
म्यांमार ने बांग्लादेश को अपने उन नागरिकों की सूची सौंपी है जो बांग्लादेश में बतौर शरणार्थी हैं. दोनों देशों के बीच समझौते के तहत अब ये शरणार्थी स्वदेश लौटेंगे. पहले जत्थे में 508 हिंदू और 750 मुसलमानों के नाम शामिल हैं.
म्यांमार के एक वरिष्ठ राजनयिक ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को इस बारे में सूचित किया है.
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म्यांमार पर हुए कई सवाल
बता दें कि पिछले साल 25 अगस्त को म्यांमार में हिंसा आरंभ होने के बाद 680,000 से अधिक रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश में दाखिल हो गए थे. जिसके बाद म्यांमार प्रशासन पर वहां मौजूद अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े हुए थे.
हाल ही में हुआ समझौता
हाल ही में म्यांमार और बांग्लादेश के बीच रोहिंग्या शरणार्थियों की वतन वापसी सुनिश्चित करने के लिए समझौता हुआ था. म्यांमार की सरकार रोहिंग्या समुदाय के लोगों को जातीय समूह के तौर पर मान्यता नहीं देती है.
क्या है रोहिंग्या मामला?
इसकी शुरुआत 1982 में हुई, जब म्यांमार सरकार ने राष्ट्रीयता कानून बनाया. इस कानून में रोहिंग्या मुसलमानों का नागरिक दर्जा खत्म कर दिया गया. जिसके बाद से ही म्यांमार सरकार रोहिंग्या मुसलमानों को देश छोड़ने के लिए मजबूर करती आ रही है.
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इस पूरे विवाद की जड़ करीब 100 साल पुरानी है, लेकिन 2012 में म्यांमार के राखाईन राज्य में हुए सांप्रदायिक दंगो ने इसमें हवा देने का काम किया. रोहिंग्या मुसलमान और म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय के बीच विवाद 1948 में म्यांमार के आजाद होने के बाद से ही चला आ रहा है.
रोहिंग्या ने बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान सहित पूर्वी एशिया में शरण ली
रोहिंग्या सुन्नी मुस्लिम हैं, जो बांग्लादेश के चटगांव में प्रचलित बांग्ला बोलते हैं. म्यांमार में रोहिंग्या की आबादी 10 लाख के करीब है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक करीब इतनी ही संख्या में रोहिंग्या बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान सहित पूर्वी एशिया के कई देशों में शरण लिए हैं.
रोहिंग्या समुदाय 15वीं सदी के शुरुआती दशक में म्यांमार के राखाइन में, जिसे अराकान के नाम से भी जाता है, रह रहे थे. ये वो दौर था जब म्यांमार में ब्रिटिश शासन था. पर बाद में इन्हें दर-बदर होने को मजबूर होना पड़ा.
रोहिंग्या और बौद्धों के बीच भड़के व्यापक दंगे
म्यांमार में सैन्य शासन आने के बाद रोहिंग्या समुदाय के सामाजिक बहिष्कार को बकायदा राजनीतिक फैसले का रूप दे दिया गया और उनसे नागरिकता छीन ली गई.
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2012 में रखाइन में कुछ सुरक्षाकर्मियों की हत्या के बाद रोहिंग्या और बौद्धों के बीच व्यापक दंगे भड़क गए थे.