Advertisement

म्यांमार मुहिम: लक्ष्य पर सीधे हमला

आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने के लिए म्यांमार में भारतीय सेना की सटीक कार्रवाई आतंकवादी हमलों का करारा जवाब देने की नीति की शुरुआत का संकेत

संदीप उन्नीथन
  • ,
  • 15 जून 2015,
  • अपडेटेड 2:31 PM IST

सबसे पहले म्यांमार में घुसकर आतंकवादी शिविरों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के विकल्प पर मणिपुर की राजधानी इंफाल के पास मंत्रिपुखरी में सेना के अभियान कक्ष में चर्चा हुई. दीमापुर स्थित तीसरी कोर के कमान प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत 5 जून को उस बैठक में ब्रीफिंग दे रहे थे. उनके छोटे-से, पर बेहद चौकन्ने श्रोता वर्ग में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल और सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह शामिल थे. सामने एक बड़ा-सा नक्शा टंगा था, जिसमें पड़ोसी देश म्यांमार में मौजूद दर्जनों आतंकवादी पनाहगाह दिखाए गए थे. नक्शे पर इशारा करके लेफ्टिनेंट जनरल रावत ने कहा, “हमें म्यांमार के अंदर जाना होगा.” बैठक में मूड गमगीन मगर दृढ़ था. एक दिन पहले ही, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड&खापलांग (एनएससीएन-के) से संबद्ध गुट कांग्लेई यावोल कन्ना लुप (केवाइकेएल) के उग्रवादियों ने इंफाल से 80 किलोमीटर दूर सैन्य काफिले पर घात लगाकर हमला कर दिया था, जिसमें 18 जवान शहीद हो गए थे. लगभग तीन दशकों में सेना की आतंकवाद विरोधी मुहिम में इस सबसे बड़ी क्षति से देश का पूरा सुरक्षा प्रतिष्ठान हिल उठा था. एनएसए ने  प्रधानमंत्री की बांग्लादेश की राजकीय यात्रा में जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया. सेना प्रमुख ने अपने ब्रिटेन के दौरे को मुल्तवी कर दिया. यह हिंसक घटना एक मायने में इन दोनों के लिए व्यक्तिगत झटका भी थी. दोनों पूर्वोत्तर में कई वर्षों तक सक्रिय भूमिका निभा चुके हैं. डोभाल ने खुफिया ब्यूरो (आइबी) के अधिकारी के नाते 1980 के दशक के मध्य में मिजो नेशनल फ्रंट को बातचीत की मेज पर लाने में भूमिका निभाई थी. जनरल दलबीर ने तीसरी कोर के कमांडर और बाद में कोलकाता स्थित सेना की पूर्वी कमान के कमांडर के रूप में 70 से अधिक उग्रवादी गुटों के खिलाफ कार्रवाई की कमान संभाली थी. तीसरी कोर के शीर्ष अधिकारी कई हफ्तों म्यांमार में उग्रवादी शिविरों पर कार्रवाई के विकल्प पर विचार कर रहे थे.

 म्यांमार स्थित विद्रोही नेता एस.एस. खापलांग के नेतृत्व वाले एनएससीएन (के) ने भारत सरकार के साथ 17 वर्ष से चला आ रहा युद्धविराम मार्च में तोड़ दिया था. इसका असर भी दिखने में ज्यादा देर नहीं लगी. 4 मई को कुछ अज्ञात आतंकियों के हमले में असम राइफल्स के आठ जवान शहीद हो गए थे. कथित तौर पर कई जवानों को काफी करीब से मारा गया और उनके शव को क्षत-विक्षत कर दिया गया. संदेह है कि ये एनएससीएन (के) से जुड़े थे. कुछ समय से शांत नजर आने वाला पूर्वोत्तर अब फिर जल उठा है. उग्रवादी छापामार शैली में हमले करके म्यांमार में अपने पनाहगाहों में जा छुपते हैं. आम तौर पर पहाड़ी ढलानों पर घने जंगलों में इन अड्डों में विद्रोही सुरक्षित रहते हैं.

72 घंटे का मिशन
म्यांमार में इन आतंकी शिविरों पर हमले की सेना की योजना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 7 जून को बांग्लादेश दौरे से लौटने के बाद हरी झंडी मिली और फिर इस पर तेज गति से हरकत शुरू हुई.

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पहले ही इससे वाकिफ थीं और सैन्य कार्रवाई के कुछ दिन पहले म्यांमार में भारत के राजदूत गौतम मुखोपाध्याय नेपीदा में वहां के विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से मिले और उन्हें जानकारी दी. राजदूत को बताया गया कि म्यांमार को सैन्य कार्रवाई पर कोई आपत्ति नहीं है. बस कुछ छोटी-मोटी शर्तें थीं कि सामान्य नागरिकों को कोई क्षति नहीं होनी चाहिए, कार्रवाई बिना किसी शोर-शराबे के होनी चाहिए और पूरी मुहिम तेजी से संपन्न होनी चाहिए. फिर भी मामला कठिन था. भारत अपने ही लोगों पर विदेशी धरती पर हमला करने जा रहा था. यानी म्यांमार के गुपचुप समर्थन के बिना अभियान कामयाब होने वाला नहीं था.

 यूनिट के चयन में ज्यादा दिमाग नहीं खपाना था. 21वीं बटालियन की पैराशूट रेजिमेंट या संक्षेप में पैरा-एसएफ जंगल युद्घ का विशेष दस्ता है. यह लगभग दो दशकों से पूर्वोत्तर में तैनात है. यह असम के जोरहाट में स्थित है और इसकी टीमें उग्रवाद से प्रभावित राज्यों में फैली हुई हैं. 21 पैरा एसएफ पूर्वी कमान की अचानक हमले की टुकड़ी की तरह काम करती है. इस यूनिट के पास स्थानीय मुखबिरों का एक उम्दा नेटवर्क है. इसके कई अधिकारी और जवान पूर्वोत्तर राज्यों के स्थानीय लोग हैं. यूनिट के अच्छे अधिकारियों में से एक, पूर्वोत्तर के मेजर को इस मिशन का प्रभार सौंपा गया, जिसने इस साल अप्रैल में एनएससीएन (के) के खिलाफ अभियान में सक्रिय भूमिका निभाई थी. हमले की योजना खुफिया सूत्रों से मिलीं सटीक जानकारियों के आधार पर बनाई गई थी. दो अड्डों की पहचान की गई, जो म्यांमार की सीमा में लगभग आठ किलोमीटर अंदर थे.

हमले की योजना अधिकतम सफलता को ध्यान में रखकर बनाई गई थी. इसलिए तय किया गया कि दो उग्रवादी अड्डों की ओर दो पैरा एसएफ टीमें अलग-अलग दिशाओं से बढ़ेंगी. प्रत्येक अड्डे में 40 से 50 आतंकवादियों के होने का अनुमान था. हर अड्डे पर दागो और भागो की छापामार शैली में हमला करना था, ताकि उग्रवादियों को संभलने का मौका न मिले.

इस सैन्य कार्रवाई के ब्यौरे अभी उजागर नहीं हुए हैं लेकिन इंडिया टुडे ने कुछ अधिकारियों से बातचीत के आधार पर पिरोने की कोशिश की है. कुंभीग्राम हवाई अड्डे से एमआइ-17 परिवहन हेलिकॉप्टरों को मणिपुर के इंफाल हवाई अड्डे पर तैनात कर दिया गया था. ये कमांडो जवानों को म्यांमार में ले जा सकते थे. वायु सेना के सर्चर मार्क-2 ड्रोन बागियों के ठिकानों की जानकारी मुहैया करा रहे थे.

 सेना को चिंता बस इसी बात की थी कि कहीं मदद के लिए भेजा जाने वाला हेलिकॉप्टर क्षतिग्रस्त न हो जाए, या कोई कमांडो उग्रवादियों की पकड़ में न आ जाए. इसी वजह से म्यांमार सरकार को मुहिम के बारे में बताना जरूरी था.

यह भारतीय सेना का पहला सीमा पार आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन नहीं था. 1995 में एनएससीएन और यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के बागियों के सफाए के लिए भारतीय सेना ने  म्यांमार सेना के साथ “ऑपरेशन गोल्डन बर्ड” नामक संयुक्त अभियान चलाया था. 2003 में, “आपरेशन ऑल क्लियर” के तहत रॉयल भूटान आर्मी ने उल्फा बागियों के खिलाफ भारतीय सेना के साथ कार्रवाई की थी. लेकिन वे अभियान घेरने और पकड़ने के लिए थे. 9 जून की मुहिम सटीक हमला थी. इसमें सटीक खुफिया सूचना पर खास ठिकाने को निशाना बनाया गया था. यह उस किस्म का हमला था, जिस पर 26 नवंबर, 2008 को मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों के खिलाफ कार्रवाई के लिए विचार किया गया था. लेकिन सटीक खुफिया जानकारी के अभाव में इरादा छोड़ दिया गया था.

म्यांमार की सीमा में 8 जून की देर शाम करीब 30 कमांडो 15-15 की दो टोली में हेलिकॉप्टर से रवाना किए गए. वे आधी रात के करीब अपने लक्ष्य पर पहुंच गए. पूर्व निर्धारित संकेत मिलने के बाद उन्होंने बागियों के अड्डों पर धावा बोल दिया और अपनी टैवोर राइफलों और पीके जनरल पर्पज मशीनगनों से फायरिंग करते हुए हैरान विद्रोहियों को ढेर कर दिया. ऑपरेशन के बारे में जानकारी रखने वाले एक अधिकारी कहते हैं, “45 मिनट में सारा काम खत्म हो चुका था.” वे कहते हैं, “इतना समय नहीं था कि वहां रुका जाए और मारे गए दुश्मनों को गिना जाए.” उसके बाद कमांडो घने अंधेरे में जंगल में पैदल ही सीमा की ओर चल पड़े. हालांकि ये जंगल सांपों और जोंकों से भरे हुए हैं. यहां पांच किलोमीटर की दूरी तय करने में भी पूरी रात लग जाती है, क्योंकि इन जंगलों में भारी उमस होती है और तेज चलने से शरीर में पानी की कमी होने का खतरा रहता है. लेकिन 21 पैरा एसएफ के जवानों के लिए यह कोई समस्या नहीं थी, जिनमें से अधिकांश जंगल को अपना दूसरा घर मानते हैं और 40 किलो का बोझ पीठ पर लेकर भीषण जंगल में मार्च करने का प्रशिक्षण लेते हैं.

अक्सर धीमी और विस्तृत मुहिम करने के ही काबिल समझी जाने वाली सेना के लिए यह बिजली की गति से की गई अनोखी सैन्य कार्रवाई थी. योजना बनाने से लेकर उस पर अमल में महज 72 घंटे लगे. रक्षा अध्ययन तथा विश्लेषण संस्थान में रिसर्च फेलो कर्नल विवेक चड्ढा (सेवानिवृत्त) कहते हैं, “यह कार्रवाई भारत की आतंकवाद विरोधी मुहिम में एक भारी बदलाव की कहानी कहती है. अतीत की तुलना में यह मुहिम साहसिक और मजबूत नजरिए को उजागर करती है.”

इस सैन्य कार्रवाई का असर पूरे उपमहाद्वीप में महसूस किया गया. वजह सिर्फ यह नहीं थी कि केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौड़ (सेवानिवृत्त) ने अपने बड़बोलेपन में पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ इस तरह के हमलों की चेतावनी दे डाली. इस असंयत टिप्पणी का फौरी नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान ने नाराजगी जताई और वहां की सीनेट ने भारत के “अति सक्रिय और उकसावे वाले बयानों” के खिलाफ प्रस्ताव पास किया. म्यांमार ने भी नाखुशी जताई और ऐसी कार्रवाई से इनकार किया. इससे भविष्य में संयुक्त अभियानों पर सवालिया निशान लग गया. जाहिर है, यह सरकार के लिए अपनी बयानबाजी को नियंत्रित रखने का सबक है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement