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Movie Review इस 'गंगाजल' में जय वाली बात नहीं

प्रकाश झा के साथ एक कहावत जुड़ती ही जा रही है, और वह है 'ऊंची दुकान और फीके पकवान.' उनकी फिल्मों को लेकर जितनी हाइप रहती है, और जिस तरह का शोर रहता है और जिस तरह के दावे किए जाते हैं उनकी हवा शुक्रवार के दिन निकल जाती है. जानिए कैसी है उनकी नई फिल्म 'जय गंगाजल'....

नरेंद्र सैनी
  • नई दिल्ली,
  • 04 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 1:39 PM IST

रेटिंगः 2
डायरेक्टर: प्रकाश झा
कलाकार: प्रियंका चोपड़ा, प्रकाश झा, मुरली शर्मा, मानव कौल और राहुल भट्ट

प्रकाश झा के साथ एक कहावत जुड़ती ही जा रही है, और वह है 'ऊंची दुकान और फीके पकवान.' उनकी फिल्मों को लेकर जितनी हाइप रहती है, और जिस तरह का शोर रहता है और जिस तरह के दावे किए जाते हैं उनकी हवा शुक्रवार के दिन निकल जाती है. फिर चाहे वह 'चक्रव्यूह' (2012) हो, 'आरक्षण' (2011) हो या फिर 'सत्याग्रह' (2013). अब वह अपनी 13 साल पुरानी फिल्म 'गंगाजल' का सीक्वल लेकर आए है. लगा लगभग डेढ़ दशक बाद आ रहे हैं तो कुछ नयापन लेकर आएंगे. कुछ रिसर्च भी की होगी. पुराने झटकों से सीखा भी होगा. सब कोरा कागज. फिल्म की कहानी बहुत ही औसत है, कहानी खींची हुई है और एक्टिंग के तौर पर सभी औसत हैं.

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कहानी में कितना दम
फिल्म की कहानी वही दशकों पुरानी है. एक पुलिस अधिकारी अपनी पोस्टिंग पर आता है और कुछ शरारती तत्वों से उलझ जाता है और फिर इंसाफ की खातिर जंग में उलझ जाता है. इस बार अंतर सिर्फ इतना है कि पुलिस अधिकारी पुरुष न होकर महिला है. प्रियंका चोपड़ा दबंग एसपी हैं और उनकी पोस्टिंग बांकीपुर में होती है. वहां के भ्रष्ट नेता मानव कौल से उनका टकराव हो जाता है. भ्रष्ट का साथ एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी प्रकाश झा देता है. इस तरह प्रियंका चोपड़ा समाज में बुराई फैलाने के सौदागरों से उलझती हैं. लेकिन पहले हाफ में कहानी घिसटती हुई चलती है. प्रकाश झा एक ट्रैक पर नहीं रहते हैं, और कहानी के मामले में कई ट्रैक पर दौड़ते हैं. जैसे भ्रष्टाचार, कर्ज के नीचे दबे किसान, पाप का शहर और महिला सशक्तिकरण प्रमुख हैं. इसी कोशिश में फिल्म बिखरती चली जाती है. कहानी के मामले में यह फिल्म 'गंगाजल' (2003) के आगे कहीं नहीं ठहरती है.

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स्टार अपील
प्रियंका चोपड़ा को जो काम दिया गया है वह उन्होंने ठीक से निभाया है. वह चेहरे पर गुस्सा दिखाने की कोशिश करती हैं. तगड़े संवाद भी बोलने की कोशिश करती हैं. हर मामले में उन्नीस ही रहती हैं, और अगर उनकी तुलना 'मरदानी' की रानी मुखर्जी से की जाए तो वह रानी से बहुत ही हल्की पड़ती हैं. फिर फाइटिंग के बाद भी उनकी एकदम चकदक नजर आना सिर्फ एक मंजा हुआ डायरेक्टर ही कर सकता है. प्रियंका फिल्म में सामान्य ही हैं. 'मैडम-सर' कहकर इरिटेट करने वाले प्रकाश झा से तहेदिल से अनुरोध है कि वह सिर्फ डायरेक्शन ही करें. मानव कौल बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे अक्सर बॉलीवुड के भ्रष्ट नेता एक्टिंग करते हैं. कुछ भी विलक्षण नहीं. मुरली शर्मा ठीक हैं.

कमाई की बात
प्रकाश झा की फिल्में अक्सर बिहार सेंट्रिक होती हैं. वह बिहार के स्याह पक्ष को हमेशा दर्शकों के सामने रखते हैं. लेकिन अब उन्हें इससे थोड़ा आगे बढ़कर सोचना चाहिए. ऐसी कहानी लाएं जो जबरदस्ती समाजिक मसलों को उठाने के लिए न गढ़ी गई हो. कुछ स्वाभाविक टाइप की नई किस्म की कहानी हो. फिल्म को लो बजट बताया जा रहा है. फिल्म सिंगल स्क्रीन वाली है. वैसे प्रियंका का प्रमोशन से नदारद रहना, कमजोर म्यूजिक और रेगुलर कहानी अच्छे संकेत नहीं हैं.

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