
समाजवादी पार्टी (सपा) सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की हसरत को उसी वक्त पंख लग गए थे, जब 6 मार्च, 2012 को विधानसभा चुनाव के नतीजे आए और 403 सदस्यों वाली विधानसभा में पार्टी को रिकॉर्ड 224 सीटें मिलीं. उन्हें लगने लगा कि अप्रैल 1997 में प्रधानमंत्री की जिस कुर्सी के करीब पहुंचकर भी वे उस पर बैठने से वंचित रह गए, उसे पूरा करने का वक्त आ गया है. इसलिए 73 वर्षीय ‘नेताजी’ ने उत्तर प्रदेश की बागडोर अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी. सूबे में सियासी गोटियां फिट करने के बाद मुलायम 12 मार्च को संसद के बजट सत्र में विजेता की तरह पहुंचे.
उन्होंने मध्यावधि चुनाव का सुर्रा छोड़कर कांग्रेस को अपनी नई हैसियत का एहसास करा दिया. उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के वक्त पहले कांग्रेस को गच्चा देकर ममता बनर्जी के साथ हाथ मिला प्रणब मुखर्जी के नाम को खारिज किया. लेकिन उत्तर प्रदेश के विकास के लिए आर्थिक सहयोग मिलते ही वे ‘मुलायम’ पड़ गए और मुखर्जी की उम्मीदवारी पर राजी हो गए. मगर राष्ट्रपति चुनाव के वक्त 19 जुलाई को विपक्ष के उम्मीदवार के नाम पर मोहर लगाने की भूल से एक बार फिर उनकी गिरती सेहत और लक्ष्य पर सवाल उठे.
संसद के मॉनसून सत्र के दौरान मुलायम ने दोहरी रणनीति अपनाकर तीसरे मोर्चे के बीजारोपण की कोशिश की. उन्होंने कोयला घोटाले पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच ठनी रार के बीच वामपंथी पार्टियों और टीडीपी के साथ मिलकर 31 अगस्त को संसद भवन परिसर में धरना दिया और घोटाले के मामले में कांग्रेस-बीजेपी को एक जैसा बताया. इस धरने में लगातार ‘सयुक्त मोर्चा जिंदाबाद’ और ‘नेताजी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ के नारों ने उनके भावी मंसूबों को स्पष्ट कर दिया.
दूसरी तरफ, मुलायम ने प्रमोशन में एससी-एसटी के आरक्षण के विरोध में सख्त रुख अख्तियार कर लिया. राज्यसभा से बिल पास हो जाने के बाद भी सपा के अडिय़ल रुख ने उसे लोकसभा में लटका ही दिया. उनकी रणनीति इस बिल का विरोध कर सवर्ण-मुस्लिम-यादव समीकरण बनाने और अगले लोकसभा चुनाव में यूपी से 50 से ज्यादा सीटें हासिल करने की है, ताकि यूपीए और एनडीए को बहुमत न मिलने पर प्रधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार बन सकें. इसी रणनीति के तहत उन्होंने वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी को लखनऊ बुलाकर समर्थन हासिल किया.
तिवारी ने मुलायम की मंशा का इजहार भी कुछ यूं कर दिया, “मुलायम देश चलाएं, अखिलेश प्रदेश.” लेकिन कांग्रेस का विरोध वे इस हद तक नहीं करना चाहते जिससे कि कांग्रेस और मायावती की दोस्ती गहरी हो. इसलिए दो नावों में सवार होकर वे राजनीति कर रहे हैं. एफडीआइ और डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी से नाराज ममता ने 21 सितंबर को सरकार से समर्थन खींचा तो मुलायम उम्मीद के मुताबिक तारणहार बने.
मुलायम की दोहरी छवि उनकी विश्वसनीयता में बाधक है. उन्होंने तीसरे मोर्चे का बीड़ा उठाया तो लेफ्ट के नेताओं ने फौरन जुलाई 2008 में न्यूक्लियर डील के दौरान मुलायम की ओर से किए गए विश्वासघात की दुहाई दी और कहा कि मोर्चा सिर्फ कोल-गेट मामले पर है. पूरे साल राजनीति की डगर पर आत्मविश्वास से आगे बढ़े मुलायम को आखिर में सुप्रीम कोर्ट से झटका लगा, जब अदालत ने मुलायम पर आय से अधिक संपत्ति मामले में मुकदमा जारी रखने का आदेश दिया. लेकिन राजनीति असंभव को संभव करने का खेल है, इसलिए मुलायम अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए लगातार सियासी वर्जिश कर रहे हैं.