
हर प्रधानमंत्री को स्वतंत्रता दिवस पर तोपों की गर्जना तथा राष्ट्रगान की धुन के बीच लाल किले की प्राचीर से झंडा फहराते हुए उस मौके की गंभीरता और अहमियत का एहसास जरूर हुआ होगा. आजाद भारत का गौरव और उससे जुड़ी उम्मीदों का जबरदस्त बोझ दोनों ही उसके कदम को भारी करते होंगे. नरेंद्र मोदी को भी 378 साल पुराने मुगल काल के इस स्मारक से लगातार पांचवीं बार राष्ट्र को संबोधित करते हुए यही एहसास हुआ होगा. वह एहसास वाकई नशीला और संजीदा होगा कि आप पर देश के 1.3 अरब लोगों की नजर है और जो भी कदम उठाएंगे, वह उन सबके निजी नियति से साक्षात्कार जैसा होगा.
15 अगस्त, 2014 को जब मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपना पहला भाषण दिया था, उन्होंने खुद को ऐसे बाहरी शख्स के तौर पर पेश किया था, जिसे देश का कायापलट करने, पिछली सरकार के नीतिगत लकवे को खत्म करने और मंद पड़ती अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने का जनादेश हासिल हुआ था. उन्होंने कई अभिनव कार्यक्रमों का ऐलान किया था जिनमें उनका सबसे खास स्वच्छ भारत अभियान भी शामिल था. चार साल बाद 2018 में मोदी बिल्कुल भीतरी शख्स बन चुके हैं और सर्वोच्च कमान उनके हाथ है. उन्होंने पूरी वाक् पटुता के साथ हरेक क्षेत्र में और गरीब, पिछड़े, किसान, मध्यम वर्ग, कारोबारी, नौजवान और महिला हर तबके के लिए अपनी सरकार के काम और उपलब्धियां गिनाईं. प्रधानमंत्री के भाषण की बड़ी बात यह थी—मेरी सरकार ने कर दिखाया है.
उन्हें पता था कि मई 2019 में होने वाले आम चुनावों से पहले राष्ट्र को संबोधित करने का यह उनके लिए आखिरी मौका होगा. लिहाजा, मोदी ने इस मंच का इस्तेमाल सत्ता में अपनी दोबारा वापसी के अभियान के आगाज की तरह किया. उन्होंने "न्यू इंडिया'' और विकास के नए दौर की तस्वीर पेश की, जिसमें "सबके लिए घर, बिजली, पानी, एलपीजी, शौचालय, हुनर, स्वास्थ्य, बीमा और कनेक्टिविटी्य होगी. इस तरह उन्होंने वह एजेंडा तय कर दिया जिसकी देश भर में न केवल व्यापक अपील होगी, बल्कि जिसकी बराबरी कर पाने में उनके विरोधी मुश्किल पाएंगे. तो, मोदी का दूसरा बड़ा संदेश था—मेरे पास वह विजन, मिशन और जज्बा है जो 2019 से भी आगे जाता है—इसलिए मुझे फिर वोट दो.
मोदी का नया इंडिया
मोदी के समर्थकों को यकीन है कि स्वतंत्रता दिवस पर उनका यह आखिरी भाषण नहीं होगा और उनका दूसरा कार्यकाल जीतना तय है. फिर भी साल में दो बार होने वाले इंडिया टुडे ग्रुप-कार्वी इनसाइट्स देश का मिज़ाज जनमत सर्वेक्षण के नतीजों से उनका यह विश्वास हिल जाना चाहिए. यह सर्वे मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के 2019 के लोकसभा चुनाव में वैसा ही बहुमत जीतने की संभावना पर संदेह की छाया डाल देता है, जैसा उन्होंने 2014 के आम चुनाव में हासिल किया था.
जुलाई में किया गया देश का मिज़ाज शृंखला का यह ताजातरीन सर्वेक्षण बतलाता है कि जुलाई, 2017 के सर्वे में भाजपा को 298 सीटों की जो आरामदायक बढ़त हासिल हुई थी, वह घटकर 245 सीटों पर आ गई है—जो अपने दम पर बहुमत के लिए जरूरी 272 सीटों से 27 कम हैं. सर्वे यह भी बताता है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के अपने सहयोगी दलों के साथ भाजपा 281 सीटों के साथ किसी तरह सत्ता महज कायम रख पाएगी, जो पार्टी को गठबंधन के साझेदारों की खींचतान और दबावों के आगे मजबूर और कमजोर बना देगा.
भाजपा के लिए और भी ज्यादा चिंताजनक सर्वेक्षण के अनुमान से वह संभावना है जिसमें विपक्ष अगर एकजुट हो जाता है और महागठबंधन बना लेता है जिसमें मुख्य रूप से कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और जनता दल (सेक्युलर) होंगे. अगर ऐसा होता है, तो यह गठबंधन 224 तक सीटें जीत सकता है और एनडीए की बराबरी पर आ सकता है जिसकी सीटें घटकर 228 रह जाएंगी. ऐसे में संसद त्रिशंकु होगी. भाजपा की अपनी सीटें घटकर 194 पर आ जाएंगी.
तब भी हालांकि वह सबसे बड़ी पार्टी होगी, पर सरकार बनाने के लिए उसे अपनी सहयोगी पार्टियों और पार्टियों की टूट-फूट पर बुरी तरह निर्भर रहना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में भाजपा के वोट खींचने वाले सबसे दमदार नेता के तौर पर मोदी की साख को गंभीर धक्का लगेगा और एनडीए के सहयोगी दलों में प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी स्वीकार्यता पर संदेह के बादल मंडराने लगेंगे. शायद मोदी खुद भी पार्टियों के ऐसे झुंड के दम पर हुकूमत करने के इच्छुक न हों क्योंकि तब ऐसे गठबंधन को चलाने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है जिसमें उनकी बात उस तरह बेधड़क नहीं सुनी जाएगी जैसे अभी सुनी जाती है. सर्वे एक तीसरी संभावना पर भी विचार करता है, जिसमें अन्नाद्रमुक एनडीए में शामिल हो जाती है. अगर ऐसा होता है, तब भी एनडीए का गठबंधन बहुमत से पीछे रह सकता है.
तो, मोदी ने जिन तमाम उपलब्धियों का बखान किया, उन सबके बावजूद ऐसा क्यों है कि देश का मिज़ाज सर्वेक्षण में शामिल लोग शक-शुबहे से भरे हैं और मोदी और भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं देना चाहते? एक बात तो यह है कि सरकार के कामकाज से संतुष्ट लोगों की तादाद अब भी अच्छी-खासी है पर लगातार गिरती गई है—जनवरी 2017 के सर्वे में 71 फीसदी के सबसे ऊंचे स्तर से गिरकर अब यह 56 फीसदी के आसपास आ गई है.
मोदी के लिए उत्साहजनक बात यह है कि उन्हें अब भी 49 फीसदी के साथ प्रधानमंत्री बनने के लिए अब तक का सबसे अच्छा नेता माना जा रहा है—कार्यकाल के चौथे साल में यह किसी भी मानदंड से अच्छी है. मगर वे उतने लोकप्रिय नहीं रह गए हैं जितने डेढ़ साल पहले थे जब उनकी रेटिंग 65 फीसदी पर थी. भाजपा के समर्थकों के लिए यह बात भी परेशान करने वाली हो सकती है कि सर्वे दिखाता है कि राहुल गांधी की लोकप्रियता फिर उभार पर है और उनकी रेटिंग जनवरी, 2017 के सर्वे के 10 फीसदी के निचले स्तर से बढ़कर इस बार 27 फीसदी पर आ गई है. मोदी और उनके बीच अब भी 22 प्रतिशत अंकों को बड़ा फासला है, पर यह बताता है कि कांग्रेस अध्यक्ष केनाते राहुल गांधी चैलेंजर बनकर उभर रहे हैं और उनकी छवि का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है.
एक और वजह यह है कि हरेक प्रधानमंत्री को उन तीन बुनियादी मुद्दों पर जरूर काम करके दिखाना ही होगा जिन्हें हरेक देश का मिज़ाज सर्वे चिंताओं की फेहरिस्त में सबसे ऊपर रखता है—नौकरियां, कीमतों में बढ़ोतरी और भ्रष्टाचार पर लगाम. हमारा ताजातरीन सर्वे दिखाता है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने को अब भी मोदी की सबसे बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जाता है—काले धन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई, सरकार के भीतर भ्रष्टाचार में कमी और नोटबंदी को मिलाकर 44 फीसदी का समर्थन मिला है. जीएसटी लाने, स्वच्छ भारत और बुनियादी ढांचे के विकास कार्यक्रमों के लिए जहां उनकी पीठ थपथपाई गई है, वहीं एनडीए सरकार की कई दूसरी योजनाओं को ठंडी प्रतिक्रिया मिली है जिनमें बहुत जोरशोर से प्रचारित जन धन योजना, डिजिटल इंडिया और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण शामिल हैं. महंगाई पर काबू पाने के बारे में सर्वे दिखाता है कि उनके लिए परेशानी बढ़ रही है क्योंकि धारणा यह है कि कीमतों में बढ़ोतरी खतरे का निशान पार कर गई है.
नौकरी को लेकर मुश्किल है भारी
नौकरियों की कमी प्रधानमंत्री की चिंता की असली वजह है. नौकरियों की कमी मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है, ऐसा मानने वाले लोगों का प्रतिशत पिछले सर्वेक्षण में जहां 22 फीसदी था, वह इस सर्वेक्षण में बढ़कर 29 फीसदी हो गया है. हालांकि प्रधानमंत्री बार-बार कर्मचारी भविष्य निधि रजिस्टर के आंकड़ों का हवाला देकर यह बताने की कोशिश करते हैं कि उनकी सरकार के कार्यकाल में नौकरियों में भारी संख्या में वृद्धि हुई है और पर्यटन, निर्माण क्षेत्र और विमानन जैसे क्षेत्र, जिनमें रोजगार के बहुत ज्यादा अवसर पैदा होते हैं, ने पिछले चार वर्षों में तेज गति से विकास किया है जिनसे नई नौकरियां पैदा हुईं हैं. नोटबंदी आत्मघाती साबित हुई क्योंकि लोगों को लगता है कि इसने अनौपचारिक क्षेत्र को तबाह कर दिया. ऐसे लोगों की भी संख्या में खासी बढ़त हुई है जो यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी का "अच्छे दिन'' का वादा बस एक चुनावी जुमला था. जनवरी 2017 में 24 प्रतिशत लोग ऐसा मानते थे, फिलहाल 43 प्रतिशत लोगों की प्रधानमंत्री के बारे में ऐसी ही धारणा बन चुकी है.
हालांकि उनकी कुल रेटिंग भले ही कम हो गई हो, फिर भी मोदी ने विदेश नीति के अलावा पेयजल, बिजली, सड़क और रेल संपर्क बढ़ाने जैसे क्षेत्रों में जो काम किया है, उसकी सर्वेक्षण में बहुत प्रशंसा हुई है. आगामी आम चुनाव में बहुत से कारक मोदी के पक्ष में भी दिख रहे हैं. 2019 के चुनाव बमुश्किल नौ महीने दूर हैं. बावजूद इसके, विपक्ष अभी तक न मजबूत गठबंधन बना पाया है न ही मोदी को चुनौती देने के लिए दमदार एजेंडा तैयार कर पाया है. मोदी विरोधियों के पास कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं है जिससे वे जनता को यह समझा सकें कि उनके पास भाजपा से बेहतर सरकार देकर देश को आगे ले जाने की क्षमता है.
यूपीए सरकार के आखिरी वर्षों के प्रदर्शन को लोग इतनी आसानी से भुला दें, इसकी संभावना नहीं दिखती क्योंकि अंतिम वर्षों के खराब कामकाज के आगे जनता ने यूपीए सरकार की सारी उपलब्धियों तक को भुला दिया था. राहुल गांधी के उदय के बावजूद, मोदी अभी भी राजनैतिक परिदृश्य में शिखर पर दिखते हैं. विपक्ष गुणा-भाग में मजबूत हो सकता है, लेकिन मोदी जनता के साथ जुडऩे की कला के धनी हैं. गुजरात और कर्नाटक चुनाव में भी मोदी फैक्टर ही भाजपा को बढ़त दिला गया.
रोड़े बेशुमार
मोदी ने आर्थिक विकास दर को औसत 7.5 प्रतिशत तक पहुंचा दिया है जिसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए लेकिन वे इस बात से वाकिफ हैं कि लोगों की आकांक्षाओं, खासतौर से नौकरियों के मोर्चे पर खरा उतरने के लिए विकास दर को दो अंकों तक पहुंचाने की जरूरत है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के डूबत कर्जों के अंबार ने उनके अभियान को गहरी क्षति पहुंचाई है. निजी निवेश स्थिर है, निर्यात गिर रहा है और ऑटोमेशन बढ़ा है और उत्पादन क्षेत्र उतनी नौकरियां पैदा नहीं कर पाया, जितनी उसने पिछले दशक में की थीं. कृषि संकट लगातार बना हुआ है और सरकार ने उसे दूर करने के प्रयास करने की जगह, अब तक मात्र उसके जक्चमों पर थोड़ा-बहुत मरहम भर ही लगाया है. इससे सबसे गरीब तबके में रोजगार संकट बढ़ाया है.
भारतीय मतदाता जानते हैं कि ऐसे मुश्किल हालात में देश को संभालने के लिए एक परिपक्व, मेहनती, ईमानदार और दृढ़ प्रधानमंत्री की आवश्यकता होगी. और इसीलिए वे मोदी को सबसे बेहतर मानते हैं. मोदी की व्यक्तिगत निष्ठा और ईमानदारी पर कभी सवालिया निशान नहीं लगे हैं. जो लोग उनके साथ काम करते हैं वे मोदी की उस क्षमता के बारे में बताते हैं कि कैसे मोदी अपने द्वारा शुरू किए गए विभिन्न कार्यक्रमों की कडिय़ों को जोड़कर उसे अगले उच्च स्तर पर ले जाने की दूरदृष्टि रखते हैं. वह व्यक्तिगत रूप से इन योजनाओं की प्रगति पर नजर रखते हैं, प्रगति की गति से नाखुश हैं और उसका लाभ आखिरी कोने तक पहुंचाने के लिए लगातार लक्ष्य को आगे खिसकाते रहते हैं.
आखिरी धक्का
मोदी ने अब तक विकास की मूल बातों पर ध्यान केंद्रित किया है जो अच्छी बात है. लेकिन उन्हें पता है कि भारत को विकसित राष्ट्रों की कतार में खड़े होना है और शक्तिशाली बनना है, तो एक असाधारण आर्थिक परिवर्तन की नितांत आवश्यकता होगी. उनके एक सहयोगी इसकी तुलना आवाज की गति से तेज उडऩे वाले विमान से करते हैं और मोदी प्रक्रियाओं की गति तेज करने को लेकर अधीर हैं जो प्रौद्योगिकी, कौशल, विपणन, पारदर्शिता, गति और ईमानदारी में बड़ा बदलाव लाएगी. अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री ने बीज-से-बाजार तक कृषि के आधुनिकीकरण, गुणवत्ता बढ़ाने और इस क्षेत्र को अधिक निर्यातोन्मुख बनाने के बारे में बात की. हालांकि इन उदार आदर्शों को वास्तविकता की कसौटी पर कसकर जांचने की आवश्यकता है.
इस देश का मिज़ाज सर्वेक्षण में मोदी के लिए बड़े संदेश छुपे हैं—मोदी को अधिक समावेशी होना पड़ेगा, खासकर अपने सहयोगियों के प्रति, क्योंकि जरूरत पडऩे पर वे ही उन्हें सहारा देंगे. उनकी सरकार जातिगत संघर्षों, गोरक्षा के नाम पर भीड़तंत्र के उपद्रव जैसे आंतरिक सुरक्षा के मुद्दों से निबटने को लेकर कठघरे में रहती है. अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में मोदी ने कहा कि उनकी सरकार कानून-व्यवस्था का उल्लंघन करने वालों के साथ ज्यादा सक्चती से निबटेगी.
प्रधानमंत्री को रुडयार्ड किपलिंग की किताब जंगल बुक से भी सबक लेना चाहिए, जिसमें मोगली और सभी जानवर दोहराते हैं, "यह जंगल का कानून है, आकाश के जितना पुराना और सच्चा; और जो भेडिय़ा इसे बनाए रखेगा वह फल-फूल सकता है, लेकिन जो भेडिय़ा इसे तोडग़ा उसका मरना तय है. जैसे बेल किसी पेड़ के तने के चारों ओर लिपटी रहती है उसी तरह कानून आगे और पीछे चलाता है; क्योंकि झुंड की ताकत भेडिय़ा है, और भेडिय़े की ताकत झुंड है.'' मोदी भारत के राजनैतिक जंगल में शेर हैं, लेकिन उन्हें पार्टी, सरकार और देश को मजबूत तथा एकजुट रखने के लिए जमीनी हकीकतों को स्वीकारने और अपने भीतर उतारने की जरूरत है.
***