अजय चौधरी और उनके दोस्तों ने बीजेपी में नरेंद्र मोदी के उदय को बहुत उत्साह के साथ देखा है. हर सुबह सफदरजंग हवाई अड्डे के पास चार बाग में आरएसएस की शाखा में कसरत के बाद वे घंटों तक चाय पीते हुए आदर्श भारत की अपनी सोच पर चर्चा करते रहे हैं. उनकी इस सोच की प्रतिध्वनि मोदी के भाषणों में बताए जा रहे भारत के स्वरूप में सुनाई देती है—एक ऐसा देश जिसमें सबका विकास हो और किसी का तुष्टीकरण न हो. सितंबर, 2013 में बीजेपी ने जब मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो दोस्तों का यह झुंड प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के लिए समर्थन जुटाने लगा. चौधरी बताते हैं, “हम 10 अप्रैल को दिल्ली में वोटिंग से पहले हफ्तों तक घर-घर जाकर मोदी का प्रचार करते रहे. मुझे नहीं याद पड़ता कि जब 1991 में आडवाणी जी ने चुनाव लड़ा था, उसके बाद से हमने कभी बीजेपी के लिए इतनी मेहनत की है. इस बार हमने मोदी को वोट दिया है.” चौधरी का मानना है कि मोदी प्रधानमंत्री बने तो, “समान आचार संहिता लागू होगी और मुस्लिम लड़कों से प्यार करने पर हिंदू लड़कियों को इस्लाम नहीं अपनाना पड़ेगा.”
यहां से सैकड़ों मील दूर मुंबई में दुनिया की एक प्रमुख इन्वेस्टमेंट बैंकिंग और मैनेजमेंट कंपनी के भारत कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि अब कांग्रेस और बीजेपी कारोबारी दुनिया का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, सिर्फ मोदी करते हैं. उनकी राय में कॉर्पोरेट जगत की नजर में बीजेपी नहीं बल्कि मोदी अर्थव्यवस्था में बदलाव लाएंगे. उनका यह भी कहना है कि विदेशी संस्थागत निवेशक इस बात की संभावना से उत्साहित हैं कि मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री और बीजेपी के निववाद नेता बनेंगे. दोनों ही मामलों में उम्मीदें आसमान छू रही हैं. “बाजार उन सर्वेक्षणों को सलामी दे चुका है, जिनमें मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने का अनुमान लगाया गया है और बाजार की स्थिति सुधरी है. लेकिन कॉर्पोरेट जगत की यह भी अपेक्षा है कि इस साल 15 अगस्त को अपनी सरकार के लगभग तीन माह पूरे होने तक मोदी दिखने लायक परिवर्तन करने लगेंगे.”
एक आदमी की हुई पार्टी
बीजेपी में मोदी का बोल-बाला
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने पार्टी का मोदीकरण करना शुरू कर दिया है. दिल्ली में मतदान के दिन अखबारों में छपे पूरे पेज के विज्ञापनों में छपी मोदी की तस्वीर ने दावा किया था, “बीजेपी उम्मीदवार के लिए आपका वोट मेरे लिए वोट है.” देश में 1971 के बाद से एक व्यक्ति पर केंद्रित चुनाव नहीं हुआ है. 1971 में प्रचार इंदिरा गांधी पर केंद्रित था, जब उन्होंने “गरीबी हटाओ” का नारा दिया था. इस चुनाव में मोदी का नारा है—कांग्रेस मुक्त भारत. मोदी के विश्वस्त और उत्तर प्रदेश में पार्टी के उनके सिपहसालार अमित शाह का कहना था, “देश की जनता ने तो पार्टी का औपचारिक उम्मीदवार घोषित होने से पहले ही मोदी को प्रधानमंत्री चुनने का मन बना लिया था.”
यह प्रचार न सिर्फ राष्ट्रपति शैली में और व्यक्तित्व केंद्रित है, बल्कि इस चुनाव में मोदी का उदय बीजेपी का वह रूप भी बदल रहा है, जो पिछले 16 साल में एनडीए और यूपीए के शासनकाल में रहा है. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद का युग शुरू हो चुका है. अधिकांश राज्यों और अधिकतर प्रमुख पदों के लिए मोदी के अपने वफादार तय कर लिए गए हैं, जो बीजेपी का नया रूप गढ़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में शाह के अलावा गुजरात में कैबिनेट मंत्री आनंदी बेन पटेल, ओडिसा और बिहार में पार्टी महासचिव धर्मेंद्र प्रधान और दक्षिणी राज्यों में मुरलीधर राव कुछ प्रमुख वफादार हैं.
मन ही मन प्रधानमंत्री पद की लालसा पालने वाले कुछ नेताओं को छोड़कर बीजेपी में अधिकतर नेता मोदी के पीछे खड़े हैं. मोदी के संरक्षक आडवाणी, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी और वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह जैसे अन्य नेताओं को कठोर तेवरों और निष्कासन (जसवंत सिंह) का भी सामना करना पड़ा है. 13 अप्रैल को जोशी ने मनोरमा न्यूज से कहा था, “मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पार्टी के प्रतिनिधि हैं. इसलिए यह बेहद व्यक्तिगत नहीं बल्कि प्रतिनिधि लहर है. वे जनता के मूड और बदलाव की इच्छा के प्रतीक हैं.” जोशी को न सिर्फ अगले दिन अपने वक्तव्य पर स्पष्टीकरण देने के लिए मजबूर किया गया, बल्कि दो दिन बाद जब वे कानपुर में बीजेपी के कार्यक्रम में कार्यकर्ताओं को संबोधित करने लगे तो मोदी समर्थक उन्हें बोलने से रोकने के लिए हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के नारे लगाने लगे. आखिरकार जोशी को वहां से जाना पड़ा. इससे पहले जोशी को वाराणसी से उखाड़कर कानपुर भेजा गया, ताकि मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी सीट से चुनाव लड़ सकें.
इंदिरा गांधी ने जिस तरह कांग्रेस में सर्वशक्तिमान सिंडिकेट के पर कतरे थे. उसी तरह मोदी ने इस चुनाव में उन लोगों का महत्व कम कर दिया है, जो उनके पिछलग्गू नहीं बने. इससे पहले पार्टी ने कभी एक आदमी के सामने चुपचाप इस तरह घुटने नहीं टेके थे.
नरेंद्र मोदी के संरक्षक और हिंदुत्व के असली नायक लालकृष्ण आडवाणी को भी उस समय से मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, जब उन्होंने आपत्ति की थी कि बीजेपी मोदी के लिए सर्वसम्मति का रास्ता छोड़ रही है. मई, 2013 में आडवाणी गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल नहीं हुए ताकि पार्टी की प्रचार समिति के प्रमुख के पद पर मोदी की नियुक्ति रुकवा सकें. जवाब में दिल्ली में पृथ्वीराज रोड पर आडवाणी के घर के बाहर उनके विरोध में नारे लगाने वाले और पोस्टर उठाए प्रदर्शनकारी जमा हो गए और उधर, गोवा में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने संसदीय बोर्ड से इस नियुक्ति पर अपनी मुहर लगवा ली. उन्होंने तर्क दिया था कि पार्टी नेतृत्व नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की संगठन की मांग को ज्यादा समय तक अनदेखा नहीं कर सकता.
आडवाणी के विपरीत राजनाथ नए हालात में अपनी ताकत और पार्टी में अपनी हैसियत बढ़ाने में कामयाब रहे. उन्होंने खुद को पार्टी के अनुशासित सिपाही के रूप में पेश किया. इसीलिए वे मोदी के बाद दूसरे नंबर पर हैं. पिछले दिनों ही पार्टी ने आडवाणी को अपना निर्वाचन क्षेत्र गुजरात में गांधीनगर से बदलकर मध्य प्रदेश में भोपाल करने का फैसला पलटने के लिए बाध्य कर दिया. आडवाणी इस बात से नाराज थे कि मोदी और राजनाथ तो अपनी पसंद की सीटें हड़प रहे हैं, लेकिन जोशी और कलराज मिश्र जैसे वरिष्ठ नेताओं को उनकी सीटों से धकेल रहे हैं.
आडवाणी के वफादार हरिन पाठक को अहमदाबाद पूर्व से टिकट नहीं दिया गया. जोशी और आडवाणी ने 2009 में पाठक को टिकट देने पर मोदी की अपत्तियां खारिज कर दी थीं. इस बार पार्टी के दोनों पूर्व अध्यक्ष मोदी की दया पर निर्भर हैं और अब अपने निर्वाचन क्षेत्र का फैसला करने की उनकी हैसियत भी नहीं रही. अगर बीजेपी ने कांग्रेस को भारी अंतर से हरा दिया और मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार केंद्र की सत्ता में आ गई, तो नरेंद्र मोदी के उदय के साथ आरएसएस के समर्थन से बीजेपी में जो बदलाव आए हैं, वे पत्थर की लकीर हो जाएंगे.
नई व्यवस्था
दिल्ली से बाहर पहुंचा सत्ता का केंद्र
बीजेपी के भीतर मोदी का उदय ऐसी कई भीतरी लड़ाइयों की देन है, जिन्होंने 2004 और 2009 में पार्टी को कांग्रेस के लिए गंभीर चुनौती नहीं बनने दिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की लगातार दूसरी हार के बाद आरएसएस ने कलह में उलझी पार्टी की बागडोर संभाली. उसने डी4 कहलाने वाले दिल्ली के उस गुट का वर्चस्व खत्म कर दिया, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी के खास लोग अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और एम. वेंकैया नायडू शामिल थे. आरएसएस ने पार्टी नेताओं के संसदीय और संगठन संबंधी कार्यों को बांट दिया.
सुषमा स्वराज लोकसभा में और अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता बने, तो मार्च, 2009 में संघ के नए सरसंघ चालक बने मोहन भागवत ने दिसंबर, 2009 में अपने विश्वस्त नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया. नागपुर के कारोबारी और महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री नितिन गडकरी का राजनैतिक कद हालांकि छोटा था, लेकिन बीजेपी की लगाम कसने का आरएसएस का यही तरीका था. आरएसएस की चालों के समानांतर मोदी अपना जाल बिछा रहे थे. वे सुशासन के गुजरात मॉडल और राज्य में बीजेपी की सफलता से मचे शोर के सहारे दिल्ली की गद्दी के सपने देखने लगे. गडकरी का कार्यकाल और व्यक्तित्व फीका रहा और हिंदुत्व के मजबूत प्रतीक के रूप में कार्यकर्ताओं की तलाश मोदी पर जाकर खत्म हुई.
जनवरी, 2013 तक गडकरी अपनी कंपनियों के भ्रष्टाचार में उलझ गए और उनकी जगह राजनाथ सिंह ने ले ली, जो संघ की दूसरी पसंद थे. नरेंद्र मोदी गुजरात में लगातार तीसरा चुनाव जीत गए और उनकी नजरें दिल्ली पर जम गईं. आडवाणी की फिर से पार्टी अध्यक्ष बनने की कोशिशों को आरएसएस से कोई सहारा नहीं मिला, जिसने 2005 में उन्हें हटाया था. कार्यकर्ताओं के बीच मोदी के प्रति अपार समर्थन ने संघ को न सिर्फ उनकी उम्मीदवारी स्वीकार करने, बल्कि मजबूती से उन्हें समर्थन देने पर बाध्य कर दिया (देखें बॉक्स).
नरेंद्र मोदी बड़े-बड़े नेताओं सहित पार्टी के 12 सदस्यों के संसदीय बोर्ड पर भारी पडऩे लगे और हाल तक सभी बड़े फैसले उन्होंने खुद अपने आप लिए हैं. पिछले कुछ महीनों में आडवाणी, सुषमा स्वराज और जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं ने इस बात का विरोध किया है कि मोदी किस तरह अपने फैसलों पर सर्वसम्मति लिए बिना राजनाथ सिंह के जरिए उन्हें बोर्ड पर थोपते रहे हैं. विरोध के सार्वजनिक होने पर उसके नतीजे भी सामने आते रहे हैं.
सुपर विकल्प
मोदी के चुने हुए उम्मीदवार
बीजेपी ने इस चुनाव में जितने उम्मीदवार उतारे हैं, उनमें से करीब 15 प्रतिशत एकदम बाहरी या दूसरी पार्टियों से आए हैं. पार्टी के एक महासचिव कहते हैं, “अगर वास्तव में नरेंद्र मोदी की कोई लहर है, तो इनमें से बहुत सारे उम्मीदवारों को जीत जाना चाहिए. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी संसदीय दल में बहुत बड़े हिस्से की वफादारी सीधे मोदी के प्रति होगी, किसी अन्य पार्टी नेता या इकाई के प्रति नहीं. यह पूरा चुनाव मोदी पर सिमट गया है. अगर यह फॉर्मूला कामयाब रहा, तो मोदी को वैसा विरोध नहीं झेलना पड़ेगा, जैसा उनसे पहले कई बड़े नेताओं को झेलना पड़ा है.” सात बार सांसद रह चुके हरिन पाठक को मोदी के चहेते और फिल्म ऐक्टर परेश रावल के लिए सीट छोडऩी पड़ी. शुरू में रावल का कुछ जगहों पर विरोध हुआ लेकिन बाद में इस विरोध को दबा दिया गया और सब कुछ शांत हो गया.
नई दिल्ली में पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन के खिलाफ उतारी गईं मीनाक्षी लेखी राजनीति में अपेक्षाकृत ज्यादा जाना-पहचाना चेहरा नहीं हैं, लेकिन मोदी की पक्की वफादार हैं. अगर मोदी की लहर काम कर गई तो उन्हें हर शाम टीवी स्टुडियो की चर्चाओं में नमो-नमो जपने का इनाम मिल जाएगा.
गुजरात में बीजेपी के 26 उम्मीदवारों में से एक तिहाई से ज्यादा कांग्रेस से आए हैं. इनमें सुरेंद्र नगर से पूर्व विधायक देवजी भाई फतहपुरा और पोरबंदर से उम्मीदवार प्रभु भाई वासवा शामिल हैं, जो विधायकी से इस्तीफा देकर टिकट मिलने से महीना भर पहले ही बीजेपी में शामिल हुए थे. उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने बाबा रामदेव के चार उम्मीदवारों सहित दो दर्जन से अधिक बाहरी नेताओं को टिकट दिया है.
डुमरियागंज (कांग्रेस के जगदंबिका पाल) और गोंडा (समाजवादी पार्टी के कीर्ति वर्धन सिंह) के वर्तमान सांसद बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. गाजियाबाद में पूर्व थल सेना अध्यक्ष वी.के. सिंह और पड़ोसी बागपत से मुंबई के पूर्व पुलिस प्रमुख सत्यपाल सिंह बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. इन सभी जगहों पर बीजेपी के पुराने नेताओं और इस बार चुनाव में उम्मीदवार बनने की लालसा रखने वाले लोग बहुत खुश नहीं हैं, हालांकि वे सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर नहीं कर रहे हैं. उन्हें इस बात का एहसास है कि मोदी की रणनीति काफी हद तक सफल रहती है और अगर पार्टी सत्ता में आई तो अंततः उन्हें भी लाभ होगा.
बीजेपी कार्यकर्ताओं के समर्थन और पीठ पर आरएसएस के हाथ के बल पर मोदी ने बीजेपी को कम बोझिल और चालाक बनाने का सिलसिला शुरू कर दिया है. यह नई बीजेपी 2014 के चुनाव में 11 अशोक रोड पर कम निर्भर है. नितिन गडकरी की पार्टी अध्यक्ष पद पर नियुक्ति के समय आरएसएस मुख्यालय नागपुर अहम हो गया था और पिछले साल गांधीनगर का पलड़ा भारी हो गया. मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से पहले ही उनके वफादार अमित शाह को पार्टी का राज्य प्रभारी महासचिव बनाकर उत्तर प्रदेश भेज दिया गया था.
इधर, मोदी देश के लिए विकास का गुजरात मॉडल बेचने और उसे नए-नए तरीकों से पेश करने में लगे रहे. उधर, शाह चुनाव के हाइटेक मैनेजमेंट का गुजरात मॉडल उत्तर प्रदेश ले आए. उन्होंने राज्य में उम्मीदवारों के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यही नहीं, पार्टी का प्रचार अभियान भी बहुत करीने से तैयार किया और सार्वजनिक भाषण देने की बजाए इलाके के प्रमुख लोगों से मिलकर बात करने पर ध्यान दिया. इससे जहां उनका स्थानीय लोगों से सीधा संपर्क हुआ, वहीं उनका यह तरीका ज्यादा कारगर रहा क्योंकि स्थानीय नेता नीचे तक उनका संदेश पहुंचा देते हैं. आरएसएस ने शाह की मदद करने और सारे ऑपरेशन पर नजर रखने के लिए अपने दो विश्वस्तों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के पूर्व संगठन सचिव सुनील बंसल और संघ के संयुक्त महासचिव कृष्ण गोपाल को तैनात कर दिया. 2009 में बीजेपी को राज्य में 80 में से 10 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. इस बार इस टीम का लक्ष्य 50 सीटें जीतना है. यूपी के नतीजे इस दृष्टि से काफी अहम हो जाते हैं.
गुजरात का दूसरा मॉडल
असहमति का सिकुड़ता दायरा
मोदी के उदय के साथ ऐसे युग का भी सूत्रपात हुआ है, जो राजनैतिक ताकत बढ़ाने के लिए टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट तकनीकों का बखूबी इस्तेमाल करता है. फिर भी बीजेपी के अंदर मोदी के उदय की वजह से बेचैनी भी बहुत ज्यादा है. उसके कारण समझना मुश्किल नहीं है. मोदी की राजनीति में असहमति के लिए कोई जगह नहीं है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “गुजरात का एक और मॉडल है, जिससे सब डरते हैं. नरेंद्र मोदी ने पूर्व मुख्यमंत्रियों केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता और कई अन्य नेताओं का राजनैतिक सफर खत्म कर दिया.” मोदी ने 2002 के विधानसभा चुनाव में राज्य के पूर्व गृह मंत्री हरेन पांड्या को टिकट न देकर राज्य में संघ के साथ भी दो-दो हाथ किए. एक जमाने में अपने सहयोगी और बाद में आंख की किरकिरी बने संजय जोशी से भी बार-बार टक्कर ली और आखिरकार 2012 में उन्हें बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया गया.
1995 में गुजरात में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी और केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री बने. मोदी तब बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव थे. उन्हें 1987 में जोशी के साथ पार्टी में भेजा गया था और उन्होंने गुजरात में दबदबा बना लिया था. शंकर सिंह वाघेला ने पटेल सरकार में मोदी के दबदबे पर आपत्ति की और पार्टी का विभाजन कर दिया. 1998 में पटेल जब दोबारा मुख्यमंत्री बने, तो आडवाणी से कहकर मोदी को संगठन महासचिव बनाकर दिल्ली भिजवा दिया, लेकिन खुद जोशी गुजरात में ही रहे. मोदी ने गुजरात से निकाले जाने के लिए पटेल और जोशी को कभी माफ नहीं किया. पटेल के कार्यकाल में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के कार्यकारी अध्यक्ष और संघ के प्रतिनिधि प्रवीण तोगडिय़ा भी बहुत ताकतवर थे. 2001 में मोदी मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात लौटे तो तोगडिय़ा ने 2002 के चुनाव में बीजेपी का समर्थन किया. मोदी के दूसरे कार्यकाल में राज्य में वीएचपी और बीजेपी के रास्ते अलग हो गए. वीएचपी राज्य में हिंदुत्व के एजेंडे पर जोर देना चाहती थी और मोदी विकास के रास्ते पर बढऩा चाहते थे. इस तरह उन्होंने तोगडिय़ा को न सिर्फ नजरअंदाज किया बल्कि राज्य की राजनीति में उन्हें गौण बना दिया.
संजय जोशी का चढ़ता करियर ग्राफ अचानक उस समय रुक गया, जब 2005 में मुंबई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से ठीक पहले एक सेक्स सीडी सामने आ गई, जिसमें जोशी कथित रूप से शामिल थे. नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने, जोशी की वापसी हुई और वे उत्तर प्रदेश में काम करने लगे. लेकिन मई, 2012 में मोदी ने बीजेपी की पूरी गुजरात इकाई से बहिष्कार की धमकी दिलवा दी. संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी छोडऩी पड़ी.
मोदी आसानी से माफ नहीं करते हैं और न ही कोई बात भूलते हैं. वे अनुशासनहीनता भी बर्दाश्त नहीं करते. जुलाई, 2010 में फीस बढ़ाए जाने के विरोध में एबीवीपी के आंदोलन के दौरान गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति के घर में घुसने के बाद छात्र नेता पकड़े गए. कहते हैं कि उस समय मोदी ने संघ से मदद ली और 15 दिन में मांगों पर कार्रवाई करने के वादे पर आंदोलन खत्म करा दिया. लेकिन मांगें कभी पूरी नहीं हुईं.
इसके विपरीत मोदी ने जिस तरह गुजरात को चलाया, उसमें भारत के लिए उनकी आर्थिक दृष्टि की झलक मिल सकती है. छत्तीसगढ़ में पार्टी की सरकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के यूपीए के कार्यक्रम से बेहतर होने के पार्टी के दावे के बावजूद मोदी खैरात बांटने के खिलाफ हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि उनके मॉडल में सरकार निवेश में सहायक के तौर पर काम करेगी और निजी उद्यम को अधिक बढ़ावा दिया जाएगा. पार्टी ने यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान रिटेल में एफडीआइ पर अपना रुख बदला है और कलाबाजी खाई है. लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी बाजार से ज्यादा संचालित होंगे और सुधारों पर ध्यान देंगे, जिससे बीजेपी की आर्थिक दृष्टि फिर दक्षिणपंथी हो जाएगी, जैसे इंग्लैंड में मारग्रेट थैचर ने कंजर्वेटिव पार्टी के साथ किया था.
संघ की मूल आस्थाएं मोदी के नेतृत्व में एनडीए के लिए सिर दर्द जरूर बनेंगी. अगर बीजेपी को सरकार बनाने और चलाने के लिए कम सहयोगियों की जरूरत पड़ी, तो आरएसएस अपने एजेंडे को लागू करने के लिए जबरदस्त दबाव डालेगा, जिसमें इतिहास की किताबों में फेरबदल से लेकर अनुच्छेद-370 खत्म करना और समान आचार संहिता लागू करना शामिल है. लेकिन मोदी इस मामले में संघ से अलग रवैया अपना सकते हैं. वे सुशासन और विकास के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाएंगे.
मोदी जिस बदलाव का सपना दिखा रहे हैं, वह यूपीए की नीति शून्यता से खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे लाखों लोगों को भले ही लुभा ले, लेकिन स्वयंसेवकों की उस फौज को नहीं रिझ पाएगा जो स्वदेशी और सादे जीवन के संकल्प के साथ उनका चुनाव प्रचार कर रहे हैं. अगर गुजरात में संघ परिवार का ताजा इतिहास कोई प्रमाण है, तो हो सकता है कि संघ को जल्द ही अपना मांग पत्र बदलना पड़े.