
फरवरी की 1 तारीख को 2018 के अपने बजट भाषण के दौरान 41वें मिनट के आसपास केंद्रीय विîा मंत्री अरुण जेटली ने सबसे अहम ऐलान किया, ''स्पीकर महोदया, मेरी सरकार ने स्वास्थ्य सुरक्षा को और ज्यादा आंकाक्षी स्तर पर ले जाने का फैसला किया है." साथी मंत्रियों के मेजें थपथपाने के बीच उन्होंने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (एनएचपीएस) का खाका सामने रखा और 10 करोड़ गरीब और कमजोर परिवारों या 50 करोड़ भारतीयों को अस्पताल में भर्ती होने के खर्चों के लिए सालाना 5 लाख रु. का बीमा कवर देने की पेशकश की.
उन्होंने भरोसा दिलाया कि ''यह सरकारी धन से चलाया जाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम होगा." और इशारा किया कि यह ''न्यू इंडिया 2022" और ''सार्वभौम स्वास्थ्य सेवा" की दिशा में बड़ा कदम है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मेज थपथपाकर अपना जोरदार समर्थन जाहिर किया.
मोदी जानते हैं कि सपनों के जादुई असर को मुट्ठी में कैसे कैद किया जाता है. सत्ता में अपने पिछले 44 महीनों में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री ने ''दुनिया की सबसे बड़ी" योजनाओं के एक पूरे बेड़े का ऐलान किया हैः आधार से लेकर जन धन योजना तक, पहल से लेकर स्वच्छ भारत तक, डिजिटल साक्षरता से लेकर प्रधानमंत्री आवास योजना तक, सहज बिजली हर घर योजना से लेकर जीएसटी तक.
अब इस कड़ी में आयुष्मान भारत योजना के तहत एनएचपीएस जुड़ गया है. लाई गई है. प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया, ''गरीब लोगों की जिंदगी लगातार हलकान रहती है कि बीमारियों का इलाज कैसे करवाएं. उन्हें इस परेशानी से मुक्ति मिलेगी."
अगले 14 महीनों में आठ राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में बीमारी और सेहत के वक्त की सियासत से ज्यादा असरदार भला और क्या हो सकता है? इस योजना की कामयाबी या नाकामी मोदी का वाटरलू या फिर सुनहरा मौका साबित होगी.
क्या यह कारगर होगी?
बजट बनाने के नीरस कामकाज में स्वास्थ्य सेवा को इतना अव्वल दर्जा पहले कभी नहीं मिला. जेटली ने संवाददाताओं से कहा, ''अगर हम इसे कामयाब बना पाते हैं, तो दुनिया को पता चलेगा कि ओबामाकेयर भले कामयाब हुआ या न हुआ हो, मोदीकेयर हुआ है."
हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, ''मुझे फिक्र इस बात की है कि राजकोषीय गणित में गड़बड़ी है." पूर्व वित्त मंत्री पी. चिंदबरम ने इसे हास्यास्पद बताया कि ''बजट में इसके लिए कोई रकम नहीं रखी गई है." वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ''बड़ा झांसा" कहकर इसे खारिज कर दिया.
इस योजना को लेकर लोग तरह-तरह के सवाल दाग रहे हैं—क्या यह कार्यक्रम वाकई कारगर होगा? क्या आंकड़े मेल खाते हैं? पैसा कहां से आएगा? और क्या स्वास्थ्य सेवा को सुलभ बनाने के लिए इतना काफी है? नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन मानते हैं कि ''अगर सियासी और बौद्धिक नेताओं सहित पूरा समाज एकजुट होकर काम करे तो बुनियादी स्वास्थ्य सेवा कम कीमत पर मुहैया करवाई जा सकती है."
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ के.एस. रेड्डी कहते हैं, ''सरकार के पैसे से चलाई जा रही बीमा योजनाओं को नहीं मिलाया जाता, तो मुहैया की गई रकम इतने बड़े कवरेज क्षेत्र के लिए काफी नहीं होगी." केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा ने 2 फरवरी को कहा कि सरकार पर भरोसा रखें, ''धन का कोई मसला नहीं होगा. सब कुछ तय है, हम इसका होमवर्क कर चुके हैं. जब हम इसे लागू करने के लिए तैयार हो जाएंगे तब ब्योरों का ऐलान करेंगे." चर्चा है कि 15 अगस्त या महात्मा गांधी की सालगिरह के दिन 2 अक्तूबर को ऐलान किया जा सकता है.
क्या है भारत का मर्ज
बढ़ती बीमारियों और नाकाफी स्वास्थ्य सुविधाओं से समस्या हो रही गंभीर
दुनिया की सबसे बड़ी अव्यवस्था
इस नई स्वास्थ्य योजना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दुनिया की सबसे बड़ी चुनौतीकृयानी भारत की स्वास्थ्य सेवा—के आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया है. स्वास्थ्य सेवा सुलभ होने के मामले में भारत दुनिया के 195 देशों में 154वीं पायदान पर हैं. यहां तक कि यह बांग्लादेश, नेपाल, घाना और लाइबेरिया से भी बदतर हालत में है. स्वास्थ्य सेवा पर भारत सरकार का खर्च (जीडीपी का 1.15 फीसदी) दुनिया के सबसे कम खर्चों में से एक है.
देश में स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे और इस क्षेत्र में काम करने वालों की बेतहाशा कमी है (देखें ग्राफिक) भारत के 472 मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल शिक्षकों की तकरीबन 40 फीसदी कमी है. देश में एक साल में 6.5 करोड़ सर्जरियों की दरकार है, पर केवल 2.6 करोड़ ही की जाती हैं.
इतना ही नहीं, हिंदुस्तान पर संक्रामक और साथ ही जीवनशैली से जुड़ी जानलेवा बीमारियों का बोझ भी सबसे ज्यादा है—यह केवल डायबिटीज और हृदय रोग की ही राजधानी नहीं है. एचआइवी-एड्स और तपेदिक के मामले में भी यह शीर्ष पर है. 2004 और 2014 के बीच एक बार अस्पताल में भर्ती होने का औसत चिकित्सा खर्च प्रति शहरी मरीज 176 फीसदी और प्रति ग्रामीण मरीज 160 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया.
फिर ताज्जुब क्या कि बीमा के बाहर जेब से किए जाने वाले खर्च 60 फीसदी से ज्यादा हैं जो इस मद में दुनिया के सबसे ज्यादा खर्च में से एक हैं. वहीं ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य देखभाल भारी कमी से जूझ रहा है (देखें ग्राफिक).
नीति आयोग ने रखी नींव
सरकार में चार अहम लोग इस महत्वकांक्षी योजना के मुक्चय कर्ता-धर्ता रहेः नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत, एम्स में पूर्व प्रोफेसर और बाल रोग विभाग के अध्यक्ष और अब नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य एवं पोषण) डॉ. विनोद कुमार पॉल, स्वास्थ्य मंत्री नड्डा और स्वास्थ्य सचिव प्रीति सूदन.
इस योजना को लेकर नीति आयोग की टीम ने प्रधानमंत्री के सामने कई प्रजेंटेशन दिए. इसके क्रियान्वयन, संबंधी सभी सवालों पर संतोषजनक जवाब पाने के बाद ही उन्होंने हामी भरी. अमिताभ कांत कहते हैं, ''यह पहली बार है जब सामाजिक सेक्टर को मुख्य स्थान दिया गया है." उनके मुताबिक जिसमें चुनौती संसाधनों की नहीं है, बल्कि इसे सही तरीके से लागू करने की है.
आयुष्मान भारत योजना एक-दूसरे से जुड़े दो स्तंभों पर टिकी है. पहला, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की बुनियादी को मजबूत करना और दूसरा, कमजोर नागरिकों को वित्तीय स्वास्थ्य सुरक्षा. इसमें उपकेंद्रों को स्वास्थ्य केंद्रों में तब्दील करना, उन्हें रोगों की पहचान के लिए उपकरणों से लैस करना और हाइपरटेंशन, मधुमेह, दमे का इलाज करना, यहां तक कि सामान्य कैंसर और मानसिक चिकित्सा के अलावा बुजुर्गों के स्वास्थ्य की देखभाल करने का विचार है. कांत कहते हैं, ''31 दिसंबर, 2022 तक देश भर में 150,000 स्वास्थ्य और चिकित्सा केंद्र स्थापित करने की योजना है."
राज्यों को महत्व वित्तीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना दरअसल अस्पताल के खर्चों के लिए पैसा मुहैया कराने के बारे में है. इसमें लाभार्थियों की पहचान सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना, 2011 के मुताबिक की जाएगी. कांत के मुताबिक, ''यह योजना ''कैशलेस" पेपरलेस और पोर्टेबल होगी जिसमें निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने से हतोत्साहित किया जाएगा."
चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय होता है, सो इसे केंद्र और राज्य के बीच 60:40 की हिस्सेदारी के आधार पर लागू किया जाएगा. कांत कहते हैं, ''इस योजना को लागू करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण का गठन किया जाएगा." वे बताते हैं कि सहकारी संघवाद की भावना को आगे बढ़ाते हुए राज्यों को यह अधिकार दिया जाएगा कि वे इसे लागू करने के लिए किस तरह का मॉडल अपनाते हैं. राज्य इसके लिए किसी बीमा कंपनी की तरह एक मध्यस्थ का चुनाव कर सकते हैं.
इस मॉडल में सरकार लाभार्थी की ओर से बीमा कंपनी के प्रीमियम का भुगतान करती है. इसकी बजाए राज्य ट्रस्ट-फंडेड मॉडल का तरीका भी अपना सकती है. इसमें स्वायत्त प्रतिष्ठान का गठन किया जा सकता है, जो केंद्र से पैसा ले. वहीं राज्य सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य सेवा देने की एवज में अस्पताल के खर्च के दावों को निपटाने का काम करे.
एनएचपीएस की घोषणा से पहले हर राज्य की ओर से पेश की जाने वाली स्वास्थ्य बीमा योजना का अध्ययन किया गया है. केरल, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और राजस्थान में इस तरह की योजनाएं पहले से चल रही हैं पर इनमें औसत राशि 1 लाख रु. से 1.5 लाख रु. तक ही है. सरकार की प्राथमिक गणना के मुताबिक, प्रति परिवार प्रति महीने शुरुआती प्रीमियम 1,000 रु. से 1,200 रु. के बीच होगा.
लेकिन सरकार उम्मीद करती है कि बाद में जब यह योजना व्यापक रूप लेने लगेगी तो प्रीमियम कम होता जाएगा. सरकार के शुरुआती अनुमान दिखाते हैं कि इस योजना पर 10,000 करोड़ रु. से 11,000 करोड़ रु. के बीच खर्च आएगा. ज्यादा संभावना है कि इसे आधार से जोड़ा जाएगा.
पैसा कहां है
बीमा कंपनियां मोदीकेयर को अपने लिए मौके के तौर पर ताड़ रही हैं. सामान्य बीमा कंपनियों को मोदीकेयर के अंतिम प्रारूप का इंतजार है ताकि उसके आधार पर वे हिसाब-किताब लगाकर प्रीमियम की एक स्वीकार्य रकम तय कर सकें. जाहिर है, लागत, जोखिम और अपने मुनाफे का ध्यान रखते हुए निजी बीमा कंपनियों को फसल बीमा योजना की तर्ज पर बाजार आधारित प्रीमियम की तलाश है.
नीति आयोग के सदस्यों ने पांच लाख के स्वास्थ्य बीमा कवर के लिए प्रत्येक परिवार पर 1,000 रु. से 1,200 रु. की सालाना प्रीमियम राशि का अनुमान लगाया है. इस लिहाज से योजना पर कुल सरकारी खर्च (केंद्र और राज्य सरकार दोनों का) 12,000 करोड़ रु. का होगा. इसके लिए केंद्र और राज्य को 60:40 के अनुपात में अंशदान करना होगा.
यानी केंद्र सरकार को इस योजना पर सालाना 7,200 करोड़ रु. खर्च ने होंगे. 2018 के केंद्रीय बजट में इस योजना के मद में केवल 2,000 करोड़ रु. आवंटित किए गए हैं. इसका मतलब है कि 2018-19 में इस योजना का आंशिक कार्यान्वयन ही होने वाला है.
बात बस यहीं खत्म नहीं होती. फिलहाल पांच सदस्यों वाले किसी परिवार के स्वास्थ्य बीमा का वार्षिक प्रीमियम 12,000 रुपए से 24,000 रुपए के बीच बैठता है. निजी क्षेत्र की बीमा कंपनी युनिवर्सल सोमपो हेल्थ इंश्योरेंस जो सबसे सस्ता स्वास्थ्य बीमा करती है, वह भी पांच लोगों के परिवार को सालाना पांच लाख तक का बीमा कवर देने के एवज में प्रीमियम के रूप में 12,800 रु. हर साल वसूलती है. इसमें अन्य चीजों के अलावा अस्पताल में भर्ती होने से पूर्व और बाद के खर्चे और गंभीर बीमारी को भी कवर किया जाता है.
इसे आधार बनाकर ही यदि हिसाब लगाएं तो सालाना 12,000 रु. प्रति परिवार प्रीमियम की दर से 10 करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा प्रदान करने में प्रतिवर्ष 1.2 लाख करोड़ रु. की दरकार होगी. मोदीकेयर के आकार और पैमाने को देखते हुए सामान्य बीमा कंपनियां आज जितना प्रीमियम वसूल रही हैं उससे कम प्रीमियम पर ऐसा स्वास्थ्य बीमा देने को राजी हो जाएंगी. बजाज एलिआंज जनरल इंश्योरेंस कंपनी के एमडी और सीईओ तपन सिंघल कहते हैं, ''यदि बीमा बड़े पैमाने पर कराया जाए तो प्रीमियम की दरें कम हो जाती हैं.
नई योजना में 10 करोड़ परिवारों के करीब 50 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य बीमा की बात हो रही है." बीमाकर्ता के लिए फायदे की बड़ी बात यह है कि उसे मोदीकेयर का बीमा बांटने में बहुत कम या न के बराबर खर्च करना होगा. बीमाकर्ता एक व्यापक स्वास्थ्य बीमा कवर प्रदान करने के लिए सालाना 5,000 रु. तक के प्रीमियम का अंदाजा लगा रहे हैं. यदि इस रकम को आधार बनाकर हिसाब बिठाया जाए तो मोदीकेयर का बजट 50,000 करोड़ रु. का होगा. इसमें केंद्र सरकार करीब 30,000 करोड़ रु. (60 फीसदी हिस्सेदारी) सालाना का अंशदान करके 10 करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा कवर दे सकती है.
जाहिर है, यह योजना केंद्र और राज्य सरकारों के लिए भी बजट के हिसाब से बड़ी चुनौती है. सरकार पहले से ही पैसे की तंगी झेल रही है. चूंकि स्वास्थ्य बीमा बस एक साल के लिए वैध होता है सो सरकार को सभी मौजूदा बीमा को हर साल नवीनीकृत कराना होगा, साथ ही इसमें नए परिवारों को भी जोड़ते जाना होगा. खाद्यान्न, उर्वरक और पेट्रोलियम पर पहले से ही सब्सिडी दी जा रही है.
तिस पर फसल बीमा योजना और मनरेगा जैसी योजनाओं का अतिरिक्त भार भी लदा है. इस बजट में वित्त मंत्री ने फसल बीमा योजना के मद में 13,000 करोड़ रु. और मनरेगा के लिए 55,000 करोड़ रु. का प्रावधान किया है. यदि सरकार प्रीमियम के रूप में बीमा कंपनियों को 1,000 रु. से 2,000 रुपए के बीच भी राजी कर ले जाती है, तो भी सरकार को इस योजना का दायरा बढ़ाने में कई चुनौतियों का सामना करना होगा.
वहीं 30,000 रुपए का बीमा कवर प्रदान करने वाली राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना और कुछ अन्य सरकारी कार्यक्रम बाजार में पहले से हैं पर इन्हें बीमा कंपनियां भाव नहीं देती. सरकार प्रायोजित योजनाओं में पिछले पांच साल में सरकार का अंशदान 3,000 करोड़ रुपए से भी कम रहा है जबकि स्वास्थ्य बीमा का सालाना बाजार 30,000 करोड़ रु. का है.
सरकार प्रायोजित योजनाओं का अंशदान मात्र 10 फीसदी है. सो मोदीकेयर को ज्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए प्रीमियम की रकम बाजार आधारित रखनी होगी जिसमें बीमाकर्ता अपनी लागत और जोखिम की भरपाई करने के साथ कुछ मुनाफा भी बना सके. वहीं भारत में स्वास्थ्य बीमा कारोबार एक मुश्किल कारोबार रहा है.
यहां बीमा दावा की दर 100 प्रतिशत तक है जिसका अर्थ हुआ कि प्रीमियम से जितनी रकम प्राप्त होती है, उतनी रकम के भुगतान का दावा भी ठोक दिया जाता है. बीमा दावे की रकम के सौ प्रतिशत से ऊपर होने के कारण ज्यादातर सरकारी बीमा कंपनियां पहले से ही खून के आंसू रो रही हैं. निजी क्षेत्र ने उनके मुकाबले 70-80 प्रतिशत का बेहतर दावा अनुपात बरकरार रखा है. कंपनियों ने पहले भी बड़े बिजनेस की फिराक में प्रीमियम की रकम कम करने की तरकीब आजमाकर देखी है पर दांव उल्टा पड़ गया. कॉर्पोरेट स्वास्थ्य बीमा व्यापार में कई कंपनियों को भारी नुक्सान उठाना पड़ा है.
फर्जी दावे के भी अनगिनत मामले सामने आते हैं जो कुल दावे का करीब 15 प्रतिशत है. फ्यूचर जेनेराली इंडिया के एमडी और सीईओ कृष्णमूर्ति राव कहते हैं कि प्रस्तावित योजना की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि इसे व्यावहारिक बनाने की दिशा में कितना प्रयास होता है. बीमाकर्ता कुछ राज्यों में अस्पतालों के खस्ताहाल इंतजामों की बात कर रहे हैं.
अस्पताल बेवजह की जांच करने के लिए भी कुख्यात रहे हैं. कई निजी बीमाकर्ता पूछते हैः जब महानगरों और शहरी क्षेत्रों में बीमा कारोबार पहले से ही उफान पर है तो ऐसे में गांवों में जाकर स्वास्थ्य बीमा कारोबार का जोखिम लेना क्या समझदारी भरा कदम होगा? साल दर साल स्वास्थ्य बीमा कारोबार 18-24 प्रतिशत की दर से तरक्की कर रहा है. मात्र 1,200 रु. की मामूली प्रीमियम राशि पर हामी भरने से पहले निजी बीमाकर्ता निश्चित तौर पर दो बार सोचेंगे जबकि वे महानगरों और शहरी क्षेत्रों में करीब-करीब ऐसे ही बीमा कवरेज के लिए सालाना 12,000 रु. से 24,000 रु. वसूल रहे हैं.
समस्याएं और समाधान
नई स्वास्थ्य सुरक्षा योजना से जवाब कम और सवाल ज्यादा उभरे हैं. हालांकि अभी यह बनने के दौर में है, पर समाधानों की झड़ी लग गई है. यहां हमने जिन विशेषज्ञों से बात की उनके बताए कुछ समाधान दिए जा रहे हैं. इन पर जितनी जल्दी अमल हो उतना ही बेहतर होगाः
द्य सरकार को सेहत के बिल चुकाने वाला सबसे बड़ा खिलाड़ी भर नहीं होना चाहिए
क्या होगा अगर सरकार स्वास्थ्य देखभाल के खर्च चुकाने वाली एक सबसे बड़ी संस्था बन जाती है? निजी स्वास्थ्य सेवाओं के बाजार के लिए यह चिंता का मुद्दा है. जब राजस्व का इतना बड़ा हिस्सा एक ही संस्था से आएगा, तो उसे बेहिसाब असर और रसूख भी हासिल हो जाएगा. ओबामाकेयर के बाद अमेरिका को इसी मसले से दोचार होना पड़ा था और एनएचपीएस के बाद भारत को भी इस मुद्दे का सामना करना पड़ सकता है.
क्या सरकार के पास यह तय करने की ताकत होनी चाहिए कि कौन-कौन-से इलाज और टेक्नोलॉजी कवर करने के लायक हैं और उनके लिए वे कितने खर्च की भरपाई करने को तैयार हैं? अपोलो अस्पताल की संयुक्त प्रबंध निदेशक संगीता रेड्डी कहती हैं कि सरकार ने सेवा प्रदान करने वाले के बजाय सेवा का भुगतान करने वाले की भूमिका अख्तियार कर ली है.
उनके मुताबिक, ''सेवा प्रदान करने वाले को सरकार की तरफ से बुनियादी ढांचा बनाने, संसाधन जुटाने और प्रबंधन करने की, और सेवा की शुरुआत से पहले तैयारी के ज्यादा लंबे वक्त की भी, दरकार होगी. मुझे यकीन है कि सरकार असरदार सेवा प्रदाता का मॉडल भी विकसित करेगी."
प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा पर जोर
रोकथाम और प्राथमिक स्वास्थ्य पर जबरदस्त जोर देना होगा ताकि मरीजों के गैर-संक्रामक (डायबिटीज और दिल की बीमारियों सरीखे) रोगों और दूसरे और तीसरे चरण के इलाज के चंगुल में जाने को कम किया जा सके. इसके लिए पात्रता का मानदंड, डिजिटल हेल्थ कार्ड, पूरी मूल्य शृंखला में नकदीविहीन कामकाज और वक्त पर भुगतान से लेकर फर्जी दावों को कम से कम करने तक तमाम चीजों को बहुत सावधानी से तय करना होगा.
द्य पारदर्शी और व्यावहारिक दरें तय करें
सरकार की तय दरें को प्रैक्टिस कर रहे एक डॉक्टर से लेकर मल्टी और सुपर स्पेशलिटी अस्पताल तक सेवा देने वालों की तमाम श्रेणियों के लिए माकूल होना होगा, ताकि तमाम श्रेणियों के सेवा प्रदाताओं से सेवा खरीदी जा सके और योजना लंबे वक्त तक टिकाऊ साबित हो.
पक्का करें कि योजना में धन की कमी न हो
एनएचपीएस के लिए राज्य भी रकम का बड़ा हिस्सा मुहैया करेंगे. पिछली योजनाओं में—चाहे वह राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना हो या आंध्र प्रदेश या कर्नाटक में अमल में लाई जा रही योजनाएं—धन की कमी है और भुगतान को लेकर वे जूझ रहे हैं. यहां तक कि केंद्रीय योजनाओं—मिसाल के लिए, केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना या रोजगार राज्य बीमा योजना—में भी भुगतान की प्रक्रिया बहुत लंबी है. सो इनमें सही तरीके से पूंजी नहीं लगाई जा रही है.
प्रीमियम पर निगाह रखें
बीमा योजनाओं के उपयोग की दर इतनी ज्यादा है कि प्रीमियम के हर साल बढऩे की संभावना है. प्रीमियम में वृद्धि को कैसे संभाला जाएगा? मेडवेल वेंचर्स के चेयरमैन विशाल बाली कहते हैं, ''जरूरत इस बात की है कि फंडिंग की बिल्कुल साफ व्यवस्था हो, ताकि योजना लंबी चल सके." देरी से लागत बहुत बढ़ जाती है.
सबके लिए एक खाका काफी नहीं
भारत जैसे विशाल और जटिल देश के लिए एक तंत्र और तरीका मुश्किल से ही सभी को सेवा प्रदान कर सकता है. हेल्थ इंश्योरेंस टीपीए ऑफ इंडिया की चीफ ऑपरेटिंग ऑफीसर मालती जायसवाल कहती हैं, ''अपनी विशेषज्ञता के साथ भारत का बीमा उद्योग दूसरे-तीसरे चरण की देखभाल में बेशक मदद का हाथ बढ़ा सकता है, पर सरकार प्राथमिक देखभाल और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने पर ध्यान देती है तो यह सभी के लिए अच्छा होगा."
चुनौती इसके अमल में है
केपीएमजी के ग्लोबल चेयरमैन (हेल्थकेयर) डॉ. मार्क ब्रिटनेल कहते हैं, ''रकम उगाहना और खर्च करना आसान हिस्सा है." इस पर अमल के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी के एक मजबूत मॉडल की दरकार है. ''इससे स्वास्थ्य देखभाल में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की संभावना खुल जाएगी. सार्वजनिक और निजी दोनों अस्पतालों को अपने कारोबारी मॉडल में तब्दीलियां लानी होंगी."
बजट 2018 में स्वास्थ्य सुरक्षा योजना से ज्यादा किसी और चीज ने लोगों के दिलो-दिमाग को नहीं छुआ है. अमर्त्य सेन कहते हैं, ''भारत जैसे लोकतंत्र में चीजें तभी घटित हो सकती हैं जब उनके लिए जनता की ओर से मांग उठे, मतदाता स्वास्थ्य सेवा को संजीदगी से ले रहे हैं और सियासी रहनुमाओं को जवाब देने को मजबूर कर रहे हैं." अगर यह योजना कामयाबी से लागू हो जाती है, तो मोदी सरकार को और लंबे वक्त के लिए जनता का जनादेश मिल सकता है.
—साथ में आनंद अधिकारी, श्वेता पुंज, एम.जी. अरुण और अमरनाथ के. मेनन
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