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भारत-पाक संबंध: नरेंद्र मोदी की रणनीति

सिर्फ दक्षिण एशिया में दबदबा और विश्व मंच पर बुलंदी ही पाकिस्तान के साथ वार्ता की शर्त कड़ी करने में मददगार हो सकती है.

प्रणब ढल सामंत
  • नई दिल्ली,
  • 26 अगस्त 2014,
  • अपडेटेड 3:45 PM IST

अलगावादी संगठन हुर्रियत के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संवाद फिर शुरू करने की शर्त बढ़ा दी है. सीधा-सा मतलब है कि वार्ता प्रक्रिया तभी शुरू होगी जब पाकिस्तान भारत में अलगाववादियों से बातचीत बंद करेगा.

राजनैतिक असंतोष से जूझ रहे पाकिस्तान के लिए यह काम मुश्किल होगा. खासकर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संकट में हैं. भारत की ओर शांति का हाथ बढ़ाने पर उन्हें काफी विरोध झेलना पड़ रहा है. इसमें मोदी के शपथ ग्रहण के लिए भारत यात्रा के दौरान उनका समझौतावादी रुख भी शामिल है.

अगर शरीफ की राजनैतिक जमीन सिकुड़ रही है तो मोदी के सामने भी विकल्प सीमित हैं. हुर्रियत के मामले में रुख तय करने के बाद अब सरकार के सामने एक ही विश्वसनीय उपाय है कि दोनों देशों के बीच सत्ता समीकरण को पूरी तरह बदल दिया जाए. ऐसा बदलाव लाया जाए जो पाकिस्तान को भारत की प्रधानता स्वीकार करने पर मजबूर कर दे.
 
इसके लिए भारत को फुर्ती से दो मोर्चों पर पहल करनी होगी. बड़ी ताकतों को साथ लेना होगा और आस-पड़ोस में अन्य देशों को लुभाना होगा. व्यावहारिक दृष्टि से भारत को जापान, चीन और अमेरिका के साथ बात करनी होगी जो अगले महीने होनी है.

इस बातचीत के नतीजे बुनियादी रणनीतिक बदलाव का संकेत दे सकते हैं. जापान के साथ परमाणु और रक्षा समझौते हो सकते हैं, चीन के साथ आर्थिक सहयोग की दिशा बदल सकती है और अमेरिका के साथ संबंधों में जोश जगाने के लिए कुछ दिलेर कदम उठाए जा सकते हैं.

आस-पड़ोस में बड़ा रणनीतिक संदेश, खास तौर पर बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में भारत विरोधी भावनाओं को शांत करने का होगा. यहां कुछ गुंजाइश है. मोदी ने नेपाल में अच्छी शुरुआत की है, 1950 की संधि पर दोबारा काम करने की इच्छा का भी संकेत दिया है, लेकिन इसे आगे बढ़ाना होगा.

जमीनी सीमा समझौते पर बीजेपी के भीतर विरोध शांत कर और इसे संसद से मंजूरी दिलाकर वे बांग्लादेश में मिजाज में बदलाव ला सकते हैं. इसी तरह श्रीलंका के साथ पर्यटन और बुनियादी ढांचे जैसे मुद्दों पर आर्थिक संवाद केंद्रित कर नई शुरुआत की जा सकती है.

इस सबमें कामयाबी के बाद मोदी सरकार क्षेत्र में प्रधानता और विश्व मंच पर बुलंदी का मजबूत रणनीतिक संदेश दे सकती है जिससे पाकिस्तान के साथ व्यवहार में वजन जरूर बढ़ेगा. इसके विपरीत पाकिस्तान के साथ गतिरोध खासकर अमेरिका और चीन जैसी बड़ी ताकतों के कान खड़े कर देगा जो पाकिस्तान के अहम साथी हैं.

एक और समस्या यह है कि पाकिस्तान के भीतर अस्थिरता, टकराव और असुरक्षा का माहौल है इसलिए उसके साथ व्यवहार और जटिल हो गया है. इसी वजह से हर बार वार्ता रद्द करने के बाद भारत को हमेशा ही नीचे आने का रास्ता तलाशना पड़ता है क्योंकि संपर्क तोड़े रखने का उलटा असर अधिक होता है.

जो भी हो, मोदी के सामने चुनौती साफ है. उन्हें इस फैसले से रणनीतिक लाभ उठाना होगा वरना पलटवार नुकसान दे सकता है.

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