प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अगर 2014 पर पलट कर नजर डालें तो कह सकते हैं कि उनके लिए यह चमत्कारों का वर्ष रहा और उन्हें इस सुख से वंचित रख पाना नामुमकिन है. लोकसभा में स्पष्ट बहुमत पाने के साथ-साथ बीजेपी न सिर्फ महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की सत्ता पर काबिज हुई, बल्कि जम्मू-कश्मीर में भी वोट प्रतिशत के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.
उनकी खुशी में चार चांद इस बात से लगे कि कांग्रेस लोकसभा में सबसे कम संख्या में सिमट गई और 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में दूसरा स्थान भी नहीं पा सकी. इस तरह ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’ का मोदी का चुनावी नारा हकीकत में उतरता दिखा.
अब यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं रह गया है कि बीजेपी के इस उफान और बुलंदी के केंद्र में मोदी की लोकप्रियता है. प्रधानमंत्री बनने के बाद वे चुनावी राज्यों में प्रचार और विदेशी राजधानियों में देश की बात एक ही स्वर में करते रहे. पर रांची, जम्मू और श्रीनगर से चुनाव परिणाम मिलने के साथ ही पार्टी को यह सच भी समझ में आने लगा है कि मोदी लहर की भी एक सीमा है.
अगर इसी प्याले को आधा खाली मानकर देखा जाए तो बीजेपी ने बमुश्किल झारखंड में बहुमत का आंकड़ा पार किया है और कश्मीर घाटी तथा लद्दाख में तो जी-जान से लडऩे के बाद भी वह खाता तक नहीं खोल पाई.
इसका मतलब क्या हुआ? पार्टी के भीतर के लोग और राजनीति के जानकार मानते हैं कि 16 मई को आम चुनावों के नतीजे के बाद भी बीजेपी का राज्यों में चुनाव प्रचार का तरीका एक ही जैसा रहा है. यानी विपक्ष पर जोरदार वार करो, मोदी और बीजेपी को सत्ता से बाहरी के रूप में पेश करके लोगों में सुशासन की उम्मीद जगाओ. लेकिन अब यह एहसास जल्दी ही घर कर सकता है कि दिल्ली की गद्दी पर बीजेपी विराजमान है. फिर इसके साथ ही उसे सरकार विरोधी भावनाओं का भी सामना करना पड़ सकता है.
शायद इसी एहसास से सतर्क होकर बीजेपी के नेता विपक्ष पर आरोप लगा रहे हैं कि वह शासन और विकास से जनता का ध्यान हटाने के लिए धर्मांतरण जैसे मुद्दे उछाल रहा है और संसद में रुकावट डाल रहा है और प्रमुख विधेयकों को पारित नहीं होने दे रहा है.
संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू कहते हैं, ‘‘विपक्ष असल में संसद में गतिरोध पैदा करके सरकार के विकास एजेंडे में फच्चर फंसाने की कोशिश कर रहा है जिससे विकास के लिए बेहद जरूरी कई विधेयकों की राह में रुकावट पैदा की गई. विपक्ष अगले बजट में सरकार के विकल्प सीमित कर देना चाहता है.’’
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का यह भी कहना है कि झारखंड तथा जम्मू-कश्मीर के नतीजों ने साफ कर दिया है कि इन राज्यों में बीजेपी ने अपने विरोधियों की ताकत को कम करके आंका. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘‘कांग्रेस का प्रदर्शन उतना बुरा नहीं रहा जितनी हमने उम्मीद की थी. नेशनल कॉन्फ्रेंस भी इस लहर में बह नहीं गई.’’ उनके मुताबिक पार्टी को लगता है कि जम्मू-कश्मीर में उसे कम-से-कम पांच सीटें उम्मीद से कम मिलीं.
झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) चुनौती बनकर उभरा. उसने सरकार में रहने और सरकार विरोधी भावनाओं के बावजूद अपनी सीटें बढ़ा लीं. दिल्ली और बिहार में 2015 के चुनाव से पहले बीजेपी के लिए ये आंखें खोलने वाले सबक हैं.
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के कश्मीर में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) या नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) से हाथ मिलाने के संकेत से भी साफ है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में एकला चलो की रणनीति पर चलने वाली पार्टी कितना फासला तय कर चुकी है.
बहरहाल, इससे दूसरे राज्यों में बीजेपी के मौजूदा सहयोगियों का आशंकित होना स्वाभाविक है, क्योंकि पार्टी का अवसरवादी रुझान अब स्पष्ट होने लगा है. पूरे देश को भगवा रंग में रंगने की तमन्ना पूरी करने के लिए बीजेपी को तमिलनाडु, ओडिसा और शायद पश्चिम बंगाल में भी सहयोगियों की जरूरत पडऩे वाली है.
इसलिए उसे शायद एनडीए-1 के सफल अनुभव से सबक लेते हुए गठबंधनों की एकरूप नीति अपनानी होगी तथा सहयोगियों के प्रति सम्मान और उदारता का प्रदर्शन करना होगा, जैसा कि उसने अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में किया था. इसमें दो राय नहीं कि 2014 की जीत का नशा उतरने और एक साल का शासन पूरा होने के बाद मोदी और शाह को फिर से कोरी सलेट पर लौटना होगा और अपनी चुनावी रणनीति पर नए सिरे से गौर फरमाना होगा.