों को भारत ने हाल ही में नाकाम कर दिया था, जब उसने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में टेक्स्ट-आधारित समझौतों के आधार पर परिषद के विस्तार पर मत संग्रह में जीत हासिल की थी. सेंट विन्सेंट और ग्रेनेडाइन्स के राष्ट्रपति इस प्रस्ताव के मुखर समर्थकों में थे. यूएनएससी में प्रवेश के लिए भारत को 193 सदस्यों वाली महासभा के दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन चाहिए. लिहाजा, हर देश की अहमियत है और मोदी की टीम किसी आम चुनाव की तरह इन देशों के वोट जुटाने पर काम कर रही है, छोटे-छोटे देशों को भी रिझाया जा रहा है.
मोदी ने अपनी ही पार्टी के सहयोगी, पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा की आलोचना को भी दरकिनार कर दिया, जिन्होंने इंडिया टुडे टीवी को दिए साक्षात्कार में सरकार पर आरोप लगाया था कि वह यूएनएससी में प्रवेश के अवास्तविक दावे कर रही है. यूएनएससी में प्रवेश पाने के लिए जी-4 देशों (ब्राजील, जर्मनी, भारत और जापान) की “भीक्षावृत्ति” को सिन्हा ने “अपमानजनक” बताया था. इस आलोचना को परे रखते हुए मोदी ने बड़े साहस के साथ जी-4 देशों के नेताओं&जर्मनी की एंजेला मर्केल, जापान के शिंजो एबे और ब्राजील की डिल्मा रूसेफ की एक शिखर बैठक बुला ली और अक्तूबर में शुरू हो रहे परिषद के 70वें वर्ष के उत्सव में उसके विस्तार के अभियान पर उन्हें राजी कर लिया. इसके तुरंत बाद मोदी जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिले&प्रधानमंत्री बनने के बाद दुनिया के इस सबसे ताकतवर शख्स से उनकी यह पांचवीं मुलाकात थी&तो उन्होंने ओबामा को याद दिलाया कि वे स्थायी सदस्यता के मामले में भारत का समर्थन करने का वादा कर चुके हैं.
पिछले साल हुई इनकी दूसरी मुलाकात में ओबामा ने मोदी को अगर “मैन ऑफ ऐक्शन” कहा था तो यह ऐसे ही नहीं था. मोदी जिस तरीके से कूटनीति करते हैं, वह मनमोहन सिंह की शैली से एकदम उलट है. मनमोहन को विदेश नीति के मामले में कुछ साहसिक पहलों का श्रेय जाता है जिसमें एक भारत-अमेरिका परमाणु करार भी है, लेकिन वे हमेशा विनम्र रहते थे और अपने लक्ष्यों का पीछा बहुत शांत रहकर करते थे.
आर्थिक मामलों पर समझदारी के मामले में मनमोहन की बहुत प्रतिष्ठा थी लेकिन जब शिखर सम्मेलनों का मौका आता तो वे अपने सहयोगियों द्वारा तैयार किए गए भाषण तक ही खुद को सीमित रखते थे. उनकी शैली बहुत कुछ उस मशहूर “24 अक्षर” की सलाह जैसी थी जो देंग शियाओ पिंग ने चीनी राजनयिकों को दी थीः “ठंडे दिमाग से चीजों को देखो-समझो, सधी हुई प्रतिक्रिया दो, मजबूती से खड़े रहो, अपनी सामर्थ्य को छुपाओ और अपनी बारी की प्रतीक्षा करो, कभी भी अगुआई करने की कोशिश मत करो और कुछ हासिल करके आओ.”
इसके उलट मोदी को जोखिम उठाने से परहेज नहीं है और वे तटस्थ रहने की जरूरत पर ही सवाल उठाते रहते हैं. वे परंपरागत तरीकों से हटकर व्यवहार करने को तैयार रहते हैं, जैसा कि उन्होंने फ्रांस के अपने दौरे पर 36 रफाल लड़ाकू विमानों को खरीद कर किया, जिसका सौदा दो दशकों से लटका पड़ा था. वे हमलावर होने में संकोच नहीं बरतते और भारत के राष्ट्रीय हित को आक्रामक तरीके से साधते हैं, जैसा कि उन्होंने म्यांमार के भीतर पूर्वोत्तर के बागियों की तलाश में फौज को भेजकर किया था. मोदी “सबसे पहले प्रतिक्रिया” देने को उद्धत रहते हैं, जैसा कि हमने नेपाल में आए भूकंप और यमन में पैदा अस्थिरता के दौरान देखा था जब उन्होंने तेजी से मानवीय राहत और आपदा राहत अभियानों को रवाना कर दिया था. उन्होंने बड़ी जिम्मेदारियों के लिए भी भारत की इच्छाशक्ति का मुजाहिरा किया है जब हाल ही में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के लिए भारत से और ज्यादा सैन्य टुकडिय़ां भेजने की वचनबद्धता जाहिर की थी.
मोदी बनाम मनमोहन
मोदी अपनी विदेश यात्राओं की योजना ऐसे बनाते हैं गोया वे प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचार करने जा रहे हों. यह तरीका मनमोहन सिंह से उलट है. अमेरिका की सितंबर यात्रा की तैयारी उन्होंने महीनों पहले करनी शुरू कर दी थी. वे अहम मसलों और देशों पर अधिकारियों से पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन मंगवाते और उनके नतीजों के बारे में पूछते थे, “क्या निकलेगा?”
ब्रीफिंग को सुनने-समझने के बाद मोदी सूचनाओं को याद कर लेते हैं और इसकी तैयारी करते हैं कि हालात से कैसे निबटना है और क्या बोलना है. उनके एक सहयोगी की टिप्पणी है, “वे तैयार संदेशों के हिसाब से नहीं चलते बल्कि संदेशों को अपने हिसाब से चलाते हैं.” मोदी इस बात के विवरण में भी जाते हैं कि मिलने वालों को क्या उपहार दिया जाना है. अमेरिका की शीर्ष कंपनियों के सीईओ से अपनी मुलाकात के बाद उन्हें आदिवासी कला का एक स्मारक देने की योजना थी जिसे मोदी ने रद्द कर दिया और अपनी टीम से कहा कि वे ऐसा गैजेट देना चाहते हैं जो मेड इन इंडिया” हो जिससे देश की उत्पादन और प्रौद्योगिकीय ताकत का प्रदर्शन हो सके.
बीजेपी समर्थकों की एक बड़ी फौज मोदी से पहले अमेरिका गई थी जिसका काम वहां के आप्रवासी भारतीयों के साथ मिलकर मोदी के साथ संवाद की योजना तैयार करना था. इसी के तहत सैन होजे स्टेडियम में रॉक कंसर्ट शैली में एक रैली का खाका बना, जिसकी 18,000 कुर्सियों के लिए डेढ़ लाख आवेदन प्राप्त हुए. ओबामा के साथ अहम बैठक के अलावा मोदी ने अपनी टीम से कहा था कि वह ज्यादा से ज्यादा राष्ट्राध्यक्षों और कारोबारियों के साथ उनकी मुलाकात करवाए. मोदी बिना थके हुए लगातार बैठक और दौरे करते रहे. एक वरिष्ठ राजनयिक ने उनकी तुलना ऐसे हंस से की, जो किसी झील की सतह पर ठसक के साथ तैरता रहता है लेकिन उसकी गति निरायास दिखती है क्योंकि उसके पैर पानी के भीतर लगातार चलते रहते हैं.
इस सब का परिणाम यह रहा कि कूटनीति की दुनिया को मोदी ने अकेले लूट लियाः अमेरिका में बिताए अपने पांच दिनों के भीतर उन्होंने दो बार संयुक्त राष्ट्र में संबोधन दिया, 30 देशों के राष्ट्राध्यक्षों से मुलाकात की जिनमें बड़े और छोटे सभी देश थे, अमेरिका के 50 से ज्यादा शीर्ष सीईओ के साथ संवाद किया जो 4 खरब डॉलर से ज्यादा कारोबार वाली कंपनियों के मुखिया हैं, सिलिकन वैली की ऐतिहासिक शख्सियतों के साथ भोजन किया जिसमें फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग के साथ टाउनहॉल में हुआ एक संवाद भी शामिल था. इसके अलावा उन्होंने न्यूयॉर्क और कैलिफोर्निया में आप्रवासी भारतीयों के विशाल दलों के साथ काफी वक्त गुजारा.
अंदाज या माद्दा?
नीतियों के जानकार अब भी इस पर बंटे हुए हैं कि मोदी ने वाकई भारत के तरीकों में कोई बुनियादी बदलाव ला दिया है या फिर तमाम अगर-मगर के बावजूद वे मोटे तौर पर अपने पूर्ववर्ती की बनाई नीतियों पर ही चल रहे हैं. हाल के अपने वक्तव्यों में विदेश सचिव एस. जयशंकर का साफ मानना था कि मोदी के आने से विदेशों में भारत का उद्यम “पहले की तरह नहीं रह गया है बल्कि उसमें ज्यादा आत्मविश्वास आया है, पहलें हुई हैं, दृढ़ संकल्प दिखा है और जाहिर तौर से इनमें भारत की सामर्थ्य की वृद्धि दिखाई देती है. कई मामलों में कह सकते हैं कि भारत की छाप सशक्त हुई है और व्यापक भी.”
अमेरिकी विदेश नीति के जानकार स्टीफन कोहेन की राय अलग है. वे मानते हैं कि अब भी मोदी “सिर्फ ऊपर से चमक-दमक रहे हैं और उनमें तत्व नहीं है क्योंकि उन्हें भारत के पड़ोसियों से और अपने अंतर्विरोधों से निबटने के लिए अब भी सुसंगत नीति बनानी बाकी है.” कांग्रेस से पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद जोड़ते हैं, “सारे हो-हल्ले के बावजूद मोदी की विदेश नीति यूपीए के प्रयासों का ही विस्तार है, जिसमें अधिकांश को तो बीजेपी ने खुद हमारे सत्ता में रहने के दौरान बाधित किया था.” यूरोप के एक वरिष्ठ राजनयिक मानते हैं, “मोदी ने भारत की विदेश नीति में एकाग्रता और स्पष्टता ला दी है&उनके पास एक कुतुबनुमा है जो विकास के नाम पर हमेशा अपना कांटा उत्तर की ओर दिखाता है.”
तो, क्या विदेश की धरती पर मोदी के प्रयास बस देखने के लिए हैं और उनमें कोई सार नहीं है? ये किसका प्रतिनिधित्व करते हैं&निरंतरता का या बदलाव का? दूसरे देशों के साथ वे जिस तरह निबटते हैं, उसमें स्पष्टता होने के बजाए क्या अंतर्विरोध ज्यादा हैं? बड़ा सवाल यह है कि भारत को क्या सिर्फ संकट पर प्रतिक्रिया देकर संतुष्ट हो जाना चाहिए या फिर उसे इस धरती का भविष्य गढऩा चाहिए? महज डेढ़ साल में मोदी की विदेश नीति को मापने का कोई तरीका नहीं है लेकिन उनकी संलग्नताओं का दायरा और गहराई अलग से दिख रही है. तकरीबन हर महीने विदेश यात्रा पर रहने वाले मोदी ने दुनिया के 100 से ज्यादा देशों की धरती को छुआ है जिसमें सभी बड़ी ताकतें शामिल हैं. इन देशों के साथ उन्होंने भारत और विश्व के लिहाज से अहम मसलों पर अपना संवाद भी बनाया है.
दुनिया भर में घूम रहे मोदी के दिमाग में बस एक ही बात मिशन की तरह चल रही है. विदेश नीति की उनकी पहलें सीधे तौर पर घरेलू लक्ष्यों, खासकर आर्थिक लक्ष्यों के साथ जुड़ी हैं. प्रधानमंत्री को अच्छे से मालूम है कि उन्होंने जितने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू किए हैं जैसे डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया या स्टार्ट-अप इंडिया, इन सब में भारी पूंजी की जरूरत होगी. इन्हें जल्दी से साकार करने के लिए पैसे के अलावा जानकारी और प्रबंधकीय कौशल की भी दरकार होगी. ऐसा तभी मुमकिन होगा जब विदेशी निवेशक भारी संख्या में यहां आएंगे और पैसा झोंकते हुए अपनी विशेषज्ञता भी साथ ले आएंगे.
इसीलिए न्यूयॉर्क की अपनी यात्रा में मोदी ने फॉर्च्यून 500 कंपनियों के 40 सीईओ की मेजबानी की जिनमें पेप्सी की इंदिरा नूयी, लॉकहीड मार्टिन की मेरिलिन ह्यूसन, फोर्ड मोटर्स के मार्क फील्ड्स, मर्क के केनेथ फ्रेजियर, ब्लैकस्टोन के हैमिल्टन जेक्वस, ड्यूपॉन्ट के एलेन कुलमैन, टेक्सट्रॉन के स्कॉट डोनेली, माइलान के राजीव मलिक, सिटिग्रुप के माइकल ओ्यनील, आइबीएम के गिन्नी रोमेटी और गोल्डमैन सैक्स के गैरी कॉन शामिल थे. सेलिब्रिटी शेफ विकास खन्ना द्वारा तैयार किए गए आलीशान रात्रिभोज में मोदी ने भारत में कारोबार की संभावनाओं को पूरी ताकत से बेचा और ऐसा करते वन्न्त उन तीन “डी” का जिक्र किया जिससे भारत में दूसरे देशों में मुकाबले ज्यादा लाभ हासिल हो सकता हैः डेमोक्रेसी (लोकतंत्र), डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसंख्यागत लाभ) और डिमांड (मांग). उन्होंने उनसे वादा किया कि यहां कारोबार करने में उन्हें सहूलियत मुहैया कराई जाएगी, कर नीति स्थिर रहेगी और नियामक नीतियां अनुकूल होंगी.
यह बातचीत काफी जरूरी और समयबद्ध थी. मोदी जब पिछले साल अमेरिका के अपने पहले दौरे पर आए थे, तब उन्होंने अमेरिकी कारोबारियों को अपनी सेल्स क्षमता का वादा किया था और अंतरराष्ट्रीय कारोबारियों की भारत में दिलचस्पी जगाई थी जो यूपीए-2 के कार्यकाल में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में तकरीबन खत्म हो चुकी थी. इस यात्रा के एक साल बाद कई बड़े कारोबारियों को अंदेशा है कि शुरुआती प्रोत्साहन के बाद मोदी आर्थिक सुधारों की चाल को टिकाए नहीं रख सके हैं और उन्हें इसकी चिंता है कि वे “नरणबद्ध तरीके को अपना रहे हैं”, जैसा कि एक सीईओ ने कहा भी था. उन्हें इसकी चिंता है कि टीम मोदी संख्याबल के मामले में कमजोर है और उन्हें वादे पूरा होते नहीं दिख रहे हैं.
इसके बावजूद वादों को पूरा करने के मामले में मोदी में उनका विश्वास बना हुआ है. पेपाल के मुखिया डॉन शुलमैन ने कहा, “प्रधानमंत्री प्रभावशाली, सकारात्मक, नवाचारी और भविष्यद्रष्टा हैं&भारत हमारी प्राथमिकताओं में शीर्ष पर है.” चीन में आई सुस्ती ने भी भारत को निवेश का आकर्षक स्थल बना दिया है. भारत में अपने होटल चलाने वाले स्टारवुड होटल्स ऐंड रिसॉर्ट्स के सीईओ एडम एरन मोदी को लेकर उत्साहित हैं. इस दौरान मोदी की यात्राओं ने नतीजे देने शुरू कर दिए हैं. इसका एक असर यह है कि जिन देशों की उन्होंने यात्रा की है, वहां से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 47 फीसदी का उछाल आया है, जो दिखाता है कि उनकी बेचने की क्षमता कितनी असरदार रही है.
भविष्य का प्रतीक सिलिकॉन वैली में भी मोदी की हालिया यात्रा सभी मायनों में कामयाब रही. सर्वश्रेष्ठ लोगों का हुजूम उन्हें देखने के लिए उमड़ आया, जिनमें माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नडेला, गूगल के सुंदर पिचई, एपल के टिम कुक, क्वालकॉम के पॉल जेकब्स और फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग थे. निवेश के महारथी विनोद खोसला मोदी से काफी प्रभावित थे. उन्होंने कहा, “यह कोई राजनीतिक नारेबाजी नहीं है&उनकी डिजिटल भविष्य में गहरी आस्था है. मेरे लिए हालांकि असली बात अमल की है.”
सोशल मीडिया की बात आती है तो प्रधानमंत्री जितना शायद ही कोई भारतीय नेता उसका आदी पाया जा सकता है, जो लगातार अपने फैसलों और बैठकों के बारे में ट्वीट करते रहते हैं. फेसबुक मुख्यालय की टाउनहॉल बैठक में मोदी ने मजाक किया कि किसी का स्टेटस इस बात से तय नहीं होता कि वह जगा हुआ है या सोया है, बल्कि इस बात से तय होता है कि “आप ऑनलाइन हैं या ऑफलाइन.” अपनी मां के बारे में बात करते हुए उनका मानवीय पक्ष भी सामने आया जब उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें बर्तन मांजने पड़े थे.
पश्चिम पर फतह
वैश्विक सूचना-प्रौद्योगिकी के केंद्र में मोदी का दौरा कई मिशन को साथ लिए हुए था. उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल अपने डिजिटल इंडिया कार्यक्रम को प्रोत्साहन देने के लिए किया ताकि देश के भीतर संचार संपर्क बेहतर हो सके और सच्चे मायने में ई-गवर्नेंस व ई-कॉमर्स का आगाज हो सके. उन्होंने स्टार्ट-अप इंडिया और स्टैंड-अप इंडिया में भी निवेश का आह्वान किया ताकि युवा उद्यमी अपने उद्यमों की शुरुआत कर सकें. आयोजन में मौजूद इन्फोसिस के प्रमुख विशाल सिक्का ने कहा, “मेरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री के पास इसे साकार करने के लिए दृष्टि और वनचबद्धता, दोनों है.” मोदी ऐसा करके भारत की साठ फीसदी युवा आबादी के साथ भी राजनैतिक तार जोड़ रहे थे जिसके लिए सोशल मीडिया सांस लेने जैसी जरूरी चीज बन चुका है.
सिलिकॉन वैली की अपनी यात्रा के अंत में मोदी ने पश्चिम को फतह कर लिया था. सिस्को के कार्यकारी अध्यक्ष और यूएस-इंडिया बिजनेस काउंसिल के आगामी चेयरमैन जॉन चैम्बर्स ने इंडिया टुडे को बताया, “मोदी सूचना-प्रौद्योगिकी के मामले में दूरदर्शी हैं. मैंने अब तक जितने भी नेता देखे हैं, उनमें वे पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के बाद सर्वश्रेष्ठ हैं जो इसकी ताकत और अहमियत को समझते हैं.”
कुछ दूसरे कारोबारी मोदी को लेकर थोड़े सतर्क थे. टीआइई सिलिकॉन वैली के अध्यक्ष वेंकटेश शुक्ला ने इस ओर इशारा किया कि डिजिटल इंडिया को कामयाब बनाने के लिए मोदी को अवरोध दूर करने होंगे और स्टार्ट-अप के लिए कर अवकाश और नाकाम रहने पर आसान निकासी जैसी रियायतें मुहैया करानी होंगी. कार्यक्रम के लिए अमेरिका गए स्नैपडील के सह-संस्थापक रोहित बंसल ने कहा, “सरकार की स्थिति मुश्किल है. अगर वह डिजिटल क्रांति की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाती तो उससे सवाल किया जाएगा कि वह ऐसा क्यों नहीं कर रही. अगर वह उसे प्रोत्साहन देती है, तो उससे सवाल होगा कि आप इसे क्यों कर रहे हैं. नीति सही है, लेकिन असल चीज चाल है.”
भारत को सही अर्थों में महान ताकत बनाने की मोदी की इच्छा हालांकि दो अहम कारकों से निबटने के उनके रिकॉर्ड पर निर्भर करेगीः बचे हुए साढ़े तीन साल में सालाना जीडीपी की 8 से 10 फीसदी की वृद्धि दर देने में उनकी सरकार का सामर्थ्य और पड़ोसियों, खासकर पाकिस्तान और चीन के साथ संबंधों का प्रबंधन करने का उनका कौशल. भारत ने 1998 से 2008 के बीच 7 से 8 फीसदी की वृद्धि दर के दम पर ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक जमाई थी. इसी के चलते बड़ी शक्तियों की निगाह भारतीय बाजारों की उच्च संभावनाओं और अपेक्षाकृत बेहतर राजनैतिक स्थिरता पर जा टिकी थीं और नतीजतन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बाढ़ आ गई थी, जिसने वृद्धि और प्रोत्साहन दिया. इस अवधि में एफडीआइ दस गुना बढ़कर तीन अरब डॉलर से 35 अरब डॉलर हो गया था. चीन इस बात का उदाहरण है कि टिकाऊ आर्थिक वृद्धि के सहारे ही वह अकेले दम पर भारत को महाशक्ति की हैसियत दिलवा सकता है और इसीलिए मोदी को उस पर जरूरी निगाह रखनी होगी. इसी समझदारी के साथ मोदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को तिगुना करने यानी 20 खरब डॉलर तक पहुंचाने का वादा किया है.
पड़ोसियों को प्यार करो
भारत के संकटग्रस्त पड़ोस से निबटना अर्थव्यवस्था जितना ही चुनौतीपूर्ण होगा. मोदी ने बहुत पहले ही इसकी अहमियत समझ ली थी और घोषित किया था कि उनकी विदेश नीति में पड़ोसियों को तरजीह दी जाएगी. अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने पाकिस्तान समेत सार्क देशों के नेताओं को बुलाकर तकरीबन तख्तापलट जैस दृश्य रच दिया था. इसे आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पहला दौरा भूटान का किया और उसके बाद नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका की यात्रा की. मोदी की पड़ोस नीति में तीन “सी” को तरजीह दी जाती है&कनेक्टिविटी (संचार), कोऑपरेशन (सहयोग) और कॉन्टैक्ट (संपर्क). इन देशों को सड़कों, व्यापार, ऊर्जा और जनता के माध्यम से आपस में जोडऩे का ख्याल कोई नया नहीं है लेकिन मोदी ने इसे ताजादम कर दिया है. बांग्लादेश के साथ ऐतिहासिक भूमि और सीमा समझौता करने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी के विरोध को भी दरकिनार कर डाला और साबित किया कि काम से मतलब रखते हैं. उन्होंने इसकी तुलना “बर्लिन की दीवार गिरने” से की थी.
पाकिस्तान और चीन के मोर्चे पर उनका रिकॉर्ड मिश्रित है. पाकिस्तान के साथ संलग्नता के लिए मोदी द्वारा की गई पहलें अब तक भारी नाकामी का शिकार हुई हैं जिसमें भारत ने आतंक के मसले पर कोई समझौता नहीं किया तो पाकिस्तान ने कश्मीर का मुद्दा लगातार उठाए रखा. अब जाकर मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ बातचीत के बाद यह तय किया है कि पाकिस्तान को आतंक के मुद्दे पर अलग-थलग कर दिया जाए और इसके लिए उन देशों का समर्थन लेकर उसकी घेराबंदी की जाए जिनके साथ भारत के कारोबारी रिश्ते हैं. यूएई के अपने हालिया दौरे पर उन्होंने वहां के प्रिंस के साथ आतंक से निबटने के लिए एक संयुक्त संधि करके पाकिस्तान को चौंका दिया. इसके अलावा सात मध्य एशियाई देशों की यात्रा के दौरान आठ दिनों के भीतर 57 बैठकें करके उन्होंने आतंक के खिलाफ उनका समर्थन मांगा और उनके यहां ऊर्जा संसाधनों का दोहन करने की भी संभावनाएं तलाशीं. सऊदी अरब की उनकी आगामी यात्रा इसी योजना का हिस्सा है.
इस दौरान मोदी इस बात का जोर लगा रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर एक समग्र घोषणापत्र को अपना ले जिससे पाकिस्तान पर और ज्यादा दबाव बन सके. हाल ही में हुई कूटनीतिक नाकामियों के बाद माना जा रहा है कि पाकिस्तान को संलग्न करने के लिए प्रधानमंत्री छिटपुट पहलें करेंगे ताकि उनके बीच मुलाकातें पहले की तरह सुर्खियों में न आने पाएं. मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में नवाज शरीफ से हाथ नहीं मिलाया, यह खबर भी सुर्खियों में आ गई थी.
चीन के साथ मोदी ने कहीं ज्यादा व्यवस्थित नीति अपनाई है जो आर्थिक सहयोग और सुरक्षा चिंताओं के साथ अंतरराष्ट्रीय राजनीति की एक तिकड़ी कायम करती है. चीन आज एक नई महाशक्ति के रूप में उभरा है जो अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे रहा है, मोदी ने शी जिनपिंग को अहमदाबाद में अपनी मेजबानी में बुलाया. यह बात अलग है कि शी और मोदी जब चाय पर चर्चा कर रहे थे तब चीन ने भारत की पीठ में छुरा घोंपते हुए अपनी सैन्य टुकडिय़ों को भारत की सरहद में भेज दिया. मोदी हालांकि इसे संतुलित करने के लिए काफी जल्दी जापान और ऑस्ट्रेलिया का दौरा कर आए तथा अमेरिका के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ करते रहे, जिससे यह संकेत गया कि चीन को संभालने के लिए दूसरों का साथ लेने में भारत को कोई गुरेज नहीं है.
चीन की निगाह भारत के विशाल उपभोक्ता बाजार पर है और मोदी इसी बाजार का दोहन करके उसके साथ सीमा विवाद को सुलझाने तथा चीन के माध्यम से पाकिस्तान को नियंत्रित करने की ख्वाहिश रखते हैं. बीजिंग के अपने दौरे पर उन्होंने चीन को अपनी सपाटबयानी से स्तब्ध कर दिया जब उन्होंने अपने समकक्ष ली केकियांग से कहा कि आर्थिक रिश्ते सीमा विवाद पर होने वाली प्रगति पर निर्भर करते हैं. उन्होंने खुलकर इस बारे में अपनी चिंता भी जाहिर की कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में बुनियादी ढांचा निर्मित करने के लिए चीन उसे पैसा, कौशल और मानव संसाधन मुहैया करा रहा है जो भारत के हितों के खिलाफ जा सकता है.
अमेरिका के मामले में मोदी ने व्यावहारिकता, निरंतरता और संलग्नता की नीति अपनाई है. उन्होंने अमेरिकी कारोबारियों की भारत में दोबारा भरोसा पैदा करने के लिए उनसे वादा किया है कि वे धीरे-धीरे आर्थिक सुधारों को लागू करेंगे और देश की अर्थव्यवस्था का विनियमन करेंगे. जनवरी में गणतंत्र दिवस पर ओबामा जब मुख्य अतिथि बनकर आए थे तो दोनों देशों ने एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र के लिए एक अहम संयुक्त रणनीतिक दस्तावेज पर दस्तखत किए थे. इसके अंतर्गत भारत इस क्षेत्र की समुद्री सुरक्षा से जुड़ जाएगा और अपने व्यापारिक संपर्कों को एशिया-प्रशांत तक विस्तारित कर सकेगा, जिसमें कई विचाराधीन संधियां भी शामिल हैं.
आज भारत और अमेरिका सामरिक मसलों, आतंकवाद निरोध, आंतरिक सुरक्षा, गुप्तचर सूचनाओं को साझा करने और कानून अनुपालन के क्षेत्रों में एक-दूसरे के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. जिस वक्त शिकायतें की जा रही थीं कि मोदी आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर सुस्त पड़ चुके हैं, उसी दौरान उन्होंने बड़े कारोबारियों को खुश करने के लिए चिनूक हेलिकॉप्टरों की खरीद से संबंधित तीन अरब डॉलर के सौदे को मंजूरी दी.
ओबामा के कार्यकाल का यह आखिरी साल है और वे खासकर जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर कठोर विरासत छोड़ जाने की ख्वाहिश रखते हैं. मोदी पर दबाव है कि वे आगामी दिसंबर में पेरिस में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के एक अहम सम्मेलन में जलवायु कार्य योजना या इंटेंडेड नेशनल डिटर्मिड कन्ट्रिब्यूशन (आइएनडीसी) को सामने रखें जिसके तहत दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश अपने उत्सर्जन स्तरों में पर्याप्त कटौती करने को राजी हो जाएगा. मोदी ने “क्लाइमेट जस्टिस” नामक जिस शब्द को गढ़ा है, उसका उद्देश्य साफ है कि विकसित देशों को स्वच्छ प्रौद्योगिकी के लिए अनुदान और तकनीक का वादा पहले पूरा करना चाहिए. हाल में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को अपनी किताब कन्वीनिएंट ट्रुथ्स की एक प्रति भेंट की जिसमें गुजरात में जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए मुख्यमंत्री के बतौर उनके उठाए कदमों की जानकारी है. भारत जलवायु परिवर्तन पर क्या रुख अपनाता है, वह भी दुनिया में उसके दर्जे को तय करेगा.
मोदी को इस बात का श्रेय जाता है कि वे संबंधों में सुरक्षित दूरी बनाए रखने के परंपरागत तरीके को त्याग चुके हैं जिसके चलते भारत के विकल्प सीमित हो जाते थे. भारत इस वक्त एक नट की तरह कई गेंदों से एक साथ खेल रहा है और अपने दायरे और पहुंच को व्यापक बनाने में लगा हुआ है. इसीलिए अमेरिका का दबाव चाहे जैसा भी हो, वह ईरान के साथ अपना स्वतंत्र संबंध जारी रखता है जबकि इज्राएल के साथ वह साहसिक रिश्तों का आगाज करता है. यही वजह है कि रूस के साथ पारंपरिक रिश्ता बनाए रखते हुए भी भारत को अमेरिका से हथियारों की खरीद में कोई संकोच नहीं होता. जापान और चीन के साथ वह संबंधों को मजबूती दे रहा है, तो आसियान देशों के साथ रिश्तों के लिए भारत ने “लुक ईस्ट” को “ऐक्ट ईस्ट” की नीति में तब्दील कर डाला है. जयशंकर कहते हैं, “भारत की मौजूदा स्थिति उसे एक ही वक्त में कई संबंध बनाए रखने में सक्षम बनाती है.”
संघ का संबंध
मोदी की विदेश नीति का दूसरा सबसे ज्यादा जोर 60 देशों में बसे 2.5 करोड़ आप्रवासी भारतीयों को रिझाने पर है, जिनकी सबसे ज्यादा तादाद फिजी और कैरिबियाई द्वीपों के अलावा अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और पश्चिम एशिया में फैली हुई है. ये अनिवासी भारतीय आज भी विदेशों से भारत में रकम भेजने वाला सबसे बड़ा समूह हैं, जो हर साल 70 अरब डॉलर से ज्यादा रकम स्वदेश भेजते हैं. वे “पीपल ऑफ इंडियन ओरिजिन” होने के साथ-साथ अव्वल दर्जे के पेशेवर हैं और उन देशों में प्रभावशाली हैं, जहां वे रहते हैं. इनमें बहुत बड़ा हिस्सा मोदी के गृह राज्य गुजरात का है.
इन “भारतवासियों” के साथ अपनी सभाओं के इंतजाम में मोदी सरकारी तंत्र के बजाए बीजेपी और आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को लगाते हैं. इनमें बीजेपी के महासचिव और विदेश नीति के वैचारिक प्रवक्ता राम माधव प्रमुख हैं. माधव और उनकी अंदरूनी टीम ने सैन होजे के सैप सेंटर में शानदार रैली का इंतजाम किया, इससे पहले संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया में भी उन्होंने ऐसी ही रैलियां की थीं. अपनी विदेशी पहलों में संघ परिवार को शामिल करके मोदी, मनमोहन के विपरीत, यह पक्का कर रहे हैं कि विदेश नीति के मामले में उनके किसी भी बड़े फैसले के पीछे उनकी पार्टी खड़ी हो.
माधव बताते हैं कि मोदी ने अपनी पार्टी के साथियों के साथ बैठकर “पंचमढ़ी” या विदेश नीति के पांच नए स्तंभों की रूपरेखा तैयार की. माधव कहते हैं, “इनमें युगों-युगों से पाले-पोसे गए भारत की संस्कृति और सभ्यता के मूल्यों की पहले से कहीं ज्यादा अहम और गहरी झलक है.” ये पांच स्तंभ हैं&सम्मान, संवाद, समृद्धि, सुरक्षा और संस्कृति एवं सभ्यता.
मोदी ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र से कामयाब अपील करके संघ परिवार की तारीफ और वाहवाही लूट ली. अपने हाल ही के भाषणों में उन्होंने आरएसएस के संस्थापकों और नायकों को याद करने का कोई मौका नहीं छोड़ा. अमेरिका में मोदी जहां भी गए, सिखों के विरोध प्रदर्शनों पर उनकी नजर पड़ी. सैन होजे के सैप स्टेडियम के ऊपर जब एक हल्का विमान मंडराता दिखाई दिया, जिस पर बैनर लगा थाः “खालिस्तान से बाहर हो भारत”, तब मोदी ने स्टेडियम में जमा लोगों से भगत सिंह का जलसा मनाने के लिए कहा, जिनकी सालगिरह उसी दिन मनाई जा रही थी.
भारत के लिए वैश्विक ताकत के दर्जे की मोदी की खोज अभी शुरू ही हुई है. अमेरिका के विदेशी नीति के अगुआ विशेषज्ञ एश्ले जे. टेलिस कहते हैं, “फिलवक्त यह महत्वाकांक्षा ही है. इसके तीन स्तंभ हैं&इतने ताकतवर कि भू-राजनैतिक ताकत बन सको, कि वैश्विक आर्थिक गुणाभाग तय कर सको और कि दुनिया का ध्रुवतारा बन सको&इन तीनों कसौटियों पर भारत में संभावनाएं तो बहुत हैं, पर अभी उन्हें साकार होना है.” जाहिर है, टीम इंडिया का काम पहले से तय है.