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फिल्म रिव्यूः रहस्य
एक्टरः केके मेनन, आशीष विद्यार्थी, टिस्का चोपड़ा, मीता वशिष्ठ, कुनाल शर्मा, बिक्रमजीत कंवरपाल, निमाई बाली
डायरेक्टरः मनीष गुप्ता
ड्यूरेशनः 2 घंटा 6 मिनट
सर्टिफिकेटः यूए
रेटिंगः 3 स्टार
रहस्य नोएडा के चर्चित आरुषि मर्डर केस से प्रभावित फिल्म है. फर्क इतना है कि यह मुंबई में घटने वाली कहानी है और अंत में इस मर्डर मिस्ट्री के एक एक तार साफ तौर पर खुल जाते हैं.
आयशा महाजन मुंबई के एक डॉक्टर दंपति की किशोरवय बेटी है. एक रात उसका मर्डर हो जाता है. उसी रात से डॉक्टर का नया नौकर गायब है. पुलिस जांच में शक की सुई आयशा के पिता डॉक्टर सचिन महाजन पर टिक जाती है और वह जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है. मगर फिर जांच सीबीआई अफसर सुनील पारस्कर के पास पहुंचती है. वह नए सिरे से केस के एक एक पेच को जांचता है और आखिर में जब रहस्य खुलता है, तो आपके तमाम अंदाजों को झटका सा लगता है. क्लाइमेक्स इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है. अमूमन मर्डर मिस्ट्री देखते हुए हम उपलब्ध संकेतों के आधार पर अपने अपने तर्कों से संदिग्ध हत्यारा चुन लेते हैं और फिर मन ही मन उसके इर्द गिर्द थ्योरी गढ़ने लगते हैं. यहां पर ये सारी कवायद उलझी हुई लगती हैं.
एक्टिंग की बात करें तो सीबीआई अफसर के रोल में केके मेनन अपना काम उम्दा ढंग से करते हैं. मगर बेहतर होता कि वह करमचंद जासूस के गाजर एक्ट की तर्ज पर घड़ी घड़ी दिमाग तेज करने के लिए अखरोट न खाते. डॉक्टर महाजन के रोल में आशीष विद्यार्थी को देखकर अच्छा लगा. वह शानदार एक्टर हैं, मगर इधर कुछ बरसों से पर्दे पर दिखना बंद से हो गए हैं. आयशा की मां के रोल में टिस्का चोपड़ा और डॉक्टर महाजन की करीबी दोस्त बृंदा के रोल में मीता वशिष्ठ ने भी कैरेक्टर की कई सतहों को बखूबी अमली जामा पहनाया. नर्स रेमी के रोल में अश्विनी कलसेकर ने उम्दा काम किया है. इंस्पेक्टर के रोल में निमाई बाली थोड़े से लाउड लगे हैं.
फिल्म की खासियत है इसकी सधी हुई स्क्रिप्ट. फर्स्ट हाफ के शुरुआती दौर में फिल्म अंदाजे के मुताबिक आगे बढ़ती है. आरुषि मर्डर केस के इतने नाटकीय रूपांतरण दिखाए जा चुके हैं कि कल्पना के लिए ज्यादा अवकाश नहीं रह जाता. मगर जब केके मेनन तस्वीर में आते हैं तो फिल्म के स्याह पहलू और घुमावदार रास्ते नुमायां होने लगते हैं. सेकेंड हाफ ज्यादा कसा हुआ है.
फिल्म की कमजोरियों में पहली है स्क्रीनप्ले का कुछ कम टाइट होना. डिटेल्स के फेर में फिल्म की लेंथ बढ़ गई है. यह कुछ और छोटी हो सकती थी. इसके अलावा स्टीरियोटाइप को पोषण देना भी फिल्म के दोष में ही गिना जाएगा. पुलिस की देह भाषा हो या अदालत के सीन. या फिर आयशा के मुस्लिम प्रेमी का चित्रण, सब कुछ फिल्मी रवायतों का अक्षरशः पालन करते नजर आते हैं.
डायरेक्टर मनीष गुप्ता ने लेंथ कुछ लंबी होने के बावजूद ज्यादातर हिस्सों में फिल्म की रफ्तार को बनाए रखा है. जहां कहीं वह फनी होने की कोशिश करते हैं, फिल्म कुछ हिचकोले खाने लगती है. मगर नई जगह हों या एक एक किरदार का अंदाज, उनकी कैमरे और कहानी पर पकड़ साफ नजर आती है. हालांकि सिनेमैटोग्राफी के लिहाज से बहुत ज्यादा प्रयोग नहीं किए गए हैं.
जिन लोगों को मर्डर मिस्ट्री और इनवेस्टिगेशन की थीम वाली फिल्में पसंद हैं, उनके लिए यह खालिस इंडियन प्लॉट वाली फिल्म एक अच्छा ऑप्शन हो सकता है. इधर आई कुछ और छोटे बजट की फिल्मों के मुकाबले रहस्य बेहतर बन पड़ी है.